- क़िस्त 82 : क़ाफ़िया पैमाइश -बनाम-मा’नी आफ़्रिनीग़ालिब ने कहा था ---शायरी सिर्फ़ क़ाफ़िया पैमाइश ही नहीं --मा’नी आफ़्रीनी का नाम है। बिलकुल सही कहा।आजकल जो शायरी /ग़ज़ल देखते हैं उसमे ज़्यादातर ’क़ाफ़िया पैमाईश " ही है जिसे बहुत से लोग ’तुकबन्दी’ भी कहते है।इसी तुकबन्दी पर शरद तैलंग साहब [कोटा निवासी] का एक शे’र याद आ रहा है---सिर्फ़ तुकबन्दियां काम देगीं नहीशायरी कीजिए शायरी की तरहअगर आप ने मिर्ज़ा ग़ालिब फ़िल्म [ नसरुउद्दीन शाह अभिनीत और गुलज़ार द्वारा निर्देशित] देखी हो तो लालकिले में आयोजितएक मुशायरे का सीन आता है जिसमे ग़ालिब साहब फ़ेटें से एक पुर्ज़ा निकालते है और एक ग़ज़ल पढ़ रहे हैं--और बड़े मगनहोकर पढ़ रहे हैंहर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या हैतुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ़्तुगू क्या हैपास के एक शायर ने वह पुर्ज़ा उलट-पुलट कर देखा उसमे कुछ भी नही लिखा था -न ग़ज़ल -न क़ाफ़िया मगर ग़ालिब साहब शे’र दर शे’र क़ाफ़िया दर क़ाफ़िया लगाते जा रहे थे} यानी उन्होने पहले से कोई क़ाफ़ियापैमाइश नहीं की थी बस शे’र सरज़द [ निकल ] हो रहे थे और क़ाफ़िया शे’र के मानी के हिसाब से अपने आप"नेचुरली’ आते जा रहे थे जिसे ग़ालिब -मा’नी आफ़्रीनी कह्ते थे।मगर सब ग़ालिब तो नहीं हो सकते ।ख़ैर"क़ाफ़िया पैमाइश "--से मुराद यह है कि अगर मतला में कोई क़ाफ़िया बाँध दिया --मसलनख़बर--नज़रतो फिर एक पन्ने पर आगे के 10-12 क़ाफ़िए लिख लेगे --जैसे -असर--सहर--शरर--इधर--उधर[ यानी पहले क़ाफ़िया पैमाइश कर लेंगे] तब शे’र आगे कहेंगे आगे के क़वाफ़ी को मद्दे नज़र रखते हुएकभी कभी ऐसे शे’र मा’नी से दूर भी हो जाते हैं।ग़ालिब का कहना है --आप शे’र कहें और क़ाफ़िया को अपने आप स्वत: Natural flow में आने दें।[ मा’नी आफ़्रीनी होने दीजिए] इसी लिए आप ने देखा होगा कि क़ाफ़िया ’रीपीट’ भी हो जाता है और हो भी सकता है शर्त यह कि शे’र नए मा’नी में हो।मगर यह इतना आसान है क्या?नहीं । इसके लिए आप के पास शब्द का काफ़ी बड़ा भंडार होना चाहिए। अनुभव होना चाहिए।क़ाफ़िया का भंडार होना चाहिए कि क़ाफ़िया तंग न पड़े, जो सबके पास नहीं होता।ज़्यादातर शायर क़ाफ़िया पैमाइश का ही सहारा लेते है और शे’र कहते हैं।आजकल तो क़ाफ़िया बन्दी के नाम पर हिन्दी -उर्दू-अंगेरेजी-देशज सब चलते है।अगर किसी ने मतला में लोटा--मोटा क़ाफ़िया बाँध दिया तो उनके क़ाफ़िया पैमाइश मेंछोटा--नोटा--टोटा--सोटा--लंगोटा-झोंटा-बोटा--बांधने में भी गुरेज़ नहीं---शेर में किसी न किसी प्रकार घुसा ही देंगे।ख़ैर-आनन्द.पाठक-
उर्दू बह्र पर एक बातचीत ---
नोट- इस ब्लाग पर -’उर्दू बह्र पर एक बातचीत --" के तमाम अक़्सात यकजा दस्तयाब हैं
मंगलवार, 22 नवंबर 2022
बुधवार, 18 अगस्त 2021
उर्दू बह्र पर एक बातचीत :क़िस्त 81 : कसरा-ए-इजाफ़त पर अतिरिक्त बातें[ भाग-2 ]
क़िस्त 81 : कसरा-ए-इजाफ़त पर अतिरिक्त बातें[ भाग-2]
पिछली क़िस्त 80 में Y Type ke इज़ाफ़ती अल्फ़ाज़ की चर्चा की थी ।यानी
[Y] लफ़्ज़ A --का आखिरी हर्फ़ पर -आ [ अलिफ़ ]- या -ऊ [ वाव ] का स्वर जुड़ा हो
आज हम [Z] लफ़्ज़ A ---का आखिरी हर्फ़ पर -ई [ या] का स्वर जुड़ा हो जैसे दीवानगी-ए-शौक़. तीरगी-ए-वहम-
अफ़शानी-ए-गुफ़्तार --महरूमी-ए-जावेद---तरयाकी-ए-कदीम-- तिश्नगीए-शौक़---आदि ।
पर इज़ाफ़त की चर्चा करेंगे।
ऐसे केस में -बड़ी ई- वाले हर्फ़ को कसरा लगा कर छोटी इ करेंगे फ़िर -ए- लगा कर इज़ाफ़त बनाएँगे ।
ग़ालिब का एक शे’र है -बह्र है 2122--1122--1122--22 [ यानी बह्र-ए-रमल मुसम्म्न मख़्बून मक़्तूअ’]
-वाए-दीवानगी-ए-शौक़ कि हरदम मुझको
आप जाना उधर और आप ही हैरां होना
यानी तक़्तीअ’ में यहाँ -गी [2] - को -गि [1] - करेंगे और फिर--ए- जोड़ेंगे
अब इस शे’र की तक़्तीअ’ भी कर के देख लेते हैं
2 1 2 2/ 1 1 2 2 / 1 1 2 2 / 2 2
वाए-दीवा/ न गि-ए-शौ/क़ कि हरदम /मुझको
2 1 2 2 / 1 1 2 2 / 1 1 2 2 / 2 2
आप जाना /उध र और आ/प ही हैरां / होना
उधर + और+ आप = उ ध रौ रा +-प [ 1 1 2 2 ] + 1
[यानी अलिफ़ क वस्ल उधर के आखिरी हर्फ़ -र- पर और और के बाद जो आप का अलिफ़ ]
बज़ाहिर इस शे’र में -ए- का वज़न -2-ठहरता है
अब एक शे;र और लेते हैं ग़ालिब का ही’ है--इसकी भी बह्र वही है
न बँधे तिश्नगी-ए-शौक़ के मज़मूँ ग़ालिब
गरचे दिल खोल कर दर्या को भी साहिल बाँधा
इसकी भी तक़्तीअ’ कर के देख लेते हैं
1 1 2 2 / 1 1 2 2 / 1 1 2 2 / 2 2
न बँधे तिश/ न गि -ए-शौ / क़ के मज़मूँ /ग़ालिब [ यहाँ भी -तिश्नगी [ 2 1 2 ]-को पहले तिशनगि - 2 1 1 -करेंगे फिर इज़ाफ़त का -ए-लगाएंगे
2 1 2 2 / 1 1 2 2 / 1 1 2 2 / 2 2
गरच: दिल खो /ल के दर्या /को भी साहिल /बाँधा
बज़ाहिर यहाँ भी -ए- का वज़न -2-लिया गया है
अच्छा अब आप के मन में एक सवाल उठता होगा कि मिसरा उला के पहले मुक़ाम पर तो 2122-- का वज़न आना चाहिए -और हमने 1122 का वज़न दिखा कर तक़्तीअ कर दी।
जी बिलकुल सही --आप का सवाल 100% दुरुस्त है
जी। इस बह्र में [ और बह्र-ए-ख़फ़ीफ़ के मख़्बून मुसद्दस --में भी \ पहले मुक़ाम [जिसे सदर/ इब्तिदा का मुक़ाम कहते हैं ] में First वाले -2- के मुक़ाम पर -1- लाया जा सकता है
अरूज़ में इसकी इजाज़त है । याद करें ग़ालिब का वह मशहूर शे’र ----दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है --[ 2122---1212---22 ] में दिल-ए-नादाँ का वज़न = 1 1 2 2 है । न कि 1 2 2 2
या 2 1 2 2
अब चलते चलते एक आख़िरी शे’र भी देख लेते हैं ग़ालिब का ही है ।
ताज़ा नहीं है नश्शा फ़िक्र-ए-सुखन मुझे
तरयाक़ी-ए-कदीम हूँ दूद-ए-चिराग़ का
[ दूद-ए-चिराग़ = चिराग़ का धुआँ ]
इस शे’र की बह्र है ---221-2121--1221---212 [ बह्र-ए-मुज़ारे मुसम्मन अख़रब मक्फ़ूफ़ महज़ूफ़ ]
अब इसकी भी तक़्तीअ’ कर के देखते हैं } मिसरा सानी की तक़्तीअ’ मैं कर देता हूँ । मिसरा उला की आप कर लें--आप का अत्म विश्वास बढेगा।
221--- /2121--- /1221-- /212
तरयाक़ि / -ए-कदीम / हूँ दूद-ए-चि/ राग़ का
वही बात तरयाक़ी को पहले -तरयाक़ि- किया फिर इज़ाफ़त -ए- लगाया
एक बात और
दूद-ए- --को -दूदे [2 2 ] -- के वज़न पर लिया जो जायज भी है । कसरा इज़ाफ़त -ए- दूद के आख़िरी हर्फ़ को मुतस्सिर [ प्रभावित ] कर दिया और यहाँ बह्र और वज़न की
Demand खींच कर पढ़ने की है सो -द- को खींच कर पढ़ा।
अत: हम कह सकते है कि इज़ाफ़त -ए- का वज़न बह्र और रुक्न की माँग के अनुसार कभी -1- कभी -2- होता रहता है
चूँकि हिंदी गज़लों में अब कम ही इज़ाफ़त का प्रयोग होता है अत: इसके बारे में आप को बहुत परेशान होने की ज़रूरत नहीं है।
वह तो बात निकली सो लिख दिया कि अगर कभी आप को कदीम [ पुराने ]शायरों के कलाम मसलन ग़ालिब--मीर--ज़ौक़--इक़बाल को समझने और तक़्तीअ’ करने में सुविधा हो ।
यह चर्चा यही समाप्त करते हैं।
[ नोट -इस मंच के तमाम असातिज़ा से दस्तबस्ता गुज़ारिश है कि अगर कुछ ग़लतबयानी हो गई हो तो ज़रूर निशानदिही फ़रमाएँ कि आइन्दा मैं खुद को दुरुस्त कर सकूं~।
-आनन्द.पाठक-
Mb 8800927181
Email akpathak3107@gmail.com
दिनांक 17-अगस्त-21
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