Tuesday, February 13, 2024

उर्दू बहर पर एक बातचीत : क़िस्त 1 [ बह्र-ए-मुतक़ारिब ]

[disclaimer clause इस मज़्मून  का कोई भी हिस्सा हमारा नहीं है और न ही मैने कोई नई चीज़  की खोज की है ।ये सारी चीज़े उर्दू के अरूज़ की किताबों में ब आसानी  मिल जाती है । यह बात मैं इसलिए भी लिख रहा हूं कि बाद में मुझ पर सरक़ेह (चोरी) का इल्जाम न लगे

[अपने हिन्दी दां दोस्तों की ख़ातिर  अरूज़  पर मज़्मून [ आलेखों] का एक सिलसिला शुरु कर रहा हूं ,,,..जो ग़ज़ल कहने का शौक़ फ़र्माते हैं  या जौक़-ओ- शौक़ [ काव्य रसिकता] फ़रमाते हैं, शायद वो लोग इस से कुछ मुस्तफ़ीद (लाभान्वित) हो सकें ।
बा अदब....]

न आलिम ,न मुल्ला ,न उस्ताद  ’आनन’
अदब से मुहब्बत ,अदब आशना  हूँ

  ख़ुदा इस कारफ़र्माई की तौफ़ीक़ अता करे । 

दि कोई पाठकगण इन लेखों का या सामग्री का कहीं उपयोग करना चाहें तो नि:संकोच ,बे-झिझक प्रयोग कर सकते हैं अनुमति की आवश्यकता नहीं है  ।
   -आनन्द पाठक-                                                                                                       

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क़िस्त 1 : बह्र-ए-मुतक़ारिब्

बुनियादी रुक्न ; फ़ऊलुन =  فعولن 

 अलामत          :  1 2  2


इस से पहले, उर्दू की सालिम बह्रों का ज़िक्र कर चुका हूं उसी में से एक लोकप्रिय बह्र है " बह्र-ए-मुतक़ारिब " जिसका बुनियादी रुक़्न है ’फ़ ऊ लुन्’ [फ़े’लुन भी कहते हैं] और जिसे हम अलामती वज़्न  122. से दिखाते हैं  । इसे 5-हर्फ़ी रुक्न भी कहते हैं ।यानी-- फ़े--ऐन--वाव--लाम--लुन = 5 हर्फ़]’ ।

अरूज़ में  पहले 7-हर्फ़ी अर्कान जैसे मुफ़ाईलुन [1222]-- फ़ाइलातुन [ 2 12 2] --मुसतफ़इलुन [ 2 2 1 2 ]
मुतफ़ाइलुन [ 1 1 2 1 2 ] ---मफ़ाइ ल तुन [ 12 1 1 2 ] जो क्रमश: सालिम बह्र के बुनियादी अर्कान हैं [---हजज़--- रमल --रज़ज -कामिल--वाफ़िर -अमल में आईं । 
कहते हैं 5 हर्फ़ी अर्कान  फ़े’लुन [1 2 2 ] और फ़ाइलुन [2 1 2 ] बाद  में  हिन्दी गीतों  के माध्यम से  वजूद  में आई । और उसमें भी ,फ़ाइलुन रुक्न [मुतदारिक बह्र]  ,अपेक्षाकृत मुतक़ारिब से  पहले आई । ख़ैर  जो भी हो--

ये तमाम सालिम बह्र सबब (2- हर्फ़ी लफ़्ज़) और वतद (3-हर्फ़ी लफ़्ज़) की  आवॄति से बनती है । हिन्दी में ग़ज़ल कहने के लिए इस बह्र के बारे में अभी इतना ही जानना काफी है ।

इससे पहले की हम बह्र-ए-मुतक़ारिब पर बात करें , अरूज़ की  कुछ बुनियादी  परिभाषाओं पर बात कर लेते है जिससे आगे की बात समझने में आसानी होगी।

मुतहर्रिक हर्फ़ = वह हर्फ़ जिस पर हरकात [ जबर--ज़ेर--पेश- ]लगे हों उसे मुतहर्रिक कहते हैं

साकिन हर्फ़    = वह हर्फ़ जिस पर कोई ’हरकत- न लगा हो ।यानी तलफ़्फ़ुज़ में शान्त हो --कोई हरकत न दी                              जाए ।
उर्दू में हर लफ़्ज़ ;हरकत हर्फ़ से शुरु होता है  यानी मुतहर्रिक से शुरु होता है और साकिन पर ख़त्म होता है । दूसरे शब्दों में उर्दू का कोई हर्फ़ ’साकिन’ से शुरु नहीं होता  । किसी लफ़्ज़ के पहले हर्फ़ पर कोई न कोई ’हरकत’ [ यानी ज़बर ,जेर.पेश  की ] हरकत ज़रूर होगी । अगर कोई हरकत दिखाई न गई हो  तो ’जबर’ की हरकत तो ज़रूर होगी  जो  आम तौर पर   दिखाया  नहीं जाता।  जैसे ’कमल’ --सफ़र--अदब -क़मर --यानी पहले हर्फ़ -क-स- अ--क़- पर ’जबर’ की हरकत है  इसी कारण ऐसे  हर्फ़’मुतहर्रिक’ कहलाते हैं - हरकत शुदा हर्फ़] 
हिंदी में 
क= क् + अ[स्वर] = आप  क् [ हलन्त लगा हुआ -क-को साकिन समझ लें और स्वर युक्त -क- को मुतहर्रिक]
स = स् + अ[स्वर]   = आप  स् [हलन्त लगा हुआ-स- को साकिन समझ लें और स्वर युक्त -्स- को मुतहर्रिक]
क़= क़्  +अ [स्वर ] = आप क़् [हलन्त लगा-क़- हुआ को साकिन समझ लें और स्वर युक्त  -क़- को मुतहर्रिक]
 
उसी प्रकार हरूफ़-ए-तहज्जी [ उर्दू  हर्फ़ का  वर्णमाला  ] में हर हर्फ़ मूलत: साकिन होता है । हरकत [स्वर] तो बाद में देते हैं जब  कोई  लफ़्ज़ बनाते हैं ।

उर्दू लफ़्ज़ को या कलमा को अरूज़ के लिहाज़ से कई प्रकार से वर्गीकृत किया जा सकता है । जैसे--सबब--वतद--फ़ासिला वग़ैरह ।
सबब : -दो हर्फ़ी जुमला या कलमा को सबब कहते हैं ।
उर्दू में सबब  2-क़िस्म की होती  हैं ।

 (1) सबब-ए-ख़फ़ीफ़    वज़्न 2
 यानी वो दो हर्फ़ी जुमला या कलमा या लफ़्ज़  जिसमें पहला हर्फ़ [हरकत ]  जिसे-मुतहर्रिक -कहते हैं  दूसरा हर्फ़ [साकिन] हो जैसे अब्---तब्---कल्--गा--जा---वग़ैरह वग़ैरह। जिसमें पहला हर्फ़ -अ- त-क-ग-ज-  आदि  अरूज़ की भाषा में  मुतहर्रिक है  और दूसरा हर्फ़ -ब- ल-या अलिफ़्- साकिन है
।साकिन को आप संस्कृत का ’हलन्त वर्ण’ समझ लें । 
उसी प्रकार 
फ़ा---तुन्--लुन्---मुस्----तफ़्---  वग़ैरह  ’सबब-ए-ख़फ़ीफ़’ का उदाहरण समझ सकते हैं।फ़ौरी सुविधा के लिए  इसे संख्या की अलामत  -2- से दिखाते हैं।

(2)  सबब-ए-सकील     वज़्न 2: 

 यानी वो दो हर्फ़ी जुमला , कलमा या लफ़्ज़  जिसमें पहला हर्फ़ [मुतहर्रिक ] और दूसरा हर्फ़ भी  मुतहर्रिक हो।
और आप जानते है कि उर्दू का हर लफ़्ज़ मुतहर्रिक से शुरु होता है और साकिन पर गिरता है यानी मुतहर्रिक पर नहीं गिरता ।तो  उर्दू में ऐसा  कोई लफ़्ज़  ही नहीं  है जिसका आखिरी हर्फ "मुतहर्रिक" हो। तो फ़िर? 
जी आप बिल्कुल सही हैं मगर फ़ारसी में ऐसी कुछ  तरक़ीब है [जैसे ’कसरा-ए-इज़ाफ़त या  वाव-ए-अत्फ़ -जिसकी चर्चा बाद में करेंगे]   जिसके प्रयोग से इनके पहले आने वाले हर्फ़ पर  पर ज़रा सा जोर आ जाता है या ज़ोर पड़ जाता है जिस से उस हर्फ़ पर ’हरकत’ [हल्का ही सही ] आ जाती है । यूँ दूसरा साकिन हर्फ़ मुतहर्रिक तो नहीं बन जाता मगर ’मुतहर्रिक -सा " आभास ज़रूर देता है ।
यूँ तो अकेले लफ़्ज़ जैसे

दिल्  = द--मुतहर्रिक् और् ल् साकिन्
ग़म् = ग़ -मुतहर्रिक्  और  म्  साकिन्
दर्द्  = पहला द-मुतह्र्रिक और दूसरा द्-साकिन
जान् = ज- मुतहर्रिक और  न्-साकिन

---आदि के आख़िरी हर्फ़ -ल्-  म्- द्- न्  तो  ’साकिन’ है पर जब हम इसे युग्म शब्द की तरह ’कसरा-ए-इज़ाफ़त या वाव-ए- अत्फ़ लगा कर बोलेंगे तो यही हर्फ़ भारी आवाज़ की तरह [एक ठहराव] एक हरकत के साथ सुनाई देंगे जैसे

ग़म-ए-दिल
दिल-ए-नादान
रन्ज़-ओ-ग़म
रंग-ए-महफ़िल
यानी :इज़ाफ़त’ अत्फ़ के ठीक पहले आने वाला ( यानी सामने वाला हर्फ)  ’मुतहर्रिक ’ की सी feeling  देगा
इस स्थिति में
ग़म [1 1] ---सबब-ए-सक़ील का वज़न देगा
दिल[1 1 ]----तदैव-
रंज़  [2 1 ] ---तदैव-
रंग   [2  1]  -तदैव-


वतद (वतद का जमा अवताद ) के 3 किस्में है
(1) वतद-ए-मज़्मुआ      वज़्न 12
(2) वतद-ए-मफ़्रूक़        वज़्न 21
(3) वतद-ए-मौक़ूफ़       वज़्न 111

इन सब बुनियादी इस्तिहालात (परिभाषाओं) का ज़िक्र मुनासिब मुकाम पर समय समय पर करते रहेंगे.उर्दू स्क्रिप्ट् में यहां दिखाना तो मुश्किल है अभी तो बस इतना  ही समझ लीजै कि ’सबब’ का वज़्न 2 या [1 1] और वतद का वज़्न (12) या (21) या 1 1 1 होता है

फ़ऊ लुन्  = वतद + सबब
=  (फ़े ऎन वाव )+ (लाम नून)
= ( 1 2) +(2)     [नोट करें ;-फ़े का वज़्न 1 और ऎन और वाव एक साथ लिखा और बोला जायेगा तो  वज़्न 2)
            = 122   यह बह्र मुतक़ारिब की मूल रुक़्न है
यह रुक़्न अगर किसी
मिसरा  में  यही रुक्न 2 बार और शे’र में 4 बार आता है तो उसे 
बह्र-ए-मुतक़ारिब ’मुरब्बा’ सालिम कहेंगे (मुरब्बा=4)
-----     3  बार -------    6 बार आता है तो उसे बह्र-ए-मुतक़ारिब ’मुसद्दस’  सालिम कहेंगे(मुसद्दस=6)
---------  4 बार .................8 बार आता है तो उसे बहर-ए-मुतक़ारिब ’मुस्समन’ सालिम कहेंगे(मुसम्मन=8)

--------   8 बार ...............16 बार आता है तो इसे भी , मुस्समन’ ही कहते है बस  उसमें ’मुज़ाइफ़’ लफ़्ज़.मुसम्मन से पहले.जोड़ देते है जिससे यह पता चले कि यह ’मुस्समन’ की दो-गुनी की हुई बहर है यानी मुसम्मन मुज़ाइफ़
खैर
यह बह्र इतनी मधुर और आहंगखेज़ (लालित्य पूर्ण ) है कि  इस बह्र में बहुत से शो’अरा नें बहुत अच्छी और दिलकश ग़ज़ल कहे  हैं।

खुमार बाराबंकी साहब की इसी बह्र में एक गज़ल है  आप भी मुलाहिज़ा फ़र्मायें
मत्ला पेश है

न हारा है इश्क़ और,न दुनिया थकी है
दिया जल रहा है ,हवा चल रही है

्तक़्तीअ  पर बाद में जाइएगा पहले इस शे’र की शे;रियत देखिए .क्या बात कही है ..इश्क़ और दुनिया ...दिया और हवा सब अपना अपना काम कर रहें है बग़ैर अन्जाम की परवाह किए बग़ैर

खैर इसकी तक़्तीअ पर आते है

122    /  122 /122    /122
न हारा/ है इश्क़ और/न दुनिया/थकी है

122    /122/   122  /122
दिया जल/रहा है/हवा चल/ रही है

इसलिए कि अगर मिसरा को बह्र और वज़्न में पढना है तो ’है’ को दबा कर (मात्रा गिरा कर कि 1 का वज़्न आये) पर  पढ़ना  पढ़ेगा यानी मुतहर्रिक के तौर पर [ वैसे भी -है- मुतहर्रिक ही है ।
[-"इश्क़ और '- को 122 के  वज़न पर  पढ़ना पड़ेगा यानी ’इश्क़’ को  ’इश्’ +[क्+ और]  में "और" को "अर’  की वज़न पर पढ़ना पड़ेगा जिससे -क् अलिफ़् के स्ंयोग् से -क- [ मुतहर्रिक् हो जाएगा और् -र्-तो साकिन है ही।
अत: "इश्क़् और् "  का वज़न 1 2 2 का ही आयेगा।

एक बात और
इस शे’र में 122 की आवॄति 8-बार हुई है(यानी एक मिसरा में 4 बार आया है) अत: यह मुस्समन(8) हुआ
चूंकि 122 अपनी मूल स्वरूप (बिना किसी बदलाव के बिना किसी काट-छाँट के पूरा का पूरा ,गोया मुसल्लम)में हर बार रिपीट् हुआ अत्: यह "सालिम’ बहर हुआ
अत: इस बहर का नाम -हुआ "बहर-ए-मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम’
चन्द अश’आर अल्लामा  इक़बाल साहब के लगा रहा हूं बहुत ही मानूस(प्रिय) ग़ज़ल है

सितारों से आगे जहां और भी हैं
अभी इश्क़ के इम्तिहां और भी हैं

कनाअत न कर आलमे-रंगो-बू पर
चमन और भी  आशियां और भी हैं

तू तायर है परवाज़ है काम तेरा
तिरे सामने आसमां और भी है

इन अश’आर की शे’रिअत देखिए और महसूस कीजिए ..यहां काफ़िया की तुकबन्दी नहीं रदीफ़ का मिलान नहीं शे’र का वज़्न (गुरुत्व) और असरपज़ीरी  [प्रभाव] देखिए और फिर देखिए की हम लोगों की गज़ल या शे’र कहां ठहरते हैं (ऐसी ग़ज़ल के मुक़ाबिल \
अब इसके तक़्तीअ पर एक नज़र डालते हैं

122    /122    /122    /122                =  122  -122--122--122
सितारों /से आगे /जहाँ औ /र भी हैं

1   2    2   / 1  2   2   /   1  2    2/  1 2 2  = 122--122--122--122
अभी इश्/ क के इम्/ ति हाँ औ/ र भी हैं
    (इश्क़ को ’इश् क’ की वज़न पर पढ़ें और ’इम्तिहां’ को ’इम’- ’ति’-हाँ- की वज़्न  पर पढ़ें क्योंकि बहर की यहां पर यही माँग है)

क़नाअत /न कर आ/लमे-रन् / ग बू पर [ यहाँ ग [ गाफ़ -अत्फ़् के कारण मुतहर्रिक हो गया ]
चमन औ/र भी आ/शियां  औ/र भी हैं

तू तायर/ है परवा/ज़ है का/म तेरा
तिरे सा/मने आ/समां औ/र भी हैं

यहां भी ’से’ और ’है’ देखने में तो वज़न 2 का लगता है लेकिन इसे 1 की वज़्न पे पढ़्ना होगा(यानी मात्रा गिरा कर पढ़ना होगा) कारण कि बहर की यही मांग है यहां पे।यह भी बह्र-ए-मुत्क़ारिब मुसम्मन सालिम की मिसाल है कारण वही कि इस बह्र में भी सालिम रुक्न( फ़ ऊ लुन 122) शे’र में 8-बार (यानी मिसरा में 4-बार) प्रयोग हुआ है

इसी सिलसिले में और इसी बहर में चन्द अश’आर इस ख़ादिम खाकसार का भी बर्दास्त कर लें
122    /122    /122 /122
खयालों /में जब से/ वो आने/ लगे हैं
122     /122       122  / 122
हमीं ख़ुद /से ख़ुद को /बेगाने/ लगे हैं

122    /122        /122  /122
वो रिश्तों/ को क्या ख़ा/स तर्ज़ी/ह देते
122      /122    /122  /122
जो रिश्तों /को सीढ़ी /बनाने /लगे हैं

122     /122     /122    /122
अभी हम/ने कुछ तो /कहा भी /नहीं है
122   /  122       /122/ 122
इलाही / वो क्यों मुस् / कराने / लगे  हैं   (मुस्कराने =मुस कराने की तर्ज़ पे पढ़े)
ये भी मुतकारिब मुसम्मन सालिम बह्र है


कई पाठकों ने लय (आहंग) पर भी समाधान चाहा है.कुछ लोगों की मानना है कि अगर लय (आहंग) ठीक है तो अमूमन ग़ज़ल बहर में होगी। मैं इस से बहुत इत्तिफ़ाक़ (सहमति) नहीं रखता ,मगर हां,अगर ग़ज़ल बह्र में है तो लय में ज़रूर होगी ।कारण कि रुक्न और बह्र ऐसे ही बनाये गयें हैं कि लय अपने आप आ जाती है ’फ़िल्मी गानों में जो ग़ज़ल प्रयोग किए गये हैं उसमें लय भी है ..सुर भी है..ताल भी है ..तभी तो दिलकश भी है
उदाहरण के लिए फ़िल्म का एक गीत लेता हूँ आप सब ने भी सुना होगा इसकी लय भी सुनी होगी इसका संगीत भी सुना होगा(फ़िल्म "कश्मीर की कली का एक .गाना है]

इशारों इशारों में दिल लेने वाले ,बता ये हुनर तूने सीखा कहां से
निगाहों निगाहों से जादू चलाना ,मेरी जान सीखा है तूने जहाँ से

अब मैं इस की तक़्तीअ कर रहा हूं
122   /122  /  122   /  122  / 122  / 122  /122    /122
इशारों /इशारों/ में दिल ले /ने वाले /,बता ये/ हुनर तू/ने सीखा /कहां से
122   /122    /122   /122  / 122  /  122 /  122  /122
निगाहों /निगाहों /से जादू /चलाना ,/मेरी जा/न सीखा/ है तूने /जहाँ से

जब आप ये गाना सुनते हैं तो आप को लय कहीं भी टूटी नज़र नही आती...क्यो?
क्यों कि यह मतला सालिम बहर में है और सही वज़न में हैं
यहां ’में’ ’नें’ ’से’ मे’ ’है’  देखने में तो वज़न 2 लगता है लेकिन बहर का तक़ाज़ा है कि इसे 1-की वज़न में पढ़ा जाय वरना सुर -बेसुरा हो जायेगा..वज़न से ख़ारिज़ हो जायेगा (इसी को उर्दू में मात्रा गिराना कहते हैं) मेरी को ’मिरी’ पढ़ेंगे इस शे’र में
ऐसा भी नहीं है कि जहाँ आप ने ’में’ ’नें’ ’से’ मे देखी मात्रा गिरा दी ,वो तो जैसे ग़ज़ल की बह्र मांगेंगी वैसे ही पढ़ी जायेगी
 ऊपर के गाने में रुक़्न शे’र में 16-बार यानी मिसरा में 8-बार प्रयोग हुआ है अत: यह 16-रुकनी शे’र है मगर है मुस्समन ही
अत: इस पूरी बहर का नाम हुआ,.....बहर-ए-मुक़ारिब मुइज़ाफ़ी मुसम्मन सालिम
आप भी इसी बहर में शे’र कहें ..शायद कुछ बात बने..(शे’र


अभी हम ’बह्र-ए-मुतक़ारिब’ सालिम पर ही चर्चा करेंगे जब तक कि ये बह्र आप के ज़ेहन नशीन न हो जाय। इस बह्र के मुज़ाहिफ़ (रुक्न पे ज़िहाफ़ ) शक्ल की चर्चा बाद में करेंगे
 यह ज़रूरी नहीं कि आप ’मुसम्मन’सालिम (शे’र मे 8 रुक्न) में ही  ग़ज़ल कहें
आप चाहें तो मुसद्द्स सालिम (शे’र में 6 रुक्न) में भी अपनी बात कह सकते है
मैं मानता हूँ कि मुरब्ब सालिम (शे’र में 4 रुक़्न) में अपनी बात कहना मुश्किल काम है मगर असम्भव नहीं है अभी तक इस शक्ल के शे’र मेरी नज़र से गुज़रे नहीं है.अगर कभी नज़र आया तो इस मंच पर साझा करुंगा
मगर बह्र-ए-मुतक़ारिब की मुसम्मन शक्ल इतनी मानूस (प्रिय) है कि अज़ीम शो’अरा (शायरों) ने इसी शक्ल में बहुत सी ग़ज़ल कही है। मैं इसी बहर की यहां 1-ग़ज़ल लगा रहा हूँ। यहां लगाने का मक़सद सिर्फ़ इतना है कि लगे हाथ हम-आप शे’र की मयार (स्तर) और उसके शे’रियत के bench mark से भी वाकिफ़ होते चलें और यह देखें कि हमें इस स्निफ़ (विधा) में और मयार में कहाँ तह जाना है ।तक़्तीअ आप स्वयं कर लीजिएगा .एक exercise भी हो जायेगी

अल्लामा  इक़बाल साहब की एक दूसरी  ग़ज़ल लगा रहा हूं ।आप ग़ज़ल पढ़े नहीं सिर्फ़ गुन गुनायें और दिल में महसूस करें

इसकी बुनावाट देखिए ,मिसरों का राब्ता(आपस में संबन्ध) देखिए अश’आर की असर पज़ीरी(प्रभाव) देखिए और इसका लय (आहंग) देखिए और फिर लुत्फ़ अन्दोज़ होइए

122/122//122/122
तिरे इश्क़ का इंतिहा चाहता हूँ
मिरी सादगी देख ,क्या चाहता हूँ

सितम हो कि हो वादा-ए-बेहिजाबी
कोई बात सब्र आज़मा चाहता हूँ

ये जन्नत मुबारक रहे ज़ाहिदों को
कि मैं आप का सामना चाहता हूँ

ज़रा-सा तो दिल हूँ मगर शोख़ इतना
वही लनतरानी सुना चाहता हूँ

कोई दम का मेहमां हूं ऎ अहले-महफ़िल
चिराग़े-सहर हूँ  बुझा चाहता हूँ

भरी बज़्म में राज़ की बात कह दी
बड़ा बेअदब हूँ  सज़ा चाहता हूँ

नोट : इश्क़ को  ’इश् क (2/1) की वज़न में पढ़े
     ’इन्तिहा’ को इन् तिहा (2/12) की वज़्न् पे पढ़ें

वादा-ए-बेहिजाबी  =पर्दा हटाने का वादा
लनतरानी       =शेखी बघारना
चिराग़-ए-सहर    =भोर का दीपक
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आप कोशिश करेंगे तो आप भी इस बह्र में शायरी कर सकते हैं।

[नोट- असातिज़ा [ गुरुवरों ] से दस्तबस्ता  गुज़ारिश  है कि अगर कहीं कुछ ग़लतबयानी हो गई हो तो बराये मेहरबानी  निशान्दिही ज़रूर फ़र्माएं  ताकि मैं आइन्दा ख़ुद को दुरुस्त कर सकूँ --सादर ]

-आनन्द.पाठक-
Mb    8800927181ं
akpathak3107 @ gmail.com

[Reveiwed  by Sri Ram Awadh Vishwakarma ji 
 on 26-09-21]






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3 comments:

  1. तिरे इश्क़ का इंतिहा चाहता हूँ
    मिरी सादगी देख* मैं क्या चाहता हूँ
    kya is me dekh* ka kh khamosh hai ya maiN type error hai

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    1. जी, तक़ती'अ देखिए🙏🙏
      मिरी सादगी देख क्या चाहता हूँ
      122 122 122 122
      मिरी सा/दगी दे/ख क्या चा/हता हूँ

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  2. ilahi vo kyo muskrane lage hai ...... vah vah

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