Monday, June 1, 2020

उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 42 [ बह्र-ए-कामिल 02 ]

र्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 42 [ कामिल की मुज़ाहिफ़ बह्रें]

Disclaimer Clause--वही जो क़िस्त 1 में हैं---
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---पिछली क़िस्त में बह्र-ए-कामिल की सालिम बहर और इसकी मुरब्ब: मुसद्दस और मुसम्मन शकल की चर्चा कर चुका हूँ

अब हम कामिल की मुज़ाहिफ़ बह्रों पर चर्चा करेंगे

शुरु शुरु में जब ज़िहाफ़ात की चर्चा कर रहे थे तो कहा था उर्दू शायरी में लगभग 48 के आस पास ज़िहाफ़ात प्रयोग में लाये जाते हैं [ तस्कीन और तक्ख़्नीक के अमल से बरामद होने वाले अतिरिक्त वज़न को छोड़ कर] ।इन 48 ज़िहाफ़ात में  से 11 ज़िहाफ़ तो  ऐसे है जो सिर्फ़ ’कामिल’ और वाफ़िर ’ पर ही लगते हैं। कामिल के मुसम्मन सालिम का आहंग ही खुद में इतना दिलकश है कि शायरों ने मुज़ाहिफ़ बहर की तरफ़ ख़ास रुख ही नहीं किया । 11 ज़िहाफ़ लगाने की तो बात ही बहुत दूर की है-2-4 जिहाफ़ प्रयोग कर लिया काफी है ।
इसी लिए ,ख़ास ख़ास ज़िहाफ़ का ज़िक्र करना ही मुनासिब होगा
आप तो यह जानते ही है कि बह्र-ए-कामिल की बुनियादी रुक्न ’मु त फ़ाइलुन्’ [1 1 2 1 2]  है और् इस् पर् लगने वाले ख़ास ख़ास मुफ़र्द ज़िहाफ़ निम्न [दर्ज-ए-ज़ैल]हैं

मु त फ़ाइलुन्’ [1 1 2 1 2]  + इज़्मार्   =मुज़्मर = मुस् तफ़् इलुन् = 2212
मु त फ़ाइलुन्’ [1 1 2 1 2]  + वकस् =मौक़ूस् = मफ़ाइलुन्    = 1212   
 मु त फ़ाइलुन्’ [1 1 2 1 2]  +क़तअ’                 =मक़्तूअ’ = फ़इलातुन् = 1122 [ यहाँ  फ़े--ऐन्--लाम्  तीन् मुतहर्रिक् एक् साथ् आ गये है तो तस्कीन् का अमल हो सकता है।
मु त फ़ाइलुन्’ [1 1 2 1 2]  +इज़ाला = मज़ाल् = मु त् फ़ा इला तुन्      = 1 1 2 121 = इस् की चर्चा पिछले क़िस्त् में कर् चुके हैं । यह् अरूज़् और् ज़र्ब के लिए ख़ास है
मु त फ़ाइलुन्’ [1 1 2 1 2]  +तरफ़ील् =मुरफ़्फ़ल= मु त् फ़ा इला तुन् = 1 1 2 1 2 2
मु त फ़ाइलुन्’ [1 1 2 1 2]  +हज़ज़ =महज़ूज़्   = फ़ इ लुन्   = 1 1 2  [ यहाँ फ़े--ऐन्--लाम् तीन् मुतहर्रिक् एक साथ आ गये है तो ’तस्कीन्’ का अमल हो सकता है 

इसकए अतिरिक्त कुछ मुरक़्कब ज़िहाफ़ भी है जो बहर-ए-कामिल पर लगते है
जैसे
इज़्मार+ इज़ाला
इज़्मार+ तर्फ़ील
वकस + इज़ाला
वकस+तरफ़ील
क़तअ’+ तस्कीन  वग़ैरह वग़ैरह
इज़्मार्+ तय्यी

आप जानते है कि हर फ़र्द ज़िहाफ़ का अपना एक तरीक़ा-ए-अमल होता है जो सालिम रुक्न के ख़ास टुकड़े [ सबब-ए-सक़ील पर, सबब-ए-ख़फ़ीफ़ पर या वतद-ए-मज़्मुआ पर] अमल करता है और मुरक़्क़ब ज़िहाफ़ के दोनो या तीनो ज़िहाफ़  सालिम रुक्न [ मु त फ़ा इलुन =1 1 2 1  2] पर  एक साथ अमल करते है तो मुज़ाहिफ़ वज़न बरामद होती है जैसा कि ऊपर लिख दिया है। तवालत से बचने के लिए हर ज़िहाफ़ का तरीक़ा-ए-अमल यहाँ चर्चा नहीं कर रहा हूँ  ,सीधे बरामद होने वाले मुज़ाहिफ़ शकल ही लिख दिया है।

अब हम उन ख़ास ख़ास मुज़ाहिफ़ बह्रों की मात्र चर्चा करेंगे जो उर्दू शायरी में आसान है या राइज़ हैं  , उदाहरण आप पेश करें [इन मुज़ाहिफ़ बह्रों के वज़न के आधार पर] तो अच्छा रहेगा
मुरब्ब: बह्रें:-
[1] कामिल मुरब्ब: मुज़्मर सालिम ------ आसान है ।पहला रुक्न मुज़्मर [ मुस् तफ़् इलुन् 2212]     रखना है और दूसरा रुक्न सालिम [मु त फ़ाइलुन् 1 1 212] रखना है
मुस् तफ़् इलुन्----मु त फ़ा इलुन्
2    2    1   2 -----1  1 2 1 2
चूँकि आखिरी रुक्न् [अरूज़् और्  ज़र्ब के मुक़ाम पर ]सालिम्  रुक्न है अत:  यहाँ मज़ाल  [मु त् फ़ा इलान्      = 1 1 2 121]  भी लाया जा सकता है और एक नई बहर बन सकती है।} और नाम होगा ---बह्र-ए-कामिल मुरब्ब: मुज़्मर सालिम मज़ाल
जैसे
[1-क] बह्र-ए-कामिल मुरब्ब: मुज़्मर सालिम मज़ाल
मुस् तफ़् इलुन्----मु त फ़ा इलान्
2    2    1   2 -----1  1 2 1 21

मिसाल् आप सोचें
[2] कामिल् मुरब्ब्: सालिम् मुज़्मर्------आसान् है}पहला रुक्न् सालिम् [ मु त फ़ाइलुन् 1 1 2 12] रखना है और् दूसरा रुक्न् मुस् तफ़् इलुन् [ 2 2 1 2 ] रखना है
मु त फ़ा इलुन्------मुस् तफ़् इलुन्
1 1   2 1    2--------2 2 1 2 
चूंकि आखिरी रुक्न मुस तफ़ इलुन [2 2 12 है जो बहर-ए-रजज़ की बुनियादी रुक्न हो गई । बहर-ए-रजज़ की जब चर्चा कर रहे थे तो इस पर भी इज़ाला ज़िहाफ़ का प्रयोग किया था जिसका मज़ाल मुस् तफ़् इलान् [ 22121] था जो अरूज़् और् ज़र्ब् के लिए ख़ास् है अत: इस केस मैं भी अरूज़ और ज़र्ब के मुक़ाम पर मुस् तफ़् इलान् [ 22121]  लाया जा सकता है और एक नई बहर बन सकती है और नाम होगा -बह्र-ए-कामिल मुरब्ब: सालिम मुज़्मर मज़ाल
[2-क] बह्र-ए-कामिल मुरब्ब: सालिम मुज़्मर मज़ाल
जैसे -    मु त फ़ा इलुन्------मुस् तफ़् इलान्
1 1   2 1    2--------2 2 1 2 1
मिसाल् आप् सोचें

मुसद्दस बह्रें:-
[3] बह्र्-ए-कामिल मुसद्दस सालिम मुज़्मर सालिम ---आसान है पहला और  तीसरा रुक्न सालिम रखिए और दूसर [हस्व] रुक्न को मुज़मर -देखिए क्या बनता है

मु त फ़ाइलुन्-----मुस् तफ़् इलुन्------मु त फ़ाइलुन्
11212------------2 2 12  -----        1  1 2 1 2

वही बात , अरूज़ और ज़र्ब के मुक़ाम पर ’मु त फ़ा इलुन’ का मज़ाल -’मु त् फ़ाइलान् ’ [ 112121] लाया जा सकता है और् बह्र् का नाम् होगा--बह्र्-ए-कामिल मुसद्दस् सालिम् मुज़्मर् सालिम् मज़ाल्
[3-क] बह्र्-ए-कामिल मुसद्दस् सालिम् मुज़्मर् सालिम् मज़ाल् ---
मु त फ़ाइलुन्-----मुस् तफ़् इलुन्------मु त फ़ाइलान्
11212------------2 2 12  -----        1  1 2 1 2 1

[4]  बह्र्-ए-कामिल् मुसद्दस् मुज़्मर् सालिम् मुज़्मर् --कुछ नहीं , बस सदर/इब्तिदा पे मुज़्मर और हस्व पे सालिम रख दीजिये

मुस् तफ़् इलुन्-----मु त फ़ाइलुन्-----मुस् तफ़् इलुन्
2  2  1  2---------1 1  2 1  2-------2    2    1  2

वही बात् --अरूज़ और ज़र्ब के मुक़ाम पर मुस् तफ़् इलुन् [2212] का मज़ाल् -मुस् तफ़् इलान् [ 2 2 1 2 1] लाया जा सकता और् बह्र् का नाम् होगा--बह्र्-ए-कामिल् मुसद्दस् मुज़्मर्  सालिम् मुज़्मर् मज़ाल्
[4-क्] बह्र्-ए-कामिल् मुसद्दस् मुज़्मर्  सालिम् मुज़्मर् मज़ाल्

मुस् तफ़् इलुन्-----मु त फ़ाइलुन्-----मुस् तफ़् इलान्
2  2  1  2---------1 1  2 1  2-------2    2    1  2 1
यह तो रही ’ इज़्मार’ ज़िहाफ़ की बात
अब ज़रा ’तरफ़ील’ ज़िहाफ़ की बात कर लेते हैं
आप जानते ही हैं कि ’मु त फ़ा इलुन् ’ [1 1 2 1 2] पर ’तरफ़ील’ के अमल से ’मु त फ़ा इला तुन ’ [ 1 1 2 12 2 ] बरामद होता है जिसे ’मुरफ़्फ़ल’ कहते है
[5] बह्र-ए-कामिल मुरब्ब: मुरफ़्फ़ल
मु त फ़ा इलुन्-----मु त फ़ा इला तुन्
1  1  2  1  2-------1 1 2 1 2   2
एक् और ज़िहाफ़ की चर्चा कर लेते हैं -वो ज़िहाफ़ है ’ वक़स्’ जिसके मुज़ाहिफ़ को ’मौक़ूस’ कहते हैं
मु त फ़ाइलुन [11212] का मौक़ूस है -मफ़ा इलुन [1212] --ऊपर दिखाया जा चुका है
[6] बह्र-ए-कामिल मुरब्ब: मौक़ूस सालिम
      मफ़ाइलुन----मु त फ़ाइलुन
       1 2 1 2 -------1 1 2 1 2
 कामिल की मुज़ाहिफ़ बहर और भी है और बन सकती हैं अगर आप ---ख़ज़ल ---   क़तअ’.... हज़ज़--का ज़िहाफ़ लगायें या दो दो ज़िहाफ़ एक साथ लगायें --मुमकिन है
फिर बहुत सी मुज़ाहिफ़ रुक्न भी बरामद हुई है जिस में " तीन मुतहर्रिक"-एक साथ आ गये हैं तो तस्कीन का अमल भी हो सकता है
और शे’र की मुरब्ब:---मुसद्दस--मुसम्मन--शकल भी मुमकिन है
कहने का मतलब यह कि कामिल में बहर की संभावनाये तो बहुत है --यूँ मनाही तो नही है ,मगर कोई शायर इन तमाम मुम्किनात बहर में शायरी नहीं करता । हमने तो बस बहर-ए-कामिल मुसम्मन सालिम में या 1-2 मुज़ाहिफ़ में ही अश’आर देखें हैं।
आप चाहें तो इन तमाम छोटी छोटी मुज़ाहिफ़ बहर [मुरब्ब: वाली] में प्रयास कर सकते है---
वैसे समझाने के लिए तो ख़ुदसाख्ता अश’आर तो कहे और बनाये जा सकते है मगर मज़ा तो तब है जब आप खुद कहें ।खैर
एक और दिलकश  कामिल की मुज़ाहिफ़ बहर की चर्चा कर इस आलेख को समाप्त करता हूँ। और वो बह्र है---बह्र-ए-कामिल मुसम्मन मुज़्मर]--बह्र आसान है
[7] बह्र-ए-कामिल मुसम्मन मुज़्मर
मु त फ़ाइलुन----मुस् तफ़् इलुन् // मु त् फ़ाइलुन् ---मुस् तफ़् इलुन्
1 1 2 1 2 -------- 2 2  1  2   //  1 1   2 1 2 ------2  2   1  2
 डा0 आरिफ़ हसन ख़ान साहब के हवाले से एक उदाहरण भी देख लेते है } आप भी चाहें तो ऐसी मिसाल पेश कर सकते हैं

कभी चाँदनी मै सैर को ,किसी गुलिस्ताँ की जाओ गर
कोई ख़ार दामन थाम ले , मुझे याद करना उस घड़ी

अब तक़्तीअ कर के देख लेते है
1 1     2  1 2  / 2 2 1  2  //  1  1   2 1  2 /  2 2  1 2
कभी चाँदनी /  मै सै र को //,किसी गुलस्ताँ / की जा उ गर
 1  1   2  1 2  / 2  2 1  2  //    1 1  2 1 2  / 2   2  1  2
कोई ख़ार दा/  मन थाम ले // , मुझे याद कर / ना उस घड़ी

अच्छा ,इस तक़्तीअ’ में आप को एक उलझन ज़रूर पैदा हो रही होगी-
-कि मैने ’कभी’ का --भी
किसी का --सी
कोई का  --’को’  और ’ई’
मुझे    का --झे’   ------
अगरचे देखने में तो 2-सबब-ए-ख़फ़ीफ़ लगते है मगर हम ने यहाँ सबब-ए-सक़ील [2=हरकत+हरकत] के वज़न पर क्यों लिया ?
Simple---बह्र की माँग है
मगर--- अगर ्लफ़्ज़ -’कभी’- को रस्म अल ख़त उर्दू में लिखा जाय [ जो यहाँ लिखना मुमकिन नहीं हो पा रहा है ]  इसे तक़्तीअ में -क-[काफ़]  तो यूँ ही मुतहर्रिक है कारण की लफ़्ज़ का पहला हर्फ़ है जो लाज़िमन मुतहर्रिक ही होगा
"भ [ बे+ दो चश्मी ह] तक़्तीअ में दो चश्मी -ह- को शुमार नही करते कारण कि यह कोई वज़न तो दे नहीं रहा है बस हवा छोड़ रहा है तो वज़न क्या? फिर -’ ई’  के लिए  ’ज़ेर’ [ जो एक हरकत ही है ] लगा दे तो -भी- मुतहर्रिक का वज़न देने लग जायेगा --यानी क बि ---क बि -- हरकत+हरकत =सबब-ए-सक़ील=1 1
और जब शे’र की अदायगी करेंगे तो इस बात का ख़याल रखेंगे---यह नहीं कि --कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है कि तर्ज पर -- भी-- को खींच कर शे’र पढ़ना शुरु कर दें
यही बात और ऊपर्युक्त [ दर्ज-ए-बाला] अल्फ़ाज़ की भी है ।

एक बात और-- इस मज़्मून [आलेख] में मैने जान बूझ कर बहुत से उदाहरण नहीं दिए और न तक़्तीअ किया। कारण कि ज़्यादातर शायरों ने अपनी शायरी में  ’कामिल मुसम्मन’ या  ’कामिल मुसम्मन मुज़मर’ का ही प्रयोग किया है बाक़ी मुज़ाहिफ़ बह्र में बहुत ही कम शायरी की है। इन बाक़ी मुज़ाहिफ़ बह्र को समझाने के लिए हमारे अरूज़ियों ने अरूज़ की किताबों में  कुछ शे’र ज़रूर गढ़े -उन्हीं को बार बार दुहराने क कोई मतलब नहीं है -वो तो आप भी गढ़ सकते है।मुरब्ब: में गढ़ सकते है ,मुसद्दस में गढ़ सकते है< मुझे यक़ीन है कि इस मुक़ाम तक आते आते आप ने इतनी हुनर तो पैदा हो ही गई होगी कि बाह्र और वज़न का पास [ख़याल] रखते हुए कोई शे’र कैसे "गढ़ा’ जा सकता है।

अब अगले क़िस्त में ’बह्र-ए-वाफ़िर’ पर चर्चा करेंगे।
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नोट- असातिज़ा [ गुरुवरों ] से दस्तबस्ता  गुज़ारिश  है कि अगर कहीं कुछ ग़लतबयानी हो गई हो गई हो तो बराये मेहरबानी  निशान्दिही ज़रूर फ़र्माएं  ताकि मैं आइन्दा ख़ुद को दुरुस्त कर सकूँ --सादर ]

-आनन्द.पाठक-
Mb                 8800927181ं
akpathak3107 @ gmail.com

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