Tuesday, February 13, 2024

उर्दू बह्र पर एक बातचीत :: क़िस्त 85 : कुछ बातें माहिया के बारे में

: माहिया के बारे में

[ नोट - माहिया की बह्र के बारे में मैने क़िस्त 61 में तफ़सील् से चर्चा की है आप वहाँ देख सकते हैं]

यहाँ माहिया क्या है के बारे में कुछ चर्चा कर रहा हूँ\


माहिया की जड़ें पंजाबी लोकगीतों में पाई जाती हैं। 

आप ने जगजीत सिंह और चित्रा सिंह द्वारा गाए हुए कई माहिए ’यू-ट्यूब’ पर अवश्य सुने होंगे। जैसे- 

कोठे ते आ माहिया

मिलड़ा त मिल आ के

नै तू ख़स्मा न खा माहिया


की लैड़ा है मितरां तूं

मिलड़ ते आ जावां

डर लगता है छितना तूं

ये माहिए हैं।

माहिया वस्तुत: पंजाबी लोकगीत की एक विधा है वैसे ही जैसे हमारे पूर्वांचल में कजरी , चैता, फ़ाग ,सोहर आदि लोकगीत की परम्परा है ।माहिया को कहीं कहीं कुछ लोग ’टप्पा’ भी कहते या समझते हैं।

उर्दू शायरी में तो वैसे तो कई विधायें प्रचलित हैं जिसमें ग़ज़ल, रुबाई, नज़्म, मसनवी, मर्सिया आदि काफ़ी मशहूर है, इस हिसाब से ’माहिया लेखन’ बिलकुल एक नई विधा है। यह सच है कि माहिया को उर्दू शे’र-ओ-सुख़न में अभी उतनी लोकप्रियता हासिल नहीं हुई है जितनी ’ग़ज़ल’ को हुई है। आशा है गुज़रते वक़्त के साथ साथ ’माहिया’ विधा भी लोकप्रिय होती जायेगी।

जैसा कि बता चुके हैं कि माहिया उर्दू शायरी की अपेक्षाकृत एक नई विधा है। माहिया के बह्र और वज़न [मात्रा विन्यास] पर आगे विस्तार से चर्चा करेंगे। माहिया के उदभव और विकास तो ख़ैर एक शोध का विषय है। यह विषय यहाँ नहीं है।

चूँकि “माहिया”-पंजाबी लोकगीत परम्परा से उर्दू शायरी परम्परा में आई है। अत: प्रारम्भ में उर्दू शायरी में इसके एक सर्वमान्य बह्र और वज़न निर्धारण में काफी मतभेद रहा। प्रारम्भिक दौर में माहिया बह्र संरचना की 2-विचारधारा थी। पहली विचारधारा तो वह, जो यह मानती थी कि माहिया के तीनो मिसरे एक ही बहर और एक ही वज़न में होते हैं और दूसरी विचारधारा वह थी जो यह मानती थी कि पहले और तीसरे मिसरे का वज़न एक-सा होता है और दूसरे मिसरे का बह्र या वज़न अलग होता है।


इस मसले को सुलझाने के लिए जनाब हैदर कुरेशी साहब ने एक तहरीक़ [आन्दोलन] भी चलाया और वह दूसरी विचारधारा के समर्थक रहे। आप ने माहिया पर काफी शोध और अध्ययन किया, काफी माहिया भी कहे । उर्दू में माहिया के वज़न निर्धारण में उनका काफी योगदान रहा है ।आप ने अपने कहे माहिए के संग्रह भी निकाले है। [संक्षिप्त परिचय आगे दिया गया है] 


  अन्तत:, यह तय किया गया कि माहिया 3-मिसरों की एक काव्य-विधा है जिसमे पहला और तीसरा मिसरा ’तुकान्त’ [ हमक़ाफ़िया] होत्ता है और दूसरा मिसरा ’तुकान्त’ हो भी सकता है और नहीं भी। पहले मिसरे और तीसरे मिसरे का वज़न एक होता है और बाहम [परस्पर ] हमक़ाफ़िया होते है। दूसरे मिसरे का वज़न अलग होता है। माहिया के औज़ान [मात्रा-विन्यास] के बारे में आगे विस्तार से चर्चा करेंगे ।

कुछ लोगों का मानना है, उर्दू में सबसे पहले माहिया हिम्मत राय शर्मा जी ने 1939 में बनी एक फ़िल्म “ख़ामोशी” के लिए लिखे थे। उनके कहे हुए चन्द माहिए बानगी के तौर पर यहाँ लगा रहा हूँ।

 

क बार तो मिल साजन

आकर देख ज़रा

टूटा हुआ दिल साजन


सहमी हुई आहों ने

सब कुछ कह डाला

ख़ामोश निगाहों ने


यह तर्ज़-बयाँ समझो

कैफ़ में डूबी हुई

आँखों की ज़ुबाँ समझो


तारे गिनवाते हो

बन कर चाँद कभी

जब सामने आते हो 

 

वहीं कुछ लोगों का मानना है कि उर्दू में सबसे पहले  माहिया जनाब मौलाना चिराग़ हसरत ’हसरत’ साहब मरहूम ने सन 1937 में लिखा था ।

  बागों में पड़े झूले

तुम भूल गए हमको

हम तुम को नहीं भूले ।


यह रक़्स सितारों का

सुन लो कभी अफ़साना

तकदीर के मारों का । 


सावन का महीना है

साजन से जुदा रह कर

जीना भी क्या जीना है ।


इन माहियों को कई गायकॊ ने अपने स्वर और अपने अन्दाज़ में गाया है जिन्हें यू-ट्यूब पर देखा और सुना जा सकता है ।

उर्दू में सबसे पहले माहिया किसने लिखा यह शोध और बहस का विषय हो सकता है। हमारा उद्देश्य यहाँ मात्र इतना है कि उर्दू में शुरुआती तौर पर माहिया कैसे लिखे गए। बाद में दीगर शायरों ने छिटपुट रूप से शौक़िया तौर पर माहिए लिखे, पर माहिया-लेखन का कोई गंभीर प्रयास नहीं हुआ।

 तत्पश्चात ।

हिन्दी फ़िल्म में सबसे पहले माहिया ’क़मर जलालाबादी ’साहब ने हिन्दी फ़िल्म फ़ागुन [1958] के लिए लिखा था और जिसे भारत भूषण और मधुबाला जी पर फ़िल्माया गया था। संगीतकार ओ0पी0 नैय्यर साहब के निर्देशन में मुहम्मद रफ़ी और आशा भोंसले जी ने गाया था। आप ने भी सुना होगा।


" तुम रूठ के मत जाना     

मुझ से क्या शिकवा  

दीवाना है दीवाना  


यूँ हो गया बेगाना   

तेरा मेरा क्या रिश्ता  

ये तू ने नहीं जाना  


ये माहिए हैं ।

  बचपन में मैने भी सुना था। बड़ी अच्छी धुन और दिलकश आवाज लगती थी। मगर मुझे मालूम नहीं था कि ये -माहिए- हैं। अब पता चला कि माहिया में भी अपनी बात कही जा सकती है, दर्द भरा जा सकता है, अभिव्यक्त किया जा सकता है ।

इसके बाद हिंदी फ़िल्मों में बहुत दिनों तक माहिए नहीं लिखे गए। कुछ लोग छिटपुट तौर पर माहिए लिखते और कहते रहे ।बाद में साहिर लुध्यानवी साहब ने हिन्दी फ़िल्म ’नया-दौर’[ 1957 ] के लिए चन्द माहिए लिखे जिसे बी0आर0 चोपड़ा साहब के निर्देशन में  दिलीप कुमार और अजीत के ऊपर ऊपर फ़िल्माया गया। ओ0पी0 नैय्यर साहब के संगीत निर्देशन में- मुहम्मद रफ़ी साहब ने बडे दिलकश अन्दाज़ में गाया है। 


 दिल ले के  दगा देंगे     

 यार है मतलब के  

 देंगे तो ये क्या देंगे  


दुनिया को दिखा देंगे         

यारो के पसीने पर  

हम खून बहा देंगे 


यह भी माहिए हैं ।

 माहिया का शाब्दिक अर्थ प्रेमिका से बातचीत करना होता है, बिलकुल वैसे ही जैसे ग़ज़ल या शे’र में होता है। दोनो की रवायती ज़मीन, मानवीय भावनाएँ, संवेदनाएँ और विषय एक जैसी ही हैं -विरह ,मिलन ,जुदाई,वस्ल-ए-यार ,शिकवा, गिला, शिकायत, रूठना, मनाना आदि। परन्तु समय के साथ साथ माहिया की भी ज़मीन बदलती गई ।जीवन के और विषय पर राजनीति ,जीवन दर्शन,सामाजिक विषय मज़ाहिया विषय  पर भी माहिया कहे जाने लगे।

  चन्द माहिए विभिन्न रंगों के,भिन्न भिन्न ’थीम’[ विषय ] पर मुख्तलिफ़ माहियानिगारों के लिखे हुए माहिए लिख रहा हूँ। आप भी आनन्द उठाएँ ।


हर हाल में बैठेंगे

गाँव में जाएँगे

चौपाल में बैठेंगे

-नज़ीर फ़तेहपुरी


गोरी का उडा आँचल

कितना सम्भाला था

दिल फिर भी हुआ पागल

प्रभा माथुर


झूठे अफ़साने में

कैसे मिलते हम

बेदर्द ज़माने में

आरिफ़ फ़रहाद


सावन की फ़ज़ाओं में 

ख़ुशबू का अफ़साना

जुल्फ़ों की घटाओं में

-मनाज़िर आशिक़ ’हरगानवी’


है रंग बहुत गहरा

सुर्ख़ अनारों की

तकती है तेरा चेहरा

अनवर मिनाई


सच था कि कहानी थी

याद नहीं हम कॊ

क्या चीज़ जवानी थी

क़मर साहरी

जनाब हैदर क़ुरेशी साहब ने माहिया के लिए बड़ी शिद्दत से एक तहरीक चलाई थी। आप ने बहुत से माहिए कहे हैं। उनके माहिए उनके इन 2-किताबों में संकलित हैं

1 मुहब्बत के फूल

2 दर्द समन्दर

उन्हीं में से चयनित, चन्द माहिए आप के लिए बानगी के तौर पर लगा रहा हूँ। आप भी लुत्फ़ उठाएँ।


तू ख़ुद में अकेला है

तेरे दम से मगर

संसार का मेला है 


दुनिया पे करम कर दे

प्यार की सीनों में

फिर रोशनियाँ भर दे


याद आ ही गए आख़िर

कुछ भी सही, लेकिन

भाई हैं मेरे आख़िर


रंग मेहदी का गहरा है

हुस्न ख़ज़ाना है

और जुल्फ़ का पहरा है


चाहत की गवाही थे

हम भी कभी यारों

इक ’हीर’ के माही थे


डा0 आरिफ़ हसन ख़ान साहब की चर्चा हम पहले कर चुके हैं। उनके माहिया संकलन

“ख़्वाबों की किर्चीं’ से चन्द माहिए आप के लिए बानगी के तौर पर लगा रहा हूँ। आप भी आनन्द 

उठाएँ। 


मिट्टी के खिलौने थे

पल में टूट गए

क्या ख़्वाब सलोने थे   


मुफ़लिस की मुहब्बत क्या

रेत का घर जैसे 

इस हर की हक़ीक़त क्या 


नोट-  स्थान की कमी देखते हुए बहुत से माहिए यहा नहीं लिखे जा रहे हैं। उद्देश्य मात्र यह बताना  है कि माहिया 1937 से चल कर आजतक कितनी यात्रा तय कर चुका है और किन किन रंगों में यात्रा कर रहा है ।

माहिया की सब से बड़ी पूँजी उसकी ’लय’ है, उसकी "धुन" है ।बहर और वज़न तो सब माहियों के लगभग एक-सा ही होता है। मगर हर गायक अपनी धुन और लय में अलग अलग अन्दाज़ में गाता है। इसका सबसे अच्छा उदाहरण -बाग़ों में पड़े झूले- वाला माहिया का है जो ’यू-ट्यूब ’ पर कई गायकों ने अपने मुख़्तलिफ़ अन्दाज़ में गाया है।

 उर्दू साहित्य में माहिया की  यात्रा 1936-37 से शुरु होती है। मगर साहित्य के कालक्रम के अनुसार ’माहिया’ अभी शैशवास्था में ही है। बहुत लम्बा सफ़र तय करना है अभी इसे। यद्यपि बहुत से लोग माहिया लिखने/ कहने की तरफ़ आकर्षित हुए हैं। कभी कभी किसी पत्रिका में कोई "माहिया-विशेषांक’ भी निकल जाता है। यदा कदा माहिया पर 1-2 मुशायरा भी हो जाता है, मगर अभी ग़ज़ल जैसी मक़्बूलियत हासिल नहीं हुई है। "फ़ेसबुक" या "व्हाट्स अप " जैसे सोशल मीडिया पर भी ऐसे बहुत कम मंच नज़र आते हैं जो मात्र ’माहिया’ के लिए ही समर्पित हों ।ज़्यादातर मंच ग़ज़ल को ही केन्द्र में रख कर बनाए गए हैं।

 माहिया का अभी  नियमित लेखन नहीं हो रहा है या समुचित प्रचार प्रसार की व्यवस्था नहीं हुई है। मगर जिस हिसाब से और जिस मुहब्बत से लोग माहिया लेखन के प्रति आकर्षित हो रहे है और लोगों की इस में रुचि बढ़ रही है, हमें उमीद है कि माहिया एक दिन अपना मुक़ाम ज़रूर हासिल करेगा।

हमें तो माहिया का भविष्य उज्ज्वल दिख रहा है ।

 

-आनद.पाठक-


उर्दू बह्र पर एक बातचीत :क़िस्त 61 [ बह्र-ए-माहिया ]

उर्दू बह्र पर एक बातचीत :क़िस्त 61 [बह्र-ए-माहिया]   

[ नोट माहिया क्या है इसका उद्भव और विकास क्या है ,इसके लिए इसी ब्लाग में क़िस्त 85 भी देख सकते है जहाँ मैने विस्तार से चर्चा किया है --आनन्द.पाठक]

  
उर्दू शायरी में माहिया के औज़ान ...

उर्दू शायरी में यूँ तो कई विधायें प्रचलित हैं जिसमें ग़ज़ल ,रुबाई, नज़्म क़सीदा आदि काफ़ी मशहूर है ,इस हिसाब से ’माहिया लेखन’  बिलकुल नई विधा है  जो ’पंजाबी से  उर्दू में आई है लेकिन उर्दू  शे’र-ओ-सुख़न में  अभी उतनी मक़्बूलियत हासिल नहीं हुई है

माहिया वस्तुत: पंजाबी लोकगीत की एक विधा है ,वैसे ही जैसे हमारे पूर्वांचल  में कजरी ,चैता,फ़ाग,सोहर आदि । माहिया का शाब्दिक अर्थ होता है  प्रेमिका से बातचीत करना ,अपनी बात कहना बिलकुल वैसे ही जैसी ग़ज़ल या शे’र में कहते हैं ।दोनो की रवायती ज़मीन मानवीय भावनाएँ और विषय एक जैसे ही  है -विरह ,मिलन ,जुदाई,वस्ल-ए-यार ,शिकवा,गिला,शिकायत,रूठना,मनाना आदि। परन्तु समय के साथ साथ माहिया जीवन के और विषय पर राजनीति ,जीवन दर्शन ,सामाजिक विषय पर भी कहे जाने लगे।

माहिया पर जनाब हैदर क़ुरेशी साहब ने काफी शोध और अध्ययन किया है और काफी माहिया कहे हैं । उर्दू में माहिया के सन्दर्भ में उनका काफी योगदान है ।आप ने  माहिया के ख़ुद  के अपने संग्रह भी निकाले है आप पाकिस्तान के शायर हैं जो बाद में जर्मनी के प्रवासी हो गए।आप ने "उर्दू में माहिया निगारी" नामक किताब में माहिया के बारे में काफी विस्तार से लिखा है ।

हिन्दी फ़िल्म में सबसे पहले माहिया क़मर जलालाबादी ने लिखा [हिन्दी फ़िल्म फ़ागुन [1958]  [भारत भूषण और मधुबाला] संगीत ओ पी नैय्यर का वो गीत ज़रूर सुना होगा जिसे मुहम्मद रफ़ी और आशा भोंसले जी ने गाया है]

" तुम रूठ के मत जाना    
मुझ से क्या शिकवा
दीवाना है दीवाना


यूँ हो गया बेगाना 
तेरा मेरा क्या रिश्ता
ये तू ने नहीं जाना

यह माहिया है ।
बाद में हिन्दी फ़िल्म ’नया-दौर’ [ दिलीप कुमार ,वैजयन्ती माला अभिनीत] में साहिर लुध्यानवी ने कुछ माहिया लिखे थे

दिल ले के  दगा देंगे     
यार है मतलब के 
 देंगे तो ये क्या देंगे 

दुनिया को दिखा देंगे         
यारो के पसीने पर  
हम खून बहा देंगे

यह माहिया है

--------
माहिया 3-लाइन की [जैसे ;जापानी विधा ’हाइकू’ या हिन्दी का त्रि-पटिक’ छन्द। ] एक शे’री विधा है  जो बह्र-ए-मुतदारिक [212- फ़ाइलुन] से पैदा हुआ है  जिसमे पहला और तीसरा मिसरा  आपस में  ’हमक़ाफ़िया ’ होती है दूसरा मिसरा   ;हमक़ाफ़िया’ हो ज़रूरी नहीं ।अगर है तो मनाही भी नही
पहली और तीसरी पंक्ति का एक ’ख़ास’ वज़न होता है और दूसरी पंक्ति में [ पहले और तीसरे मिसरा से ] एक सबब-ए-ख़फ़ीफ़ कम होता है । पुराने वक़्त में तीनो मिसरा एक ही वज़न का लिखा जाता रहा । मगर अब यह तय किया गया कि दूसरे मिसरा में -पहले और तीसरे मिसरे कि बनिस्बत एक सबब-ए-ख़फ़ीफ़ [2] कम होगा।
माहिया के औज़ान विस्तार से अब देखते है । यदि आप ’तस्कीन-ए-औसत’ का अमल समझ लिया है तो माहिया के औज़ान समझने में कोई परेशानी नहीं ।आप जानते हैं कि ’फ़ाइलुन[212] का मख़्बून मुज़ाहिफ़ ’फ़इ’लुन [ 112] होता है जिसमे [ फ़े--ऐन--लाम   3- मुतहर्रिक एक साथ आ गए] ख़ब्न एक ज़िहाफ़ होता है } अगर कोई रुक्न सबब-ए-ख़फ़ीफ़ से शुरु होता है [जैसे फ़ाइलुन में ’फ़ा--इलुन]  तो सबब--ए-ख़फ़ीफ़ का साकिन [जैसी फ़ा का-अलिफ़-] को गिराने के अमल को ’ख़ब्न ’ कहते है और मुज़ाहिफ़ को मख़्बून कहते ।अगर ’फ़ाइलुन 212] में पहला अलिफ़ गिरा दें तो बचेगा फ़ इलुन [112] -यही मख़्बून है फ़ाइलुन का।
[1] पहले और तीसरे मिसरे की मूल बह्र [मुतक़ारिब म्ख़्बून]
       --a---------b----------c-------/ c'
 फ़ इलुन-        -फ़ इलुन-    -फ़ इलुन  /फ़ इलान
 1 1  2--------1  1   2-----1 1 2    / 1 1 2 1 
अब इस वज़न पर  तस्कीन-ए-औसत का अमल हो सकता है  और इस से 16-औज़ान बरामद हो सकते है । देखिए कैसे । आप की सुविधा और clarity के लिए यहाँ 112--22--जैसे अलामत से दिखा रहा हूँ बाद में आप चाहें तो उस रुक्न का नाम भी उसके ऊपर लिख सकते हैं

   फ़ इलुन-        -फ़ इलुन-    -फ़ इलुन
    --a----------b------------c
[ A ] 1 1  2---1  1   2--  ---1 1 2         मूल बह्र   -no operation

[ B ]  22-------112--------112 operation on  -a- only

[C ]    112----  -22------   --112 operation  on -b- only

[D  ]   112----112-------22 operation on -c- only

[E ]     22-------22----------112 operation on -a & -b-

[F  ]     112---    22-------22 operation on -b-&-c-

[G ]    22--     -112--------22       operation on  -c-& -a-

[H ]   22--- ---22----------22 operation on -a-&-b-&-c

इस प्रकार माहिया के पहले मिसरे और तीसरे मिसरे के लिए 8-औज़ान बरामद हो गए।यहाँ पर कुछ ध्यान देने की बातें--
[1] यह सभी आठो वज़न आपस में बदले जा सकते है [बाहमी मुतबादिल हैं] कारण कि सभी वज़न का  मात्रा योग -12- ही है
[2] मूल बह्र का हर रुक्न ’फ़ अ’लुन [112 ] है जिसमें 3- मुतहर्रिक हर्फ़ [-फ़े-ऐन-लाम-] एक साथ आ गए हैं अत: हर Individual रुक्न [ या  एक साथ दो या दो से अधिक रुक्न पर भी एक साथ ]पर ’तस्कीन-ए-औसत ’ का अमल हो सकता है और एक नई रुक्न [ फ़ेलुन =22 ] बरामद हो सकती है  जिसे हम यहाँ ’मख़्बून मुसक्किन" कहेंगे  क्योंकि यह  ’तस्कीन’ के अमल से बरामद हुआ है
[3] अब आप चाहें तो ऊपर की अलामत 22 की जगह ’मख़्बून मुसक्किन और 112 की जगह "फ़अ’लुन" लिख सकते है

एक बात और
आप जानते हों कि अगर किसी मिसरा के आखिर में -1- साकिन बढ़ा दिया जाए तो मिसरे के आहंग में कोई फ़र्क नहीं पड़ता है । अत: ऊपर के औज़ान में मिसरा के आख़िर में -1- साकिन बढ़ा दे तो 8-औज़ान और बरामद हो सकते हैं
जिसे हम 1121 को ’मख़्बून मज़ाल ’ कहेंगे
और           221 को ;मख़्बून मुसक्किन मज़ाल ’ कहेंगे
आप चाहें तो अलग से विस्तार से लिख कर देख सकते है
अत: पहले और तीसरे मिसरे के कुल मिला कर [8+8 ]=16  औज़ान बरामद हो सकते है
-------
दूसरे मिसरे की मूल  बह्र [यह वज़न बह्र-ए-मुतक़ारिब से निकली हुई है 
--a----------b--------c-----/ c'
फ़अ’ लु---फ़ऊलु---फ़ अ’ल /फ़ऊलु  =21--------121-----1 2      / 121 [ इसका नाम मुतक़ारिब असरम मक़्बूज़ महज़ूफ़ /मक़सूर है] कुछ आप को ध्यान आ रहा है ? जी हाँ . बहर-ए-मीर की चर्चा करते समय इस प्रकार के वज़न का प्रयोग किया था।
ख़ैर
ध्यान से देखे --a--& --b  और    --b--& ---c  यानी दो-दो रुक्न मिला कर 3- मुतहर्रिक [-लाम--फ़े---ऐन] एक साथ आ रहे हैं अत: इन पर ’तख़्नीक़’ का अमल हो सकता है और इस से 8-मुतबादिल औज़ान बरामद हो सकते हैं । देखिए कैसे?
--a----------b--------c-----
फ़अ’ लु---फ़ऊलु---फ़ अ’ल----मूल बह्र
21--------121-------12--
वही बात -आप की सुविधा और clarity के लिए यहाँ 112--22--जैसे अलामत से दिखा रहा हूँ बाद में आप चाहें तो उस रुक्न का नाम भी उसके ऊपर लिख सकते हैं

[I ]  21-----121-----12   मूल बह्र  -no operation

[J ]  22-----21----12        operation on  -a & b-

[K ] 21----122----2           operation on    -b & c-

[L ] 22-----22----2           operation  on  a--b---c

इस प्रकार दूसरे मिसरे के 4-वज़न बरामद हुए
जैसा कि आप जानते हैं अगर किसी मिसरा के आखिर में -1- साकिन बढ़ा दिया जाए तो मिसरे के आहंग में कोई फ़र्क नहीं पड़ता है । अत: ऊपर के औज़ान में मिसरा के आख़िर में -1- साकिन बढ़ा दे तो 4-औज़ान और बरामद हो सकते हैं।
आप उसे  i'--j'---k'--l' लिख सकते है -जिससे रुक्न पहचानने में सुविधा होगी
इस प्रकार दूसरे मिसरे के भी 4+4=8 औज़ान बरामद हो गए

जिसमे  हम 121  को फ़ऊल [[मक़्सूर] कहेंगे
और           21 को ;फ़ाअ’[-ऐन साकिन] को " मक्सूर मुख़्न्निक़" ’ कहेंगे
आप चाहें तो अलग से विस्तार से लिख कर देख सकते है। मेरी व्यक्तिगत राय यही है कि 22 या 122 के बजाय रुक्न का नाम ही लिखना ही श्रेयस्कर होगा कारण कि आप को यह पता चलता रहे कि मिसरा के किस मुक़ाम पर साकिन होना चाहिए और किस मुक़ाम मुतहर्रिक ।

आप घबराइए नहीं --ये 24-औज़ान आप को रटने की ज़रूरत नहीं -बस समझने के ज़रूरत है --जो बहुत आसान है
[1] ज़्यादातर माहिया निगार पहले और तीसरे मिसरे के लिए  G & H का ही प्रयोग करते है , और मिसरा के अन्त में Additional  साकिन वाला केस तो बहुत जी कम देखने को मिलता है । बाक़ी औज़ान का प्रयोग कभी कभी ही करते है --जब कोई मिसरा ऐसा फ़ँस जाये तब
[2]  दूसरे मिसरे के लिए K & L का ही प्रयोग करते हैं
[3]  प्राय: हर मिसरा के आख़िर मे -एक सबब-ए-ख़फ़ीफ़- [2]  या  इलुन [12]  आता है यानी मिसरा दीर्घ [2] पर ही गिरता है

माहिया के औज़ान के बारे में कुछ दिलचस्प बातें

[1] अमूमन उर्दू शायरी में --कोई शे’र या ग़ज़ल एक ही बहर या वज़न में कहे जाते है ,मगर यह स्निफ़ [विधा] दो बह्र इस्तेमाल करती है --यानी पहली पंक्ति में --मुतदारिक मख़्बून की ,और दूसरी पंक्ति -मुतक़ारिब की मुज़ाहिफ़
[2]  यह स्निफ़ ’सालिम’ रुक्न इस्तेमाल नहीं करती --बस सालिम रुक्न की मुज़ाहिफ़ शकल ही इस्तेमाल करती है
[3]  चूँकि यह स्निफ़[विधा] मुज़ाहिफ़ शजक ही इस्तेमाल करती है अत: 3-मुतहर्रिक एक साथ आने के मुमकिनात है--चाहे एकल रुक्न में या दो पास पास वाले मुज़ाहिफ़ रुक्न मिला कर }फिर तस्कीन या तख़्नीक़ का अमल हो सकता है इन रुक्न पर।
[4] हालाँ कि दूसरी लाइन में एक सबब-ए-ख़फ़ीफ़ कम होता है बनिस्बत पहली या तीसरी लाइन से ---शायद यह कमी ऎब न हो कर -यही माहिया को  आहंग ख़ेज़ बनाती है--जैसे गाल में पड़े गढ्ढे नायिका के सौन्दर्य श्री में वॄद्धि देते है।

अब कुछ माहिया और उसकी तक़्तीअ देख लेते है
[1] "  तुम रूठ के मत जाना    
मुझ से क्या शिकवा
दीवाना है दीवाना
--क़मर जलालाबादी 
तक़्तीअ देखते हैं -
2    2   /  1 1 2     / 2 2
तुम रू/ ठ के मत / जाना      फ़े’लुन---फ़अ’लुन---फ़े’लुन  =  G
2       2 / 2   2     / 2
मुझ से /क्या शिक/वा            फ़े’लुन----फ़े’लुन   ---फ़े =L
2    2 /  1 1 2  / 2 2
दीवा/ ना है  दी /वाना फ़े’लुन---फ़अ’लुन---फ़े’लुन =G

[2]    दिल ले के  दगा देंगे     
यार है मतलब के 
 देंगे तो ये क्या देंगे 
                --साहिर लुध्यानवी

तक़्तीअ’ भी देख लेते हैं
   2   2  / 1   1 2   /  2 2   22---112---22 = G
 दिल ले /के  द गा  /दें गे     
2  1   / 1 2   2   / 2 21---122---2 =K
यार  /है मत लब /के 
2  2  / 1 1 2      / 2 2 22---112---22 = G
 देंगे/   तो ये क्या /देंगे 

[3]   अब इस हक़ीर का भी एक माहिया बर्दास्त कर लें

जब छोड़ के जाना था
क्यों आए थे तुम?
क्या दिल बहलाना था?

अब इसकी तक़्तीअ’ भी देख लें
2   2      / 1 1  2  / 2 2  =22---112---22 = G
जब छो /ड़ के जा /ना था
2     2    / 2  2 /2 = 22---22---2 =L
क्यों आ /ए थे/ तुम?
2     2     /  2  2   / 2 2 = 22---22---22 =H
क्या दिल/ बह ला /ना था?

एक बात चलते चलते

चूँकि उर्दू में माहिया निगारी एक नई विधा है --इस पर शायरों ने बहुत कम ही कहा है--लगभग ना के बराबर। कभी कहीं कोई शायर तबअ’ आज़माई के लिहाज़ से छिट्पुट तरीक़े से यदा-कदा लिख देते हैं
उर्दू रिसालों में भी इसकी कोई ख़ास तवज़्ज़ो न मिली ---मज़्मुआ --ए-माहिया तो बहुत कम ही मिलते है। डा0 आरिफ़ हसन ख़ान साहब ने माहिया पर एक मज़्मुआ " ख़्वाबों की किरचें "-मंज़र-ए-आम पे आया है।
उमीद करते है कि हमारे नौजवान शायर इस जानिब माइल होंगे और मुस्तक़बिल में माहिया पर काम करेंगे और कहेंगे । इन्ही उम्मीद के साथ---

चलते चलते एक बात और--
जो सज्जन इस तवील [ लम्बे] रास्ते से नही जाना चाहते उनके लिए एक आसान रास्ता भी है माहिया के बह्र के बारे में } और वह यह है --

पहली लाइन = 112---112---112-         = 12 मात्रा
दूसरी लाइन =  21--121--12                = 10 मात्रा
तीसरी लाइन = 112--112--112            = 12 मात्रा

और इसमे कोई भी दो ADJACENT  1 1 को 2 से कभी भी कहीं भी बदल सकते है 

पहली और तीसरी लाइन हम क़ाफ़िया कर दें । बस माहिया हो गई


अस्तु
{नोट- असातिज़ा [ गुरुवरों ] से दस्तबस्ता  गुज़ारिश  है कि अगर कहीं कुछ ग़लतबयानी हो गई हो गई हो तो बराये मेहरबानी  निशान्दिही ज़रूर फ़र्माएं  ताकि मैं आइन्दा ख़ुद को दुरुस्त कर सकूँ --सादर ]

-आनन्द.पाठक-
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