tag:blogger.com,1999:blog-32871884015836594922024-03-28T09:52:44.661+05:30उर्दू बह्र पर एक बातचीत ---नोट- इस ब्लाग पर -’उर्दू बह्र पर एक बातचीत --" के तमाम अक़्सात यकजा दस्तयाब हैं
आनन्द पाठकhttp://www.blogger.com/profile/00352393440646898202noreply@blogger.comBlogger88125tag:blogger.com,1999:blog-3287188401583659492.post-39917082354995559902024-03-26T10:23:00.011+05:302024-03-28T09:52:10.243+05:30एक चर्चा : हिंदी ग़ज़ल में ;"नुक़्ता’ का मसला<p> [ <span style="color: red;"><b>नोट --वस्तुत: यह विषय -"उर्दू बह्र पर एक बातचीत "- का नहीं है फिर भी मैने इस पोस्ट को यहां~ पोस्ट किया। आइन्दा ऐसे आलेख मेरे दूसरे ब्लाग --शायरी की बातें- पर पढ़ेंगे जिसका पता है</b></span></p><p><span style="color: red;"><b><a href="http://www.urdusehindi.blogspot.com" target="_blank">शायरी की बातें</a></b></span></p><p><span style="color: red;"><b>या फिर मेरे फ़ेसबुक पेज पर पढ़ सकते हैं जिसका लिंक है--</b></span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><a href="https://www.facebook.com/profile.php?id=61555222865499" style="background-color: #fcff01;">https://www.facebook.com/profile.php?id=61555222865499</a>व</span></p><p>==== ====== =======आनन्द पाठक</p><p><span style="white-space: pre;"> </span><b>एक चर्चा : हिंदी ग़ज़ल में ’नुक़्ता" का मसला [क़िस्त 1]</b></p><p><br /></p><p><b>"नुक़्ते के हेर फ़ेर से ख़ुदा जुदा हो गया</b>"--यह जुमला आप ने कई बार सुना होगा। जो लोग उर्दू के ’हरूफ़-ए-तहज़्ज़ी’ [ उर्दू वर्णमाला ] से परिचित हैं वह इस जुमले का अर्थ अच्छी तरह जानते होंगे।और जो सज्जन नहीं जानते होंगे उनके लिए स्पष्ट कर देता हूँ ।</p><p>उर्दू में ख़ुदा “ख़े” (خ) से लिखा जाता है, जिसमे नुक़्ता ऊपर होता है। लेकिन अगर यही नुक़्ता ख़ुदा लिखते वक़्त नीचे लग जाये तो ये “ख़े” की जगह जीम (ج) हो जाता है और इस तरह “ख़ुदा” (خدا) “जुदा” (جدا) हो जाता है। “जुदा होना” का मतलब है “अलग होना ’ । ख़ुदा का मतलब तो आप जानते ही होंगे। ख़ैर।</p><p> जब से उर्दू ग़ज़लॊ का लिप्यन्तरण हिंदी के देवनागरी लिपि में होने लगा उससे एक तो फ़ायदा यह हुआ कि उर्दू ग़ज़लों को एक विस्तार मिला, श्रोता गण मिले , हिंदी वाले उर्दू शायरी के शे’र-ओ-सुख़न ्से परिचित हुए ।फलत: हिंदी में ग़ज़ल कहने वाले और लिखने वालॊं में आशातीत वृद्धि हुई। अब तो फ़ेसबुक पर हर दूसरा व्यक्ति ग़ज़ल लिख रहा है। उसमे कितनी "ग़ज़ल’ है और कितनी फ़कत "तुकबन्दी" इस पर मैं कोई टिप्पणी नहीं करूँगा। </p><p>मगर इस वाक़िया से उर्दू गज़ल से हिंदी ग़ज़ल में कुछ समस्याएँ भी आईं, सौती क़ाफ़िया का मसला आया , प्रतीकों का मसला आया जिसमे से एक "मसला" हिंदी में नुक़्तों का भी आया। । सौती क़ाफ़िया या अन्य मसाइल पर कभी बाद में बात करेंगे। आज की चर्चा -हिंदी ग़ज़ल में ’नुक़्ता" का मसला- तक ही सीमित रखेंगे।</p><p><span><span style="white-space: pre;"> </span>उर्दू में नुक़्ते का कोई मसला नहीं । अगर होगा भी तो वह उनकी लापरवाही का सबब होगा ।यह उनकी "वर्तनी" [इमला] और इल्म का हिस्सा है। उर्दू [ अरबी , फ़ारसी में भी ]जहाँ नुक़्ता लगाना है वहाँ नुक़्ता लगाना ही लगाना होगा । कोई विकल्प नहीं कोई छूट नहीं। वरना उनका इमला ग़लत माना जाएगा--जो सही नहीं होगा। मूलत: हिंदी में --नुक़्ता- हमारे वर्णमाला का हिस्सा नहीं है ।नुक़्ते का कोई ’कन्सेप्ट [ Concept]’ नहीं । मगर अरबी -फ़ारसी--उर्दू--तुर्की- शब्दों को कुछ हद तक हिंदी में समायोजित [ accomodate ] करने के लिए ’नुक़्ते; का कन्सेप्ट लाया गया ।</span></p><p>जैसे---क/क़--ख/ख़--ग/ग़-- ज/ज़---फ/फ़ या फिर अ/ ’अ आदि</p><p> <span style="white-space: pre;"> </span>कुछ हद तक इसलिए कि हिंदी में नुक़्ते लगे वर्ण ’पूरी तरह’ से उर्दू हर्फ़ के ’तलफ़्फ़ुज़’ [ उच्चारण ] हू-ब-हू नुमाइंदगी नही करते है Exact Mapping नहीं करते। जैसे ज-/ज़</p><p>उर्दू में ज़ के 5- हर्फ़ [ जे--झे--जाल--जोए---जुवाद--- ] प्रयोग होते हैं जिनके उच्च्चारण [ तलफ़्फ़ुज़] मुख़्तलिफ़ होते हैं बारीक सा ही सही मगर अलग अलग होता है । और इतना बारीक होता है कि आम मुसलमान भी बोलने में फ़र्क़ नहीं कर पाता , अगर वह मदरसा से तालीमयाफ़्ता [प्रशिक्षित या तालिब न हो। तो हम हिंदी वालों की क्या बात--सब ज/ज़ एक समान। लिखने में भी और बोलने में भी।</p><p><span><span style="white-space: pre;"> </span>तो क्या हिंदी ग़ज़लों में वर्ण पर "नुक़्ता’ लगाना ज़रूरी है? या बिना लगाए काम चल जाएगा? न लगाएँ तो क्या होगा? क्या यह वैकल्पिक [ obligatory ] है ? या आवश्यक हैं [ mandatory ]--ऐसे बहुत से सवाल समय समय पर बहुत से मंचों पर उठते रहते है। बहस चलती रहती है । आज भी यह मुद्दा ज़ेर-ए-बहस है। </span></p><p><br /></p><p>इस प्रश्न पर दो विचार समूह [school of thought] हैं-</p><p><br /></p><p>1- एक तो वह जो भाषा की शुद्धता के लिहाज़ से उर्दू शब्दों को नुक़्ता लगाने का आग्रह करते हैं । उनका मानना है कि आम जनता को /जन साधारण को/ श्रोता को एक ’साहित्यकार [ कवि लेखक शायर ] से भाषा की अपेक्षाकृत अधिक शुद्धता की आशा रहती है। 24-कैरेट की आशा। सोना जितना शुद्ध हो उतना है वैल्यू उतनी ही कीमत। </p><p>जो काशी तन तजै कबीरा--रामहि कौन निहोरा । जब नुक़्ता लगाना ही है तो फिर बहस की गुंजाइश कहाँ ?</p><p><br /></p><p>2- दूसरे वह जिनका मानना है कि चूँकि हिंदी में नुक़्ते का कॊई कन्सेप्ट [concept ]नहीं है अत: -हमारी वर्तनी का हिस्सा नहीं है-लगा दिया तो ठीक--नहीं लगाया तो भी ठीक-। नहीं लगाया तो कौन सी आफ़त आ जाएगी। सोना 24 करेट का नही तो 18-20 करेट का ही --कहलाएगा तो सोना ही । कोई पूर्वाग्रह नहीं। प्रसंग और संदर्भ के अनुसार श्रोताओं को भाव स्पष्ट हो ही जाता है । जैसे </p><p>वह हमारे यहाँ खाने पर आया -- वह मयख़ाने से आया/ बुतख़ाने में आया । अगर मयखाने / बुतखाने में -ख- पर नुक़्ता नहीं लगाया तो भी अर्थ/ भाव स्पष्ट ही है प्रसंगानुसार।</p><p>उसी प्रकार </p><p>रूस युक्रेन में "जंग" जारी है / आप के दिमाग़ में ’ज़ंग’ लगा हुआ है । अगर -ज- पर नुक़्ता लगा हो, न लगा हो भाव समझने में कोई फ़र्क नही पड़ेगा।लगा दिया तो ठीक -नहीं लगा तो भी ठीक। हम में से अधिकांश हिंदी भाषी उतनी बारीकी से उच्चारण भी नहीं कर पाते हैं और न उच्चारण के भेद ही पकड़ पाते हैं। लिखने में भले ही थोड़ा फ़र्क पड़े तो पड़े, बोलने में तो कत्तई नहीं।</p><p>ऐसे हज़ारो उदाहरण आप को मिल जाएंगे। जैसे इन्साफ़/इन्साफ --शरीफ़/शरीफ़-- दाग/दाग़--गम/ग़म -ख़्वाब/ख्वाब-ग़ालिब/गालिब---इक़बाल/इकबाल --खयाल/ख़याल - --हज़रत/हजरत </p><p>नुक़्ता लगे ना लगे क्या फ़र्क पड़ता है। प्रसंगानुसार भाव और अर्थ स्पष्ट रहता है</p><p>हाँ नुक़्ताचीं करने वाले --बेग़म/ बेगम पर आप को ज़रूर टोकेंगे। अज़ल/अजल पर ज़रूर टोकेंगे।</p><p><b>प्र्श्न यह है कि हम आप कहाँ खड़े है ?</b> </p><p><b> मैं तो भाई इन दोनॊ के बीच खड़ा हूँ । </b></p><p>[1] यदि आप आश्वस्त हैं कि अमुक हर्फ़ पर नुक़्ता लगेगा ही लगेगा --तो आप नुक़्ता लगाएँ</p><p>[2] यदि आप आश्वस्त नहीं हैं , दुविधा में हैं कि वहाँ नुक़्ता लगेगा कि नहीं लगेगा तो बेहतर है कि नुक़्ता न लगाएँ।</p><p>अब कुछ दिलचस्प बातें कर लेते हैं--</p><p>उर्दू के हर शब्द के मूल [ Root word] में 3-हर्फ़ [ मस्दर ] होता जिसे हम ’धातु’ कह सकते है </p><p> जैसे ’क़त्ल {[ क़-त-ल ] --यानी -क- नुक़्तायुक्त --क़- </p><p>क़त्ल से बने जितने भी शब्द होंगे सबमें क- पर ; नुक़्ता ’ यानी -क़-आएगा जैसे</p><p>क़त्ल--क़ातिल--मक़्तूल--क़तील--मक़तल --या इसे बने यौगिक शब्द --जैसे क़ातिल नज़र--क़त्लगाह --क़तील सिफ़ाई</p><p>जैसे --नज़र -- [ न--ज़--र ] से बने शब्द</p><p>नज़र--नज़री--नज़रीया--नज़ाइर---नज़ीर-- नज़्ज़ारा--मनाज़िर --या इसे बने यौगिक शब्द जैसे --नज़र अन्दाज़--नज़र-ए-बद --ख़ुशनज़र</p><p>ऐसे ही अन्य बहुत से शब्द।</p><p>चलते चलते एक बात और</p><p>नुक़्ता के खुद ही दो शकल है--</p><p><br /></p><p>नुक़्ता [ -क-बिन्दु युक्त ] === बिन्दी, जो उर्दू के किसी हर्फ़ पर लगाते हैं [ नुक़्त-ए-नज़र </p><p>नुक्ता [-क- बिना बिन्दु के ] === गूढ बात [ नुकते की बात यह कि-----।</p><p>ऐसे बहुत से शब्द --अजल--अज़ल आदि आदि</p><p>अब आप यह स्वयं तय करें कि आप किस तरफ़ खड़े हैं। 24 केरेट वाले के साथ [ first school of thought } या 20 केरेट वाले के साथ [ second school od thought] ?</p><p>चलते चलते किसी का एक शे’र आप के चिन्तन के लिए छोड़ जाता हूँ </p><p><b>हम ’दुआ’ लिखते रहे, वह ’दग़ा’ पढ़ते रहे</b></p><p><b>एक ’नुक़्ते’ ने हमें महरम से मुजरिम बना दिया।</b></p><p><br /></p><p>अब आप सोचिए शायर ने ’दुआ" लिखा मगर मगर महबूबा ने ’ दग़ा’ पढ़ा। क्यों ?</p><p>[ जवाब --आप उर्दू स्क्रिप्ट में -’दुआ’- और -’दग़ा"-लिख कर देख लीजिएगा---बात साफ़ हो जाएगी।</p><p>[ <b><u>आज इतना ही --बाक़ी अगले अंक में ---अगली क़िस्त में-</u></b>-]</p><p>सादर</p><p><br /></p><p>-आनन्द.पाठक-</p><p><br /></p>आनन्द पाठकhttp://www.blogger.com/profile/00352393440646898202noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3287188401583659492.post-55057821659568120012024-02-13T19:20:00.000+05:302024-02-13T19:20:03.343+05:30उर्दू बह्र पर एक बातचीत :: क़िस्त 85 : कुछ बातें माहिया के बारे में<p>:<b> माहिया के बारे में</b></p><p><span><span style="color: red;">[</span><i style="background-color: #fcff01;"><span style="color: red;"> नोट - माहिया की बह्र के बारे में मैने </span><b>क़िस्त 61 </b><span style="color: red;">में तफ़सील् से चर्चा की है आप वहाँ देख सकते हैं]</span></i></span></p><p><span style="color: red;"><i style="background-color: #fcff01;">यहाँ माहिया क्या है के बारे में कुछ चर्चा कर रहा हूँ\</i></span></p><p><br /></p><p>माहिया की जड़ें पंजाबी लोकगीतों में पाई जाती हैं। </p><p>आप ने जगजीत सिंह और चित्रा सिंह द्वारा गाए हुए कई माहिए ’यू-ट्यूब’ पर अवश्य सुने होंगे। जैसे- </p><p><b>कोठे ते आ माहिया</b></p><p><b>मिलड़ा त मिल आ के</b></p><p><b>नै तू ख़स्मा न खा माहिया</b></p><p><br /></p><p><b>की लैड़ा है मितरां तूं</b></p><p><b>मिलड़ ते आ जावां</b></p><p><b>डर लगता है छितना तूं</b></p><p>ये माहिए हैं।</p><p>माहिया वस्तुत: पंजाबी लोकगीत की एक विधा है वैसे ही जैसे हमारे पूर्वांचल में कजरी , चैता, फ़ाग ,सोहर आदि लोकगीत की परम्परा है ।माहिया को कहीं कहीं कुछ लोग ’टप्पा’ भी कहते या समझते हैं।</p><p>उर्दू शायरी में तो वैसे तो कई विधायें प्रचलित हैं जिसमें ग़ज़ल, रुबाई, नज़्म, मसनवी, मर्सिया आदि काफ़ी मशहूर है, इस हिसाब से ’माहिया लेखन’ बिलकुल एक नई विधा है। यह सच है कि माहिया को उर्दू शे’र-ओ-सुख़न में अभी उतनी लोकप्रियता हासिल नहीं हुई है जितनी ’ग़ज़ल’ को हुई है। आशा है गुज़रते वक़्त के साथ साथ ’माहिया’ विधा भी लोकप्रिय होती जायेगी।</p><p>जैसा कि बता चुके हैं कि माहिया उर्दू शायरी की अपेक्षाकृत एक नई विधा है। माहिया के बह्र और वज़न [मात्रा विन्यास] पर आगे विस्तार से चर्चा करेंगे। माहिया के उदभव और विकास तो ख़ैर एक शोध का विषय है। यह विषय यहाँ नहीं है।</p><p>चूँकि “माहिया”-पंजाबी लोकगीत परम्परा से उर्दू शायरी परम्परा में आई है। अत: प्रारम्भ में उर्दू शायरी में इसके एक सर्वमान्य बह्र और वज़न निर्धारण में काफी मतभेद रहा। प्रारम्भिक दौर में माहिया बह्र संरचना की 2-विचारधारा थी। पहली विचारधारा तो वह, जो यह मानती थी कि माहिया के तीनो मिसरे एक ही बहर और एक ही वज़न में होते हैं और दूसरी विचारधारा वह थी जो यह मानती थी कि पहले और तीसरे मिसरे का वज़न एक-सा होता है और दूसरे मिसरे का बह्र या वज़न अलग होता है।</p><p><br /></p><p>इस मसले को सुलझाने के लिए जनाब हैदर कुरेशी साहब ने एक तहरीक़ [आन्दोलन] भी चलाया और वह दूसरी विचारधारा के समर्थक रहे। आप ने माहिया पर काफी शोध और अध्ययन किया, काफी माहिया भी कहे । उर्दू में माहिया के वज़न निर्धारण में उनका काफी योगदान रहा है ।आप ने अपने कहे माहिए के संग्रह भी निकाले है। [संक्षिप्त परिचय आगे दिया गया है] </p><p><br /></p><p> <span style="white-space: pre;"> </span>अन्तत:, यह तय किया गया कि माहिया 3-मिसरों की एक काव्य-विधा है जिसमे पहला और तीसरा मिसरा ’तुकान्त’ [ हमक़ाफ़िया] होत्ता है और दूसरा मिसरा ’तुकान्त’ हो भी सकता है और नहीं भी। पहले मिसरे और तीसरे मिसरे का वज़न एक होता है और बाहम [परस्पर ] हमक़ाफ़िया होते है। दूसरे मिसरे का वज़न अलग होता है। माहिया के औज़ान [मात्रा-विन्यास] के बारे में आगे विस्तार से चर्चा करेंगे ।</p><p>कुछ लोगों का मानना है, उर्दू में सबसे पहले माहिया हिम्मत राय शर्मा जी ने 1939 में बनी एक फ़िल्म “ख़ामोशी” के लिए लिखे थे। उनके कहे हुए चन्द माहिए बानगी के तौर पर यहाँ लगा रहा हूँ।</p><p> </p><p>इ<b>क बार तो मिल साजन</b></p><p><b>आकर देख ज़रा</b></p><p><b>टूटा हुआ दिल साजन</b></p><p><br /></p><p><b>सहमी हुई आहों ने</b></p><p><b>सब कुछ कह डाला</b></p><p><b>ख़ामोश निगाहों ने</b></p><p><br /></p><p><b>यह तर्ज़-बयाँ समझो</b></p><p><b>कैफ़ में डूबी हुई</b></p><p><b>आँखों की ज़ुबाँ समझो</b></p><p><br /></p><p><b>तारे गिनवाते हो</b></p><p><b>बन कर चाँद कभी</b></p><p><b>जब सामने आते हो </b></p><p> </p><p>वहीं कुछ लोगों का मानना है कि उर्दू में सबसे पहले माहिया जनाब मौलाना चिराग़ हसरत ’हसरत’ साहब मरहूम ने सन 1937 में लिखा था ।</p><p> <span style="white-space: pre;"> </span><b>बागों में पड़े झूले</b></p><p><span style="white-space: normal;"><b><span style="white-space: pre;"> </span>तुम भूल गए हमको</b></span></p><p><span style="white-space: normal;"><b><span style="white-space: pre;"> </span>हम तुम को नहीं भूले ।</b></span></p><p><br /></p><p><b>यह रक़्स सितारों का</b></p><p><b>सुन लो कभी अफ़साना</b></p><p><b>तकदीर के मारों का । </b></p><p><b><br /></b></p><p><b>सावन का महीना है</b></p><p><b>साजन से जुदा रह कर</b></p><p><b>जीना भी क्या जीना है ।</b></p><p><br /></p><p>इन माहियों को कई गायकॊ ने अपने स्वर और अपने अन्दाज़ में गाया है जिन्हें यू-ट्यूब पर देखा और सुना जा सकता है ।</p><p>उर्दू में सबसे पहले माहिया किसने लिखा यह शोध और बहस का विषय हो सकता है। हमारा उद्देश्य यहाँ मात्र इतना है कि उर्दू में शुरुआती तौर पर माहिया कैसे लिखे गए। बाद में दीगर शायरों ने छिटपुट रूप से शौक़िया तौर पर माहिए लिखे, पर माहिया-लेखन का कोई गंभीर प्रयास नहीं हुआ।</p><p> तत्पश्चात ।</p><p>हिन्दी फ़िल्म में सबसे पहले माहिया ’क़मर जलालाबादी ’साहब ने हिन्दी फ़िल्म फ़ागुन [1958] के लिए लिखा था और जिसे भारत भूषण और मधुबाला जी पर फ़िल्माया गया था। संगीतकार ओ0पी0 नैय्यर साहब के निर्देशन में मुहम्मद रफ़ी और आशा भोंसले जी ने गाया था। आप ने भी सुना होगा।</p><p><br /></p><p>" <b>तुम रूठ के मत जाना </b></p><p><b>मुझ से क्या शिकवा </b></p><p><b>दीवाना है दीवाना </b></p><p><b><br /></b></p><p><b>यूँ हो गया बेगाना </b></p><p><b>तेरा मेरा क्या रिश्ता </b></p><p><b>ये तू ने नहीं जाना </b></p><p><br /></p><p>ये माहिए हैं ।</p><p> <span style="white-space: pre;"> </span>बचपन में मैने भी सुना था। बड़ी अच्छी धुन और दिलकश आवाज लगती थी। मगर मुझे मालूम नहीं था कि ये -माहिए- हैं। अब पता चला कि माहिया में भी अपनी बात कही जा सकती है, दर्द भरा जा सकता है, अभिव्यक्त किया जा सकता है ।</p><p>इसके बाद हिंदी फ़िल्मों में बहुत दिनों तक माहिए नहीं लिखे गए। कुछ लोग छिटपुट तौर पर माहिए लिखते और कहते रहे ।बाद में साहिर लुध्यानवी साहब ने हिन्दी फ़िल्म ’नया-दौर’[ 1957 ] के लिए चन्द माहिए लिखे जिसे बी0आर0 चोपड़ा साहब के निर्देशन में दिलीप कुमार और अजीत के ऊपर ऊपर फ़िल्माया गया। ओ0पी0 नैय्यर साहब के संगीत निर्देशन में- मुहम्मद रफ़ी साहब ने बडे दिलकश अन्दाज़ में गाया है। </p><p><br /></p><p> <b>दिल ले के दगा देंगे </b></p><p><b> यार है मतलब के </b></p><p><b> देंगे तो ये क्या देंगे </b></p><p><b><br /></b></p><p><b>दुनिया को दिखा देंगे </b></p><p><b>यारो के पसीने पर </b></p><p><b>हम खून बहा देंगे </b></p><p><br /></p><p>यह भी माहिए हैं ।</p><p> माहिया का शाब्दिक अर्थ प्रेमिका से बातचीत करना होता है, बिलकुल वैसे ही जैसे ग़ज़ल या शे’र में होता है। दोनो की रवायती ज़मीन, मानवीय भावनाएँ, संवेदनाएँ और विषय एक जैसी ही हैं -विरह ,मिलन ,जुदाई,वस्ल-ए-यार ,शिकवा, गिला, शिकायत, रूठना, मनाना आदि। परन्तु समय के साथ साथ माहिया की भी ज़मीन बदलती गई ।जीवन के और विषय पर राजनीति ,जीवन दर्शन,सामाजिक विषय मज़ाहिया विषय पर भी माहिया कहे जाने लगे।</p><p> <span style="white-space: pre;"> </span>चन्द माहिए विभिन्न रंगों के,भिन्न भिन्न ’थीम’[ विषय ] पर मुख्तलिफ़ माहियानिगारों के लिखे हुए माहिए लिख रहा हूँ। आप भी आनन्द उठाएँ ।</p><p><br /></p><p><b>हर हाल में बैठेंगे</b></p><p><b>गाँव में जाएँगे</b></p><p><b>चौपाल में बैठेंगे</b></p><p><span style="white-space: normal;"><b><span style="white-space: pre;"> </span>-नज़ीर फ़तेहपुरी</b></span></p><p><b><br /></b></p><p><b>गोरी का उडा आँचल</b></p><p><b>कितना सम्भाला था</b></p><p><b>दिल फिर भी हुआ पागल</b></p><p><b>⦁<span style="white-space: pre;"> </span>प्रभा माथुर</b></p><p><b><br /></b></p><p><b>झूठे अफ़साने में</b></p><p><b>कैसे मिलते हम</b></p><p><b>बेदर्द ज़माने में</b></p><p><b>⦁<span style="white-space: pre;"> </span>आरिफ़ फ़रहाद</b></p><p><b><br /></b></p><p><b>सावन की फ़ज़ाओं में </b></p><p><b>ख़ुशबू का अफ़साना</b></p><p><b>जुल्फ़ों की घटाओं में</b></p><p><span style="white-space: normal;"><b><span style="white-space: pre;"> </span>-मनाज़िर आशिक़ ’हरगानवी’</b></span></p><p><b><br /></b></p><p><b>है रंग बहुत गहरा</b></p><p><b>सुर्ख़ अनारों की</b></p><p><b>तकती है तेरा चेहरा</b></p><p><b>⦁<span style="white-space: pre;"> </span>अनवर मिनाई</b></p><p><b><br /></b></p><p><b>सच था कि कहानी थी</b></p><p><b>याद नहीं हम कॊ</b></p><p><b>क्या चीज़ जवानी थी</b></p><p><b>⦁<span style="white-space: pre;"> </span>क़मर साहरी</b></p><p><b>⦁<span style="white-space: pre;"> </span></b></p><p>जनाब हैदर क़ुरेशी साहब ने माहिया के लिए बड़ी शिद्दत से एक तहरीक चलाई थी। आप ने बहुत से माहिए कहे हैं। उनके माहिए उनके इन 2-किताबों में संकलित हैं</p><p>1<span style="white-space: pre;"> </span>मुहब्बत के फूल</p><p>2<span style="white-space: pre;"> </span>दर्द समन्दर</p><p>उन्हीं में से चयनित, चन्द माहिए आप के लिए बानगी के तौर पर लगा रहा हूँ। आप भी लुत्फ़ उठाएँ।</p><p><br /></p><p><b>तू ख़ुद में अकेला है</b></p><p><b>तेरे दम से मगर</b></p><p><b>संसार का मेला है </b></p><p><b><br /></b></p><p><span style="white-space: normal;"><b><span style="white-space: pre;"> </span>दुनिया पे करम कर दे</b></span></p><p><span style="white-space: normal;"><b><span style="white-space: pre;"> </span>प्यार की सीनों में</b></span></p><p><span style="white-space: normal;"><b><span style="white-space: pre;"> </span>फिर रोशनियाँ भर दे</b></span></p><p><b><br /></b></p><p><b>याद आ ही गए आख़िर</b></p><p><b>कुछ भी सही, लेकिन</b></p><p><b>भाई हैं मेरे आख़िर</b></p><p><b><br /></b></p><p><b>रंग मेहदी का गहरा है</b></p><p><b>हुस्न ख़ज़ाना है</b></p><p><b>और जुल्फ़ का पहरा है</b></p><p><b><br /></b></p><p><b>चाहत की गवाही थे</b></p><p><b>हम भी कभी यारों</b></p><p><b>इक ’हीर’ के माही थे</b></p><p><b><br /></b></p><p>डा0 आरिफ़ हसन ख़ान साहब की चर्चा हम पहले कर चुके हैं। उनके माहिया संकलन</p><p>“ख़्वाबों की किर्चीं’ से चन्द माहिए आप के लिए बानगी के तौर पर लगा रहा हूँ। आप भी आनन्द </p><p>उठाएँ। </p><p><b><br /></b></p><p><b>मिट्टी के खिलौने थे</b></p><p><b>पल में टूट गए</b></p><p><b>क्या ख़्वाब सलोने थे <span style="white-space: pre;"> </span> </b></p><p><b><br /></b></p><p><b>मुफ़लिस की मुहब्बत क्या</b></p><p><b>रेत का घर जैसे </b></p><p><b>इस हर की हक़ीक़त क्या </b></p><p><br /></p><p>नोट- स्थान की कमी देखते हुए बहुत से माहिए यहा नहीं लिखे जा रहे हैं। उद्देश्य मात्र यह बताना है कि माहिया 1937 से चल कर आजतक कितनी यात्रा तय कर चुका है और किन किन रंगों में यात्रा कर रहा है । <span style="white-space: pre;"> </span></p><p><span style="white-space: normal;"><span style="white-space: pre;"> </span>माहिया की सब से बड़ी पूँजी उसकी ’लय’ है, उसकी "धुन" है ।बहर और वज़न तो सब माहियों के लगभग एक-सा ही होता है। मगर हर गायक अपनी धुन और लय में अलग अलग अन्दाज़ में गाता है। इसका सबसे अच्छा उदाहरण -बाग़ों में पड़े झूले- वाला माहिया का है जो ’यू-ट्यूब ’ पर कई गायकों ने अपने मुख़्तलिफ़ अन्दाज़ में गाया है।</span></p><p> उर्दू साहित्य में माहिया की यात्रा 1936-37 से शुरु होती है। मगर साहित्य के कालक्रम के अनुसार ’माहिया’ अभी शैशवास्था में ही है। बहुत लम्बा सफ़र तय करना है अभी इसे। यद्यपि बहुत से लोग माहिया लिखने/ कहने की तरफ़ आकर्षित हुए हैं। कभी कभी किसी पत्रिका में कोई "माहिया-विशेषांक’ भी निकल जाता है। यदा कदा माहिया पर 1-2 मुशायरा भी हो जाता है, मगर अभी ग़ज़ल जैसी मक़्बूलियत हासिल नहीं हुई है। "फ़ेसबुक" या "व्हाट्स अप " जैसे सोशल मीडिया पर भी ऐसे बहुत कम मंच नज़र आते हैं जो मात्र ’माहिया’ के लिए ही समर्पित हों ।ज़्यादातर मंच ग़ज़ल को ही केन्द्र में रख कर बनाए गए हैं।</p><p> माहिया का अभी नियमित लेखन नहीं हो रहा है या समुचित प्रचार प्रसार की व्यवस्था नहीं हुई है। मगर जिस हिसाब से और जिस मुहब्बत से लोग माहिया लेखन के प्रति आकर्षित हो रहे है और लोगों की इस में रुचि बढ़ रही है, हमें उमीद है कि माहिया एक दिन अपना मुक़ाम ज़रूर हासिल करेगा।</p><p>हमें तो माहिया का भविष्य उज्ज्वल दिख रहा है ।</p><p> </p><p><b>-आनद.पाठक-</b></p><div><br /></div>आनन्द पाठकhttp://www.blogger.com/profile/00352393440646898202noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3287188401583659492.post-45834919105670571592024-02-13T19:19:00.003+05:302024-02-13T19:19:52.588+05:30उर्दू बह्र पर एक बातचीत :क़िस्त 61 [ बह्र-ए-माहिया ]<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="color: red;"><b>उर्दू बह्र पर एक बातचीत :क़िस्त 61 [बह्र-ए-माहिया] </b></span></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><span style="color: red;"><b><br /></b></span></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><span style="color: red;"><b>[ <i style="background-color: #fcff01;">नोट माहिया क्या है इसका उद्भव और विकास क्या है ,इसके लिए इसी ब्लाग में क़िस्त 85 भी देख सकते है जहाँ मैने विस्तार से चर्चा किया है --आनन्द.पाठक]</i><br /></b></span>
<span style="color: red;"><b><br /></b></span><span style="color: red;"><b> </b></span><br />
<span style="color: red;">उर्दू शायरी में माहिया के औज़ान ...</span><br />
<br />
उर्दू शायरी में यूँ तो कई विधायें प्रचलित हैं जिसमें ग़ज़ल ,रुबाई, नज़्म क़सीदा आदि काफ़ी मशहूर है ,इस हिसाब से ’माहिया लेखन’ बिलकुल नई विधा है जो ’पंजाबी से उर्दू में आई है लेकिन उर्दू शे’र-ओ-सुख़न में अभी उतनी मक़्बूलियत हासिल नहीं हुई है<br />
<br />
माहिया वस्तुत: पंजाबी लोकगीत की एक विधा है ,वैसे ही जैसे हमारे पूर्वांचल में कजरी ,चैता,फ़ाग,सोहर आदि । माहिया का शाब्दिक अर्थ होता है प्रेमिका से बातचीत करना ,अपनी बात कहना बिलकुल वैसे ही जैसी ग़ज़ल या शे’र में कहते हैं ।दोनो की रवायती ज़मीन मानवीय भावनाएँ और विषय एक जैसे ही है -विरह ,मिलन ,जुदाई,वस्ल-ए-यार ,शिकवा,गिला,शिकायत,रूठना,मनाना आदि। परन्तु समय के साथ साथ माहिया जीवन के और विषय पर राजनीति ,जीवन दर्शन ,सामाजिक विषय पर भी कहे जाने लगे।<br />
<br />
माहिया पर जनाब हैदर क़ुरेशी साहब ने काफी शोध और अध्ययन किया है और काफी माहिया कहे हैं । उर्दू में माहिया के सन्दर्भ में उनका काफी योगदान है ।आप ने माहिया के ख़ुद के अपने संग्रह भी निकाले है आप पाकिस्तान के शायर हैं जो बाद में जर्मनी के प्रवासी हो गए।आप ने "उर्दू में माहिया निगारी" नामक किताब में माहिया के बारे में काफी विस्तार से लिखा है ।<br />
<br />
हिन्दी फ़िल्म में सबसे पहले माहिया क़मर जलालाबादी ने लिखा [हिन्दी फ़िल्म फ़ागुन [1958] [भारत भूषण और मधुबाला] संगीत ओ पी नैय्यर का वो गीत ज़रूर सुना होगा जिसे मुहम्मद रफ़ी और आशा भोंसले जी ने गाया है]<br />
<br />
<span style="color: blue;">" तुम रूठ के मत जाना <span style="white-space: pre;"> </span></span><br />
<span style="color: blue;">मुझ से क्या शिकवा<span style="white-space: pre;"> </span></span><br />
<span style="color: blue;">दीवाना है दीवाना<span style="white-space: pre;"> </span></span><br />
<span style="color: blue;"><br /></span><span style="color: blue;"><br /></span><span style="color: blue;">यूँ हो गया बेगाना <span style="white-space: pre;"> </span></span><br />
<span style="color: blue;">तेरा मेरा क्या रिश्ता<span style="white-space: pre;"> </span></span><br />
<span style="color: blue;">ये तू ने नहीं जाना<span style="white-space: pre;"> </span></span><br />
<br />
यह माहिया है ।<br />
बाद में हिन्दी फ़िल्म ’नया-दौर’ [ दिलीप कुमार ,वैजयन्ती माला अभिनीत] में साहिर लुध्यानवी ने कुछ माहिया लिखे थे<br />
<br />
<span style="color: blue;">दिल ले के दगा देंगे </span><br />
<span style="color: blue;">यार है मतलब के <span style="white-space: pre;"> </span></span><br />
<span style="color: blue;"> देंगे तो ये क्या देंगे <span style="white-space: pre;"> </span></span><br />
<span style="color: blue;"><br /></span><span style="color: blue;">दुनिया को दिखा देंगे </span><br />
<span style="color: blue;">यारो के पसीने पर<span style="white-space: pre;"> </span> </span><br />
<span style="color: blue;">हम खून बहा देंगे<span style="white-space: pre;"> </span></span><br />
<br />
यह माहिया है<br />
<br />
--------<br />
माहिया 3-लाइन की [जैसे ;जापानी विधा ’हाइकू’ या हिन्दी का त्रि-पटिक’ छन्द। ] एक शे’री विधा है जो बह्र-ए-मुतदारिक [212- फ़ाइलुन] से पैदा हुआ है जिसमे पहला और तीसरा मिसरा आपस में ’हमक़ाफ़िया ’ होती है दूसरा मिसरा ;हमक़ाफ़िया’ हो ज़रूरी नहीं ।अगर है तो मनाही भी नही<br />
पहली और तीसरी पंक्ति का एक ’ख़ास’ वज़न होता है और दूसरी पंक्ति में [ पहले और तीसरे मिसरा से ] एक सबब-ए-ख़फ़ीफ़ कम होता है । पुराने वक़्त में तीनो मिसरा एक ही वज़न का लिखा जाता रहा । मगर अब यह तय किया गया कि दूसरे मिसरा में -पहले और तीसरे मिसरे कि बनिस्बत एक सबब-ए-ख़फ़ीफ़ [2] कम होगा।<br />
माहिया के औज़ान विस्तार से अब देखते है । यदि आप ’तस्कीन-ए-औसत’ का अमल समझ लिया है तो माहिया के औज़ान समझने में कोई परेशानी नहीं ।आप जानते हैं कि ’फ़ाइलुन[212] का मख़्बून मुज़ाहिफ़ ’फ़इ’लुन [ 112] होता है जिसमे [ फ़े--ऐन--लाम 3- मुतहर्रिक एक साथ आ गए] ख़ब्न एक ज़िहाफ़ होता है } अगर कोई रुक्न सबब-ए-ख़फ़ीफ़ से शुरु होता है [जैसे फ़ाइलुन में ’फ़ा--इलुन] तो सबब--ए-ख़फ़ीफ़ का साकिन [जैसी फ़ा का-अलिफ़-] को गिराने के अमल को ’ख़ब्न ’ कहते है और मुज़ाहिफ़ को मख़्बून कहते ।अगर ’फ़ाइलुन 212] में पहला अलिफ़ गिरा दें तो बचेगा फ़ इलुन [112] -यही मख़्बून है फ़ाइलुन का।<br />
<span style="color: purple;"><b><i>[1] पहले और तीसरे मिसरे की मूल बह्र [मुतक़ारिब म्ख़्बून]</i></b></span><br />
<span style="color: purple;"><b><i> --a---------b----------c-------/ c'</i></b></span><br />
<span style="color: purple;"><b><i> फ़ इलुन- -फ़ इलुन- -फ़ इलुन /फ़ इलान</i></b></span><br />
<span style="color: purple;"><b><i> 1 1 2--------1 1 2-----1 1 2 / 1 1 2 1 </i></b></span><br />
अब इस वज़न पर तस्कीन-ए-औसत का अमल हो सकता है और इस से 16-औज़ान बरामद हो सकते है । देखिए कैसे । आप की सुविधा और clarity के लिए यहाँ 112--22--जैसे अलामत से दिखा रहा हूँ बाद में आप चाहें तो उस रुक्न का नाम भी उसके ऊपर लिख सकते हैं<br />
<br />
फ़ इलुन- -फ़ इलुन- -फ़ इलुन<br />
--a----------b------------c<br />
[ A ] 1 1 2---1 1 2-- ---1 1 2 <span style="white-space: pre;"> </span> <span style="white-space: pre;"> </span>मूल बह्र -no operation<br />
<br />
[ B ] 22-------112--------112<span style="white-space: pre;"> </span>operation on -a- only<br />
<br />
[C ] 112---- -22------ --112<span style="white-space: pre;"> </span>operation on -b- only<br />
<br />
[D ] 112----112-------22<span style="white-space: pre;"> </span>operation on -c- only<br />
<br />
[E ] 22-------22----------112<span style="white-space: pre;"> </span>operation on -a &amp; -b-<br />
<br />
[F ] 112--- 22-------22<span style="white-space: pre;"> </span>operation on -b-&amp;-c-<br />
<br />
[G ] 22-- -112--------22 <span style="white-space: pre;"> </span>operation on -c-&amp; -a-<br />
<br />
[H ] 22--- ---22----------22<span style="white-space: pre;"> </span>operation on -a-&amp;-b-&amp;-c<br />
<br />
इस प्रकार माहिया के पहले मिसरे और तीसरे मिसरे के लिए 8-औज़ान बरामद हो गए।यहाँ पर कुछ ध्यान देने की बातें--<br />
[1] यह सभी आठो वज़न आपस में बदले जा सकते है [बाहमी मुतबादिल हैं] कारण कि सभी वज़न का मात्रा योग -12- ही है<br />
[2] मूल बह्र का हर रुक्न ’फ़ अ’लुन [112 ] है जिसमें 3- मुतहर्रिक हर्फ़ [-फ़े-ऐन-लाम-] एक साथ आ गए हैं अत: हर Individual रुक्न [ या एक साथ दो या दो से अधिक रुक्न पर भी एक साथ ]पर ’तस्कीन-ए-औसत ’ का अमल हो सकता है और एक नई रुक्न [ फ़ेलुन =22 ] बरामद हो सकती है जिसे हम यहाँ ’मख़्बून मुसक्किन" कहेंगे क्योंकि यह ’तस्कीन’ के अमल से बरामद हुआ है<br />
[3] अब आप चाहें तो ऊपर की अलामत 22 की जगह ’मख़्बून मुसक्किन और 112 की जगह "फ़अ’लुन" लिख सकते है<br />
<br />
एक बात और<br />
आप जानते हों कि अगर किसी मिसरा के आखिर में -1- साकिन बढ़ा दिया जाए तो मिसरे के आहंग में कोई फ़र्क नहीं पड़ता है । अत: ऊपर के औज़ान में मिसरा के आख़िर में -1- साकिन बढ़ा दे तो 8-औज़ान और बरामद हो सकते हैं<br />
जिसे हम 1121 को ’मख़्बून मज़ाल ’ कहेंगे<br />
और 221 को ;मख़्बून मुसक्किन मज़ाल ’ कहेंगे<br />
आप चाहें तो अलग से विस्तार से लिख कर देख सकते है<br />
अत: पहले और तीसरे मिसरे के कुल मिला कर [8+8 ]=16 औज़ान बरामद हो सकते है<br />
-------<br />
<span style="color: purple;"><b><i>दूसरे मिसरे की मूल बह्र [यह वज़न बह्र-ए-मुतक़ारिब से निकली हुई है </i></b></span><br />
<span style="color: purple;"><b><i>--a----------b--------c-----/ c'</i></b></span><br />
<span style="color: purple;"><b><i>फ़अ’ लु---फ़ऊलु---फ़ अ’ल /फ़ऊलु =21--------121-----1 2 / 121 </i></b></span>[ इसका नाम मुतक़ारिब असरम मक़्बूज़ महज़ूफ़ /मक़सूर है] कुछ आप को ध्यान आ रहा है ? जी हाँ . बहर-ए-मीर की चर्चा करते समय इस प्रकार के वज़न का प्रयोग किया था।<br />
ख़ैर<br />
ध्यान से देखे --a--&amp; --b और --b--&amp; ---c यानी दो-दो रुक्न मिला कर 3- मुतहर्रिक [-लाम--फ़े---ऐन] एक साथ आ रहे हैं अत: इन पर ’तख़्नीक़’ का अमल हो सकता है और इस से 8-मुतबादिल औज़ान बरामद हो सकते हैं । देखिए कैसे?<br />
--a----------b--------c-----<br />
फ़अ’ लु---फ़ऊलु---फ़ अ’ल----मूल बह्र<br />
21--------121-------12--<br />
वही बात -आप की सुविधा और clarity के लिए यहाँ 112--22--जैसे अलामत से दिखा रहा हूँ बाद में आप चाहें तो उस रुक्न का नाम भी उसके ऊपर लिख सकते हैं<br />
<br />
[I ] 21-----121-----12 मूल बह्र -no operation<br />
<br />
[J ] 22-----21----12 operation on -a &amp; b-<br />
<br />
[K ] 21----122----2 operation on -b &amp; c-<br />
<br />
[L ] 22-----22----2 operation on a--b---c<br />
<br />
इस प्रकार दूसरे मिसरे के 4-वज़न बरामद हुए<br />
जैसा कि आप जानते हैं अगर किसी मिसरा के आखिर में -1- साकिन बढ़ा दिया जाए तो मिसरे के आहंग में कोई फ़र्क नहीं पड़ता है । अत: ऊपर के औज़ान में मिसरा के आख़िर में -1- साकिन बढ़ा दे तो 4-औज़ान और बरामद हो सकते हैं।<br />
आप उसे i'--j'---k'--l' लिख सकते है -जिससे रुक्न पहचानने में सुविधा होगी<br />
इस प्रकार दूसरे मिसरे के भी 4+4=8 औज़ान बरामद हो गए<br />
<br />
जिसमे हम 121 को फ़ऊल [[मक़्सूर] कहेंगे<br />
और 21 को ;फ़ाअ’[-ऐन साकिन] को " मक्सूर मुख़्न्निक़" ’ कहेंगे<br />
आप चाहें तो अलग से विस्तार से लिख कर देख सकते है। मेरी व्यक्तिगत राय यही है कि 22 या 122 के बजाय रुक्न का नाम ही लिखना ही श्रेयस्कर होगा कारण कि आप को यह पता चलता रहे कि मिसरा के किस मुक़ाम पर साकिन होना चाहिए और किस मुक़ाम मुतहर्रिक ।<br />
<br />
आप घबराइए नहीं --ये 24-औज़ान आप को रटने की ज़रूरत नहीं -बस समझने के ज़रूरत है --जो बहुत आसान है<br />
[1] ज़्यादातर माहिया निगार पहले और तीसरे मिसरे के लिए G &amp; H का ही प्रयोग करते है , और मिसरा के अन्त में Additional साकिन वाला केस तो बहुत जी कम देखने को मिलता है । बाक़ी औज़ान का प्रयोग कभी कभी ही करते है --जब कोई मिसरा ऐसा फ़ँस जाये तब<br />
[2] दूसरे मिसरे के लिए K &amp; L का ही प्रयोग करते हैं<br />
[3] प्राय: हर मिसरा के आख़िर मे -एक सबब-ए-ख़फ़ीफ़- [2] या इलुन [12] आता है यानी मिसरा दीर्घ [2] पर ही गिरता है<br />
<br />
माहिया के औज़ान के बारे में कुछ दिलचस्प बातें<br />
<br />
[1] अमूमन उर्दू शायरी में --कोई शे’र या ग़ज़ल एक ही बहर या वज़न में कहे जाते है ,मगर यह स्निफ़ [विधा] दो बह्र इस्तेमाल करती है --यानी पहली पंक्ति में --मुतदारिक मख़्बून की ,और दूसरी पंक्ति -मुतक़ारिब की मुज़ाहिफ़<br />
[2] यह स्निफ़ ’सालिम’ रुक्न इस्तेमाल नहीं करती --बस सालिम रुक्न की मुज़ाहिफ़ शकल ही इस्तेमाल करती है<br />
[3] चूँकि यह स्निफ़[विधा] मुज़ाहिफ़ शजक ही इस्तेमाल करती है अत: 3-मुतहर्रिक एक साथ आने के मुमकिनात है--चाहे एकल रुक्न में या दो पास पास वाले मुज़ाहिफ़ रुक्न मिला कर }फिर तस्कीन या तख़्नीक़ का अमल हो सकता है इन रुक्न पर।<br />
[4] हालाँ कि दूसरी लाइन में एक सबब-ए-ख़फ़ीफ़ कम होता है बनिस्बत पहली या तीसरी लाइन से ---शायद यह कमी ऎब न हो कर -यही माहिया को आहंग ख़ेज़ बनाती है--जैसे गाल में पड़े गढ्ढे नायिका के सौन्दर्य श्री में वॄद्धि देते है।<br />
<br />
अब कुछ माहिया और उसकी तक़्तीअ देख लेते है<br />
<span style="color: blue;">[1] "<span style="white-space: pre;"> </span> तुम रूठ के मत जाना <span style="white-space: pre;"> </span></span><br />
<span style="color: blue;"><span style="white-space: pre;"> </span>मुझ से क्या शिकवा<span style="white-space: pre;"> </span></span><br />
<span style="color: blue;"><span style="white-space: pre;"> </span>दीवाना है दीवाना</span><br />
<span style="color: blue;"><span style="white-space: pre;"> </span>--क़मर जलालाबादी </span><br />
तक़्तीअ देखते हैं -<br />
<span style="white-space: pre;"> </span>2 2 / 1 1 2 / 2 2<br />
<span style="white-space: pre;"> </span>तुम रू/ ठ के मत / जाना <span style="white-space: pre;"> </span> <span style="white-space: pre;"> </span>फ़े’लुन---फ़अ’लुन---फ़े’लुन <span style="white-space: pre;"> </span>= G<br />
<span style="white-space: pre;"> </span>2 2 / 2 2 / 2<br />
<span style="white-space: pre;"> </span>मुझ से /क्या शिक/वा<span style="white-space: pre;"> </span> फ़े’लुन----फ़े’लुन ---फ़े<span style="white-space: pre;"> </span>=L<br />
<span style="white-space: pre;"> </span>2 2 / 1 1 2 / 2 2<br />
<span style="white-space: pre;"> </span>दीवा/ ना है दी /वाना<span style="white-space: pre;"> </span>फ़े’लुन---फ़अ’लुन---फ़े’लुन<span style="white-space: pre;"> </span>=G<br />
<br />
<span style="color: blue;">[2] <span style="white-space: pre;"> </span> दिल ले के दगा देंगे </span><br />
<span style="color: blue;"><span style="white-space: pre;"> </span>यार है मतलब के <span style="white-space: pre;"> </span></span><br />
<span style="color: blue;"><span style="white-space: pre;"> </span> देंगे तो ये क्या देंगे </span><br />
<span style="color: blue;"><span style="white-space: pre;"> </span> --साहिर लुध्यानवी</span><br />
<br />
तक़्तीअ’ भी देख लेते हैं<br />
<span style="white-space: pre;"> </span> 2 2 / 1 1 2 / 2 2 <span style="white-space: pre;"> </span>22---112---22<span style="white-space: pre;"> </span>= G<br />
<span style="white-space: pre;"> </span> दिल ले /के द गा /दें गे <span style="white-space: pre;"> </span><br />
<span style="white-space: pre;"> </span>2 1 / 1 2 2 / 2<span style="white-space: pre;"> </span>21---122---2<span style="white-space: pre;"> </span>=K<br />
<span style="white-space: pre;"> </span>यार /है मत लब /के <span style="white-space: pre;"> </span><br />
<span style="white-space: pre;"> </span>2 2 / 1 1 2 / 2 2<span style="white-space: pre;"> </span>22---112---22<span style="white-space: pre;"> </span>= G<br />
<span style="white-space: pre;"> </span> देंगे/ तो ये क्या /देंगे <span style="white-space: pre;"> </span><br />
<br />
[3] अब इस हक़ीर का भी एक माहिया बर्दास्त कर लें<br />
<br />
<span style="white-space: pre;"> </span><span style="color: blue;">जब छोड़ के जाना था</span><br />
<span style="color: blue;"><span style="white-space: pre;"> </span>क्यों आए थे तुम?</span><br />
<span style="color: blue;"><span style="white-space: pre;"> </span>क्या दिल बहलाना था?</span><br />
<br />
अब इसकी तक़्तीअ’ भी देख लें<br />
<span style="white-space: pre;"> </span>2 2 / 1 1 2 / 2 2 <span style="white-space: pre;"> </span>=22---112---22<span style="white-space: pre;"> </span>= G<br />
<span style="white-space: pre;"> </span>जब छो /ड़ के जा /ना था<br />
<span style="white-space: pre;"> </span>2 2 / 2 2 /2<span style="white-space: pre;"> </span>= 22---22---2<span style="white-space: pre;"> </span>=L<br />
<span style="white-space: pre;"> </span>क्यों आ /ए थे/ तुम?<br />
<span style="white-space: pre;"> </span>2 2 / 2 2 / 2 2<span style="white-space: pre;"> </span>= 22---22---22<span style="white-space: pre;"> </span>=H<br />
<span style="white-space: pre;"> </span>क्या दिल/ बह ला /ना था?<br />
<br />
एक बात चलते चलते<br />
<br />
चूँकि उर्दू में माहिया निगारी एक नई विधा है --इस पर शायरों ने बहुत कम ही कहा है--लगभग ना के बराबर। कभी कहीं कोई शायर तबअ’ आज़माई के लिहाज़ से छिट्पुट तरीक़े से यदा-कदा लिख देते हैं<br />
उर्दू रिसालों में भी इसकी कोई ख़ास तवज़्ज़ो न मिली ---मज़्मुआ --ए-माहिया तो बहुत कम ही मिलते है। डा0 आरिफ़ हसन ख़ान साहब ने माहिया पर एक मज़्मुआ " ख़्वाबों की किरचें "-मंज़र-ए-आम पे आया है।<br />
उमीद करते है कि हमारे नौजवान शायर इस जानिब माइल होंगे और मुस्तक़बिल में माहिया पर काम करेंगे और कहेंगे । इन्ही उम्मीद के साथ---<br /><br /></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><span style="background-color: #fcff01;"><span style="color: red;"><b><i>चलते चलते एक बात और--</i></b></span></span></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><span style="background-color: #fcff01;">जो सज्जन इस तवील [ लम्बे] रास्ते से नही जाना चाहते उनके लिए एक आसान रास्ता भी है माहिया के बह्र के बारे में } और वह यह है --<br /><br />पहली लाइन = <b>112---112---112-</b> <span> </span><span> = 12 मात्रा</span></span></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><span style="background-color: #fcff01;">दूसरी लाइन = <b>21--121--12</b><b> </b> = 10 मात्रा</span></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><span style="background-color: #fcff01;">तीसरी लाइन = <b>112--112--112</b><b> </b> = 12 मात्रा</span></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><span style="background-color: #fcff01;"><br /></span></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><span style="background-color: #fcff01;">और इसमे कोई भी दो ADJACENT 1 1 को 2 से कभी भी कहीं भी बदल सकते है </span></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><span style="background-color: #fcff01;"><br /></span></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><span style="background-color: #fcff01;">पहली और तीसरी लाइन हम क़ाफ़िया कर दें । बस माहिया हो गई</span></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
<br />
अस्तु<br />
<i><span style="color: red;">{</span></i><i><span style="color: purple; font-size: x-small;">नोट- असातिज़ा [ गुरुवरों ] से दस्तबस्ता गुज़ारिश है कि अगर कहीं कुछ ग़लतबयानी हो गई हो गई हो तो बराये मेहरबानी निशान्दिही ज़रूर फ़र्माएं ताकि मैं आइन्दा ख़ुद को दुरुस्त कर सकूँ --सादर ]</span></i><br />
<br />
<span style="color: red;">-आनन्द.पाठक-</span><br />
<span style="color: red;">Mb 8800927181ं</span><br />
<span style="color: red;">akpathak3107 @ gmail.com</span><br />
<br /></div>
आनन्द पाठकhttp://www.blogger.com/profile/00352393440646898202noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3287188401583659492.post-30329941935346063192024-02-13T19:19:00.002+05:302024-02-13T19:19:43.731+05:30उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त -70 -[ कसरा-ए-इज़ाफ़त और वाव-ए-अत्फ़ ]<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="color: red;"><b>उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त -70 -[ कसरा-ए-इज़ाफ़त और वाव-ए-अत्फ़ ]</b></span><br />
<span style="background-color: #fcff01;"><br />
<b style="color: #990000;">विशेष नोट = इस विषय पर और जानकारी के लिए क़िस्त 80 भी देख सकते है --</b></span></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><span style="color: #990000; font-size: x-small;"><b><br /></b></span>
<span style="color: red; font-size: x-small;"><i>[ यह बह्र का विषय तो नहीं है पर पाठकों की सुविधा के लिए और शायरी संबंधित जानकारी </i></span><br />
<span style="color: red; font-size: x-small;"><i>क़िस्तवार यकजा दस्य्तयाब हो सके ,इसीलिए इसे यहाँ पर लगा रहा हूँ --सादर ]</i></span><br />
<br />
आप ने उर्दू शायरी में दो या दो से अधिक अल्फ़ाज़ को जुड़े हुए इस प्रकार देखे होंगे<br />
<br />
[क] <span style="color: blue;"><span style="white-space: pre;"> </span>दर्द-ए-दिल --ग़म-ए-इश्क़---वहशत-ए-दिल ---पैग़ाम-ए-हक़---ख़ाक-ए-वतन---बाम-ए-फ़लक--जल्वा-ए-हुस्न-ए-अजल --जू-ए-आब---राह-ए-मुहब्बत---<span style="white-space: pre;"> </span>बहर-ए-बेकरां----कू-ए-उलफ़त--दर्द-ए-निहाँ --दिल-ए-नादां ---दौर-ए-हाज़िर -बर्ग-ए-गुल - बाद-ए-बहार---चिराग-ए-सहर ---शब-ए-फ़ुरक़त---रंग-ए-महफ़िल--दिले-नादां ----साहिब-ए-ख़ाना--</span> -<span style="color: #0b5394;">तीरगी-ए-वहम . क़द्र-ए-ज़ौक़ , ज़र्फ़-ए-तंगना-ए-ग़ज़ल . ग़म-ए-दिल ,, शोख़ी-ए-तहरीर .सोज़-ए-निहाँ, </span><span style="color: blue;">आतिश-ए-ख़ामोश ---</span>और ऐसे ही बहुत से ,हज़ारो अल्फ़ाज़</div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
[ख] <span style="color: blue;"> ज़ौक-ओ-शौक़ ----सूद-ओ-जियाँ----ख़्वाब-ओ-ख़याल ---जान-ओ-जिगर--बादा-ओ-ज़ाम ---आब-ओ-हवा ----आब-ओ-गिल ---शे’र-ओ-सुखन--<span style="white-space: pre;"> </span>शम्स-ओ-क़मर ----शैख़-ओ-बिरहमन---- दैर-ओ-हरम </span><br />
<br />
<span style="white-space: pre;"> </span>और ऐसे ही बहुत से ,हज़ारो अल्फ़ाज़<br />
<br />
पहले वाले ग्रुप को <span style="color: red;"><b>’कसरा-ए-इज़ाफ़त </b></span>’ कहते है<br />
दूसरे वाले ग्रुप को ’<span style="color: red;"><b>वाव-ओ-अत्फ़ ’</b></span> कहते हैं<br />
<br />
आज हम इन्हीं दो तराक़ीब [तरक़ीब का बहुवचन ] पर बात करेंगे<br />
इन दोनो तरक़ीबों से ग़ज़ल या शे’र की खूबसूरती बढ़ जाती है|</div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br /><div dir="ltr" trbidi="on"><b>’अरबी" </b>में -इस काम के लिए दूसरी तरकीब है । अरबी में दो शब्द को -अल’- या -उल- से जोड़ते है जैसे अब्द-उल अल्लाह [ अब्दुला ] शम्स-उल-रहमान [ शम्सुर्रहमान ] अज़ीम-उल शान [ अज़ीमुश्शान ] --इसका क़ायदा अलग है| इस पर कभी बाद में चर्चा करेंगे।</div><div><br /></div>
<br />
<span style="color: blue;"><i>हिंदी में या हिंदी ग़ज़ल में क़सरा-ए-इज़ाफ़त की ज़रूरत नहीं पड़ती कारण कि इस काम के लिए</i></span></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><span style="color: blue;"><i>’संबंध कारक </i></span><i style="color: blue;"> जैसे -का-- के--की का प्र्योग करते है</i><i style="color: blue;">शब्द पहले से ही है या फिर सामासिक शब्द [ समास वाले शब्द ] जैसे तत्पुरुष समास ,कर्मधारय बहुब्रीह- सामासिक शब्द --’आदि</i></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
दिल का दर्द ---दिल का ग़म------ख़ुदा का पैगाम--- वतन की मिट्टी---रूप की आभा---सुबह का दीया --जुदाई की शाम<br />
<br />
<span style="color: blue;"><i>अत्फ़ की जगह -और - का प्रयोग करते है या फिर ’द्वन्द-समास ’ का </i></span>।<br />
<br />
आग और पानी----चाँद और सूरज ---मन्दिर और मसजिद ---हानि और लाभ<br />
या फिर आग-पानी ---चाँद--सूरज----मन्दिर-मसजिद--हानि-लाभ ---जीवन-मरण--यश-अपयश --आदि<br />
<br />
हमारे बहुत से हिंदीदाँ दोस्त कभी कभी शे’र में या ग़ज़ल में -<b>और</b>- की जगह -औ’-- लिख देते हैं शायद बह्र या वज़न मिलाने के चक्कर में ।<br />
उर्दू में -औ’ - नाम की कोई चीज़ नहीं होती । आप शे’र में ’और’ ही लिखिए --बह्र में ---<b>और</b> --अपने आप वज़न ले लेगा ।<br />
<br />
सच पूछिए तो वस्तुत: यह ’दो-या दो से अधिक फ़ारसी- अल्फ़ाज़ " जोड़ने की तरक़ीब है । और यही तरक़ीब उर्दू वालों ने भी अपना लिया । चूँकि उर्दू में अरबी फ़ारसी तुर्की हिंदी के भी बहुत से शब्द समाहित हो्ते गए अत" ’फ़ारसी अल्फ़ाज़ ’ की शर्त दिन ब दिन खत्म होती गई ।अब उर्दू के कोई दो या दो से अधिक अल्फ़ाज़<span style="white-space: pre;"> </span>इसी तरक़ीब से जोड़े जाते हैं । अब तो कुछ लोग /..अरबी -अरबी- /अरबी -फ़ारसी के शब्द / यहाँ तक कि फ़ारसी-हिंदी शब्द जोड़ कर भी इज़ाफ़त करने लगे है आजकल । जब कि अरबी में दो शब्द जोड़ने का अलग निज़ाम है । ’अलिफ़-लाम’ का निज़ाम ।बाद में चर्चा करेंगे कभी इस पर ।ख़ैर<br />
<br />
कसरा-ए-इज़ाफ़त =इज़ाफ़त --इज़ाफ़ा शब्द से बना है जिसका शाब्दिक अर्थ होता है वॄद्धि या बढोत्तरी और उर्दू में जिसे ’ज़ेर’ कहते है अरबी में अरबी में उसे ’कसरा’ कहते है<br />
<span style="white-space: pre;"> </span>दोनों का काम एक ही है । ज़ेर माने-नीचे । उर्दू में किसी हर्फ़ को हरकत [यानी आवाज़ ,स्वर देने के लिए --ज़ेर--जबर--पेश के निशान लगाते है } ज़ेर -हर्फ़ के नीचे<br />
<span style="white-space: pre;"> </span>’ [ छोटा सा / का निशान ] लगाते है । नीचे लगाते है इसीलिए इसे उर्दू में -ज़ेर- और अरबी में -कसरा- कहते है । यह निशान पहले लफ़्ज़ के आखिरी हर्फ़ के नीचे लगाते है<br />
इस तरक़ीब में जोड़े जाने वाला <span style="color: blue;"><b>पहला लफ़्ज़ संज्ञा</b></span> [इस्म ] और <span style="color: blue;"><b>दूसरा शब्द भी संज्ञा</b></span> [ इस्म ]हो सकता है<br />
जैसे <span style="white-space: pre;"> </span><i><span style="color: purple;">साहिब-ए-ख़ाना</span></i><br />
<i><span style="color: purple;"><span style="white-space: pre;"> </span>ग़म-ए-इश्क़</span></i><br />
<i><span style="color: purple;"><span style="white-space: pre;"> </span>सरकार-ए-हिन्द</span></i><br />
या फिर <span style="color: red;"><b>पहला शब्द संज्ञा</b></span> [इस्म] और <b><span style="color: red;">दूसरा शब्द विशेषण</span></b> [ सिफ़त ] हो सकता है जैसे<br />
<span style="white-space: pre;"> </span><span style="color: purple;"><i>वज़ीर-ए-आज़म</i></span><br />
<span style="color: purple;"><i><span style="white-space: pre;"> </span>चश्म-ए-नीमबाज़</i></span><br />
<span style="color: purple;"><i><span style="white-space: pre;"> </span>दिल-ए-शिकस्ता</i></span><br />
<br />
<i><span style="color: purple;"> तरक़ीब जो भी हो --दूसरा लफ़्ज़ --पहले लफ़्ज़ को qualify or Modify करता है ।</span></i><br />
<br />
<span style="white-space: pre;"> </span> इसके भी लगाने और दिखाने के तीन नियम है ।<br />
नियम 1- उर्दू में दो शब्दो के जोड़ने में अगर पहले शब्द का आखिरी हर्फ़ [ अगर ’हर्फ़-ए-सही ’ है तो ] कसरा की अलामत ठीक उसी हर्फ़ के ’नीचे’ लगाते है ज़ेर की शकल में ।<br />
<br />
नियम 2- अगर उर्दू युग्म शब्द [ जुड़ने वाले दो-अल्फ़ाज़] के पहले शब्द का आख़िरी हर्फ़ अगर हर्फ़-ए-इल्लत का "अलिफ़’ और”वाव’ पर ख़त्म हो रहा है तो <span style="white-space: pre;"> </span>अलिफ़ और वाव के बाद हमज़ा [" ये’ ]का इज़ाफ़ा कर दिया जाता है । यानी हमज़ा का वज़न-1- जुड़ जाता है ।<br />
<br />
नियम 3-<span style="white-space: pre;"> </span>अगर उर्दू युग्म शब्द [ जुड़ने वाले दो-अल्फ़ाज़] के पहले शब्द का आख़िरी हर्फ़ अगर हर्फ़-ए-इल्लत -ई- से ख़त्म हो रहा हो तो अल्फ़ाज़ पर ’हमज़ा और कसरा ’ लगा कर इज़ाफ़त दिखाते हैं<br />
<br />
[ <i><span style="color: blue;">नोट - घबराइए नहीं । आप को हर्फ़-ए-सही , हर्फ़-ए-इल्लत यह सब जानने की ज़रूरत नहीं और न ही आप इन नियमों के बारे में परेशान हों ।वह तो बात निकली तो लिख दिया आप के विशेष जानकारी के लिए ।</span></i><br />
<i><span style="color: blue;"> हम हिंदी वाले ,ग़ज़ल उर्दू रस्म-उल ख़त [ लिपि ] में तो लिखते नहीं बल्कि ’देवनागरी लिपि’ में लिखते है । बस आप समझ लें कि -कसरा-ए-इज़ाफ़त -को -ए- से दिखायेंगे अपने कलाम में ।</span></i><br />
<br />
हिंदी में कसरा-ए-इज़ाफ़त दिखाने या लिखने का तरीका-<br />
<br />
आप ने [ देवनागरी लिपि में छपा ]अश’आर ज़रूर देखे होंगे। -- ऐसी तरक़ीब को कभी कभी ’रंगे-महफ़िल ’ --दर्दे-दिल ---ग़मे-दिल --जैसे दिखाते हैं<br />
और कहीं कहीं और कभी कभी इसी चीज़ को ; रंग-ए-महफ़िल ---- दर्द-ए-दिल ---ग़म-ए-दिल --के तरीक़े से भी दिखाते है ।<br />
तरीक़ा अलग अलग है मगर भाव और अर्थ में कोई फ़र्क़ नहीं है । यह व्यक्तिगत अभिरुचि ज़ौक़-ओ-शौक़ का सवाल है कि आप इसे कैसे लिख कर दिखाते हैं । इस [ - ] से ही पता चल जाता है कि<br />
यह शब्द ’पर कसरा इज़ाफ़त है और इस शब्द के आख़िरी हर्फ़ पर ’कसरा ’ [ यानी -ज़ेर- का निशान [अलामत ] लगा हुआ है ।<br />
<br />
वैसे जहाँ तक मेरा सवाल है मैं ’<b><i>ग़म-ए-दिल </i></b>’ वाली तरक़ीब ही पसन्द करता हूँ ।<br />
<br />
एक बात और ’जानेमन ’ जान-ए-मन ? या जाने-मन ? क्या ? आप बताए ?<br />
मैं तो यही बता सकता हूँ कि यहाँ -’मन-’ हिंदी वाला मन mood वाला मन नही बल्कि फ़ारसी वाला है -मन -मतलब -Me ,Mine वाला है यानी ’मेरी जान "<br />
अब बताइए ’ जानेमन ’ क्या ?<br />
ख़ैर<br />
कसरा ए-इज़ाफ़त और शे’र पर अमल<br />
आप को शायद याद हो [ ------याद हो कि न याद हो ] जब अर्कान की चर्चा कर रहे तो तो एक इस्तलाह [ परिभाषा] था --’सबब-ए-सक़ील का -" और -’सबब-ए-ख़फ़ीफ़ ’ का । वतद-ए-मफ़रूक़ का भी ज़िक्र आया था ।<br />
सबब-ए-सक़ील = यानी वो दो हर्फ़ी जुमला जिसमे दोनो हर्फ़ मुतहर्रिक हों । यानी दोनो हर्फ़ों पर कोई न कोई ’हरकत [ जबर--ज़ेर---पेश ] लगे हों<br />
मगर उर्दू ज़ुबान का मिज़ाज ऐसा कि उसके हर लफ़्ज़ का आख़िरी हर्फ़ ’साकिन’ होता है [ लफ़्ज़ का आख़िरी हर्फ़ का मुतहर्रिक नहीं होता } तो सबब-ए-सक़ील शब्द फिर कौन से होंगे जिसमें दोनों हर्फ़ हरकत वाले हों ?<br />
<br />
बस इसी मुक़ाम पर ’कसरा-ए-इज़ाफ़त ’ की ENTRY होती है । देखिए कैसे ?<br />
ग़म्-ए-दिल् --<br />
ग़म् [ 2 ] = म् -साकिन् है<br />
दिल् [2] = ल् -साकिन् है<br />
मगर जब ’ग़म-ए-दिल ’ पढ़ेंगे तो फिर -म्- पर एक हल्का सा वज़न आ जायेगा। हल्का ही सही एक भार [ सक़ील ] आ जायेगा -म्- के तलफ़्फ़ुज़ में फिर म् --साकिन न हो कर मुतहर्रिक का आभास देगा ।यानी<br />
ग़म-ए-दिल में -ग़म-- [ 1 1 ] माना जायेगा । इसी कसरा-ए-इज़ाफ़त की वज़ह से ।<br />
<br />
<br />
खाक्-ए-वतन् में<br />
ख़ाक् = में -क्- साकिन् है<br />
वतन् = में -नून् =-साकिन् है<br />
परन्तु<br />
ख़ाक-ए-वतन् = में -क- मुतहारिक् का आभास दे रहा है [ ख़ाक ----वतद-ए-मफ़रूक़= 2 1 ] इसी कसरा-ए-इज़ाफ़त की वज़ह से ।<br />
यही बात् ’ वाव् -ए-अत्फ़् ’ के साथ भी है ।<br />
जैसे<br />
आब-ओ-गिल [ पानी-मिट्टी ] देखें<br />
आब् = में -ब्- साकिन है<br />
गिल् =ल् -साकिन है<br />
परन्तु<br />
आब-ओ-गिल् = मे -ब- मुतहर्रिक् का आभास् देगा- अत्फ़् की तरक़ीब् के कारण् [ आब ----वतद्-ए-मफ़रूक़् 2 1 ] इसी अत्फ़ की वज़ह से ।<br />
<br />
<br />
एक दो शे’र देखते हैं तो बात और साफ़ हो जायेगी --<br />अल्लामा इक़बाल क का एक शे’र है । आप सबने सुना होगा --सितारों के आगे जहाँ और भी हैं -- ग़ज़ल । यह गज़ल <span style="color: red;">"बहर-ए-मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम</span>" में है<br />
यह भी आप जानते होंगे । यानी 122---122 -- 122 -- 122 में है ।<br />
<br />
<span style="color: red;"><i>कनाअत न कर आलम-ए-रंग-ओ- बू पर </i></span><br />
<span style="color: red;"><i>चमन और भी आशियाँ और भी हैं </i></span><br />
<span style="color: red;"><i><br /></i></span><span style="color: red;"><i>अगर खो गया इक नशेमन तो क्या ग़म </i></span><br />
<span style="color: red;"><i>मुक़ामात-ए-आह-ओ- फ़ुगाँ और भी हैं </i></span><br />
<br />
अब हम इसकी तक़्तीअ’ कर के देखेंगे कि ’इज़ाफ़त ’ और अत्फ़’ की क्या भूमिका होगी ।<br />
<br />
1 2 2 / 1 2 2 / 1 2 2 / 1 2 2<br />
<i><span style="color: blue;">कनाअत / न कर आ /ल म-ए -रं /ग- ओ- बू पर </span></i><br />
<i><span style="color: blue;">चमन औ /र भी आ शियाँ औ /र भी हैं </span></i><br />
<i><span style="color: blue;"><br /></span></i><i><span style="color: blue;">अगर खो /गया इक / नशेमन / तो क्या ग़म </span></i><br />
<i><span style="color: blue;">मुक़ामा /त-ए-आ ह-ओ-/ फ़ुगाँ औ/र भी हैं </span></i><br />
<br />
यहाँ पर -आलम-ए-रंग-ओ- बू को देखते हैं । इसकी तक़्तीअ /-ल मे रं / 1 2 2 / पर की गई है<br />
और -मुक़ामात-ए-आह-ओ- फ़ुगाँ की तक़्तीअ / त आ हो / 1 2 2 / के वज़न पर की गई है<br />
<br />
जानते हैं क्यों ?<br />
<br />
बह्र और रुक्न की माँग पर शायर को यह इजाजत है कि वह ’कसरा-ए-इज़ाफ़त’ वाले पहले अल्फ़ाज़ के आखिरी हर्फ़ को ’खींच कर [ इस्बाअ’ ] कर पढ़े या ’ खींच कर न पढ़े "<br />
उसी प्रकार "वाव-ओ-अत्फ़ ’ वाले पहले अल्फ़ाज़ के आख़िरी हर्फ़ को ’खींच कर [ इस्बाअ’ ] कर पढ़े या ’ खींच कर न पढ़े "<br />
एक बात और -मुक़ामात - में -त- तो साकिन है तो मुतहर्रिक क्यों लिया ?<br />
इसलिए कि -त- जिस मुकाम पर है शे’र में -वह मुक़ाम मुतहर्रिक [ फ़ ऊ लुन 1 2 2 में -फ़े- के मुकाम पर है और -फ़े-मुतहर्रिक है रुक्न में ] है और इस साकिन -त- को ]कसरा-ए-इज़ाफ़त ने उसे मुतहर्रिक कर दिया या मुतहर्रिक का आभास दे रहा है<br />
और -ते -खींच कर नहीं पढ़ा बल्कि -त- की वज़न पर पढ़ा ।<br />
<br />
उसी प्रकार आह-ओ-फ़ुगाँ में -ह- को खींच कर पढ़ा --हो - के वज़न पर । शायर की मरजी --शायर को इजाजत है ।<br />
यही बात आलम-ए-रंग के साथ है और रंग-ओ-बू के साथ है ---। वो मिला कर पढ़े या मिला कर न पढ़े --शायर की मरजी --शायर को इजाजत है ।<br />
<br />
<i><span style="color: red;">{</span></i><i><span style="color: purple; font-size: x-small;">नोट- असातिज़ा [ गुरुवरों ] से दस्तबस्ता गुज़ारिश है कि अगर कहीं कुछ ग़लतबयानी हो गई हो गई हो तो बराये मेहरबानी निशान्दिही ज़रूर फ़र्माएं ताकि मैं आइन्दा ख़ुद को दुरुस्त कर सकूँ --सादर ]</span></i></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><span style="color: purple; font-size: x-small;"><i><br /></i></span></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><span style="font-size: x-small;"><span style="background-color: #fcff01; color: #990000;"><b>विशेष नोट = इस विषय पर और जानकारी के लिए क़िस्त 80 भी देख सकते है --</b></span></span></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><span style="font-size: x-small;"><span style="color: #990000;"><b><br /></b></span></span></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><span style="font-size: x-small;"><b><span style="background-color: #fcff01; color: red;">REVISED AND REVIEWED ON 16-AUG-2021</span><br /></b></span>
<br />
<span style="color: red;">-आनन्द.पाठक-</span><br />
<span style="color: red;">Mb 8800927181</span><br />
<span style="color: red;">akpathak3107 @ gmail.com</span></div>
आनन्द पाठकhttp://www.blogger.com/profile/00352393440646898202noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-3287188401583659492.post-23096188312368867942024-02-13T19:19:00.001+05:302024-02-13T19:19:34.691+05:30उर्दू बहर पर एक बातचीत : क़िस्त 1 [ बह्र-ए-मुतक़ारिब ] <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<i><span style="font-size: x-small;"><span><span style="color: red;">[disclaimer clause </span>: <span style="color: red;">इस मज़्मून का कोई भी हिस्सा हमारा नहीं है और न ही मैने कोई नई चीज़ की खोज की है ।ये सारी चीज़े उर्दू के अरूज़ की किताबों में ब आसानी मिल जाती है । </span></span><span style="color: purple;">यह बात मैं इसलिए भी लिख रहा हूं कि बाद में मुझ पर सरक़ेह (चोरी) का इल्जाम न लगे</span><br />
<span style="color: blue;"></span><br />
<span style="color: blue;">[अपने हिन्दी दां दोस्तों की ख़ातिर अरूज़ पर मज़्मून [ आलेखों] का एक सिलसिला शुरु कर रहा हूं ,,,..जो ग़ज़ल कहने का शौक़ फ़र्माते हैं या जौक़-ओ- शौक़ [ काव्य रसिकता] फ़रमाते हैं, शायद वो लोग इस से कुछ मुस्तफ़ीद (लाभान्वित) हो सकें ।</span><br />
<span style="color: blue;">बा अदब....]</span></span></i></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><span style="color: blue;"><br /></span>
<span style="color: purple;"><i><b>न आलिम ,न मुल्ला ,न उस्ताद ’आनन’</b></i></span><br />
<span style="color: purple;"><i><b>अदब से मुहब्बत ,अदब आशना हूँ</b></i></span></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><span style="color: purple;"><b><i><br /></i></b></span>
<span style="color: red;"></span>
<i><span style="color: red;"> <span style="font-size: x-small;">ख़ुदा इस कारफ़र्माई की तौफ़ीक़ अता करे । </span></span><span style="font-size: x-small;"><br />
<span style="color: red;"><br /></span>
<span style="color: red;">य</span><span style="color: red;">दि कोई पाठकगण इन लेखों का या सामग्री का कहीं उपयोग करना चाहें तो नि:संकोच ,बे-झिझक प्रयोग कर सकते हैं अनुमति की आवश्यकता नहीं है ।</span><br />
</span><span style="color: red;"><span style="font-size: x-small;"> -आनन्द पाठक</span>-</span><span style="color: red;"> </span></i><br />
<div>
<i><span style="color: red;"> </span></i><i><span style="color: red;">-------------------------------------------------------------------</span></i></div>
<div style="text-align: center;">
<br /></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="background-color: #fcff01; color: red;"><b>क़िस्त 1 : बह्र-ए-मुतक़ारिब्</b></span></div><div style="text-align: center;"><span style="background-color: #fcff01; color: red;"><b><br /></b></span></div><div style="text-align: center;"><div style="text-align: left;">बुनियादी रुक्न ; फ़ऊलुन = <span style="font-family: Urdu Typesetting;"> </span><span style="font-family: "Urdu Typesetting";">فعولن </span></div><p class="MsoNormal"><span dir="RTL" lang="ER" style="font-family: "Urdu Typesetting"; line-height: 107%;"><o:p></o:p></span></p><p class="MsoNormal"><span dir="RTL" lang="ER" style="font-family: "Urdu Typesetting"; line-height: 107%;"><o:p></o:p></span></p>
<div style="text-align: left;"> अलामत : 1 2 2</div>
<b><br /></b></div>
<div style="text-align: center;">
<br /></div>
इस से पहले, उर्दू की सालिम बह्रों का ज़िक्र कर चुका हूं उसी में से एक लोकप्रिय बह्र है "<span style="background-color: #fcff01; color: red;"><b> बह्र-ए-मुतक़ारिब "</b></span> जिसका बुनियादी रुक़्न है ’फ़ ऊ लुन्’ [फ़े’लुन भी कहते हैं] और जिसे हम अलामती वज़्न 122. से दिखाते हैं । इसे 5-हर्फ़ी रुक्न भी कहते हैं ।यानी-- फ़े--ऐन--वाव--लाम--लुन = 5 हर्फ़]’ ।</div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />अरूज़ में पहले 7-हर्फ़ी अर्कान जैसे मुफ़ाईलुन [1222]-- फ़ाइलातुन [ 2 12 2] --मुसतफ़इलुन [ 2 2 1 2 ]</div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">मुतफ़ाइलुन [ 1 1 2 1 2 ] ---मफ़ाइ ल तुन [ 12 1 1 2 ] जो क्रमश: सालिम बह्र के बुनियादी अर्कान हैं [---<span style="background-color: #fcff01; color: #2b00fe;"><b>हजज़---</b> </span><span style="background-color: #fcff01; color: red;"><b>रमल --रज़ज -कामिल--वाफ़िर </b></span>-अमल में आईं । </div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">कहते हैं 5 हर्फ़ी अर्कान फ़े’लुन [1 2 2 ] और फ़ाइलुन [2 1 2 ] बाद में हिन्दी गीतों के माध्यम से वजूद में आई । और उसमें भी ,<b>फ़ाइलुन रुक्न [मुतदारिक बह्र]</b> ,अपेक्षाकृत मुतक़ारिब से पहले आई । ख़ैर जो भी हो--</div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br /></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">ये तमाम सालिम बह्र <b style="background-color: #fcff01;">सबब </b>(2- हर्फ़ी लफ़्ज़) और <span style="background-color: #fcff01;"><b>वतद </b></span>(3-हर्फ़ी लफ़्ज़) की आवॄति से बनती है । हिन्दी में ग़ज़ल कहने के लिए इस बह्र के बारे में अभी इतना ही जानना काफी है ।</div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
इससे पहले की हम <span style="color: red;"><b>बह्र-ए-मुतक़ारिब </b></span>पर बात करें , अरूज़ की कुछ बुनियादी परिभाषाओं पर बात कर लेते है जिससे आगे की बात समझने में आसानी होगी।</div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br /><i><span style="color: #cc0000;">
मुतहर्रिक हर्फ़ </span></i>= वह हर्फ़ जिस पर हरकात [ जबर--ज़ेर--पेश- ]लगे हों उसे मुतहर्रिक कहते हैं</div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br /><span style="color: red;"><i>
साकिन हर्फ़ </i></span> = वह हर्फ़ जिस पर कोई ’हरकत- न लगा हो ।यानी तलफ़्फ़ुज़ में शान्त हो --कोई हरकत न दी जाए ।<br />
<i><span style="color: blue;">उर्दू में हर लफ़्ज़ ;हरकत हर्फ़ से शुरु होता है यानी मुतहर्रिक से शुरु होता है और साकिन पर ख़त्म होता है । दूसरे शब्दों में उर्दू का कोई हर्फ़ ’साकिन’ से शुरु नहीं होता । किसी लफ़्ज़ के पहले हर्फ़ पर कोई न कोई ’हरकत’ [ यानी ज़बर ,जेर.पेश की ] हरकत ज़रूर होगी । अगर कोई हरकत दिखाई न गई हो तो ’जबर’ की हरकत तो ज़रूर होगी जो आम तौर पर दिखाया नहीं जाता। जैसे ’कमल’ --सफ़र--अदब -क़मर --यानी </span></i><i><span style="color: blue;">पहले हर्फ़ -क-स- अ--क़- पर ’जबर’ की हरकत है इसी कारण ऐसे हर्फ़’मुतहर्रिक’ कहलाते हैं - हरकत शुदा हर्फ़] </span></i></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><i><span style="color: blue;">हिंदी में </span></i></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><span style="color: blue; font-size: x-small;">क= क् + अ[स्वर] = आप क् [ हलन्त लगा हुआ -क-को साकिन समझ लें और स्वर युक्त -क- को मुतहर्रिक]</span></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><span style="font-size: x-small;"><span style="color: blue;">स = स् + अ[स्वर] = आप स् [</span><span style="color: blue;">हलन्त लगा हुआ-स- को साकिन समझ लें और स्वर युक्त -्स- को मुतहर्रिक]</span></span></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><span style="font-size: x-small;"><span style="color: blue;">क़= क़् +अ [स्वर ] = आप क़् [</span><span style="color: blue;">हलन्त लगा-क़- हुआ को साकिन समझ लें और स्वर युक्त -क़- को मुतहर्रिक]</span></span></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<i><span style="color: blue;"> <br />उसी प्रकार हरूफ़-ए-तहज्जी [ उर्दू हर्फ़ का वर्णमाला ] में हर हर्फ़ मूलत: साकिन होता है । हरकत [स्वर] तो बाद में देते हैं जब कोई लफ़्ज़ बनाते हैं ।</span></i></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><i><span style="color: blue;"><br /></span></i><span style="color: blue;">उर्दू लफ़्ज़ को या कलमा को अरूज़ के लिहाज़ से कई प्रकार से वर्गीकृत किया जा सकता है । जैसे--<i><span style="font-size: x-small;">सबब--वतद--फ़ासिला वग़ैरह ।</span></i></span><br />
<span><blockquote><span style="background-color: #fcff01; color: red;">सबब : -दो हर्फ़ी जुमला या कलमा को सबब कहते हैं ।</span></blockquote></span>उर्दू में सबब 2-क़िस्म की होती हैं ।<br />
<br />
<span style="background-color: #fcff01;"><b> <span style="color: blue;">(1) सबब-ए-ख़फ़ीफ़</span></b> </span> वज़्न 2</div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"> यानी वो दो हर्फ़ी जुमला या कलमा या लफ़्ज़ जिसमें पहला हर्फ़ [हरकत ] जिसे-मुतहर्रिक -कहते हैं दूसरा हर्फ़ [साकिन] हो जैसे अब्---तब्---कल्--गा--जा---वग़ैरह वग़ैरह। जिसमें पहला हर्फ़ -अ- त-क-ग-ज- आदि अरूज़ की भाषा में मुतहर्रिक है और दूसरा हर्फ़ -ब- ल-या अलिफ़्- साकिन है <br />।साकिन को आप संस्कृत का ’हलन्त वर्ण’ समझ लें । </div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">उसी प्रकार <br />
फ़ा---तुन्--लुन्---मुस्----तफ़्--- वग़ैरह ’सबब-ए-ख़फ़ीफ़’ का उदाहरण समझ सकते हैं।फ़ौरी सुविधा के लिए इसे संख्या की अलामत -2- से दिखाते हैं।<br /><i><span style="color: blue;"><br /></span></i><span style="background-color: #fcff01;"><b><span style="color: blue;">(2) सबब-ए-सकील</span></b> </span> वज़्न 2: </div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br /></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"> यानी वो दो हर्फ़ी जुमला , कलमा या लफ़्ज़ जिसमें पहला हर्फ़ [मुतहर्रिक ] और दूसरा हर्फ़ भी मुतहर्रिक हो।</div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">और आप जानते है कि उर्दू का हर लफ़्ज़ मुतहर्रिक से शुरु होता है और साकिन पर गिरता है यानी मुतहर्रिक पर नहीं गिरता ।तो उर्दू में ऐसा कोई लफ़्ज़ ही नहीं है जिसका आखिरी हर्फ "मुतहर्रिक" हो। तो फ़िर? <br />जी आप बिल्कुल सही हैं मगर फ़ारसी में ऐसी कुछ तरक़ीब है [जैसे ’<span style="color: red;">कसरा-ए-इज़ाफ़त या वाव-ए-अत्फ़ -जिसकी चर्चा बाद में करेंगे] </span> जिसके प्रयोग से इनके पहले आने वाले हर्फ़ पर पर ज़रा सा जोर आ जाता है या ज़ोर पड़ जाता है जिस से उस हर्फ़ पर ’हरकत’ [हल्का ही सही ] आ जाती है । यूँ दूसरा साकिन हर्फ़ मुतहर्रिक तो नहीं बन जाता मगर ’मुतहर्रिक -सा " आभास ज़रूर देता है ।<br />
यूँ तो अकेले लफ़्ज़ जैसे<br />
<br />दिल् = द--मुतहर्रिक् और् ल् साकिन्<br />ग़म् = ग़ -मुतहर्रिक् और म् साकिन्<br />दर्द् = पहला द-मुतह्र्रिक और दूसरा द्-साकिन</div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">जान् = ज- मुतहर्रिक और न्-साकिन</div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
---आदि के आख़िरी हर्फ़ -ल्- म्- द्- न् तो ’साकिन’ है पर जब हम इसे युग्म शब्द की तरह ’<span style="color: red;">कसरा-ए-इज़ाफ़त</span> या <span style="color: red;">वाव-ए- अत्फ़</span> लगा कर बोलेंगे तो यही हर्फ़ भारी आवाज़ की तरह [एक ठहराव] एक हरकत के साथ सुनाई देंगे जैसे<br />
<br />
ग़म-ए-दिल<br />
दिल-ए-नादान<br />
रन्ज़-ओ-ग़म<br />
रंग-ए-महफ़िल<br />
यानी :इज़ाफ़त’ अत्फ़ के ठीक पहले आने वाला ( यानी सामने वाला हर्फ) ’मुतहर्रिक ’ की सी feeling देगा<br />
इस स्थिति में<br />
ग़म [1 1] ---सबब-ए-सक़ील का वज़न देगा<br />
दिल[1 1 ]----तदैव-<br />
रंज़ [2 1 ] ---तदैव-<br />
रंग [2 1] -तदैव-<br />
<br />
<br />
वतद (वतद का जमा अवताद ) के 3 किस्में है<br />
(1) वतद-ए-मज़्मुआ वज़्न 12<br />
(2) वतद-ए-मफ़्रूक़ वज़्न 21<br />
(3) वतद-ए-मौक़ूफ़ वज़्न 111<br />
<br />
इन सब बुनियादी इस्तिहालात (परिभाषाओं) का ज़िक्र मुनासिब मुकाम पर समय समय पर करते रहेंगे.उर्दू स्क्रिप्ट् में यहां दिखाना तो मुश्किल है अभी तो बस इतना ही समझ लीजै कि ’सबब’ का वज़्न 2 या [1 1] और वतद का वज़्न (12) या (21) या 1 1 1 होता है<br />
<br /><b>
फ़ऊ</b> <i>लुन् </i><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>= वतद + सबब<br />
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>= (फ़े ऎन वाव )+ (लाम नून)<br />
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>= ( 1 2) +(2) [नोट करें ;-फ़े का वज़्न 1 और ऎन और वाव एक साथ लिखा और बोला जायेगा तो <span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>वज़्न 2)<br />
= 122 यह बह्र मुतक़ारिब की मूल रुक़्न है<br />
यह रुक़्न अगर किसी<br />
मिसरा में यही रुक्न 2 बार और शे’र में 4 बार आता है तो उसे </div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">बह्र-ए-मुतक़ारिब ’<b>मुरब्बा’ सालिम</b> कहेंगे (मुरब्बा=4)<br />
----- 3 बार ------- 6 बार आता है तो उसे बह्र-ए-मुतक़ारिब <b>’मुसद्दस’ सालिम </b>कहेंगे(मुसद्दस=6)<br />
--------- 4 बार .................8 बार आता है तो उसे बहर-ए-मुतक़ारिब <b>’मुस्समन’ सालिम </b>कहेंगे(मुसम्मन=8)<br />
<br />
-------- 8 बार ...............16 बार आता है तो इसे भी , मुस्समन’ ही कहते है बस उसमें ’मुज़ाइफ़’ लफ़्ज़.मुसम्मन से पहले.जोड़ देते है जिससे यह पता चले कि यह ’मुस्समन’ की दो-गुनी की हुई बहर है यानी <span style="background-color: #fcff01;">मुसम्मन मुज़ाइफ़</span><br />
खैर<br />
यह बह्र इतनी मधुर और आहंगखेज़ (लालित्य पूर्ण ) है कि इस बह्र में बहुत से शो’अरा नें बहुत अच्छी और दिलकश ग़ज़ल कहे हैं।</div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
खुमार बाराबंकी साहब की इसी बह्र में एक गज़ल है आप भी मुलाहिज़ा फ़र्मायें<br />
मत्ला पेश है<br />
<br /><span style="background-color: #fcff01;">
न हारा है इश्क़ और,न दुनिया थकी है<br />
दिया जल रहा है ,हवा चल रही है<br /></span>
<br />
्तक़्तीअ पर बाद में जाइएगा पहले इस शे’र की शे;रियत देखिए .क्या बात कही है ..इश्क़ और दुनिया ...दिया और हवा सब अपना अपना काम कर रहें है बग़ैर अन्जाम की परवाह किए बग़ैर<br />
<br />
खैर इसकी तक़्तीअ पर आते है<br />
<br /><span style="color: red;">
122 / 122 /122 /122</span><br /><b>
न हारा/ है इश्क़ और/न दुनिया/थकी है</b></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><b><br /></b><span style="color: red;">
122 /122/ 122 /122</span><br /><i><b>
दिया जल/रहा है/हवा चल/ रही है</b></i><br />
<br />
इसलिए कि अगर मिसरा को बह्र और वज़्न में पढना है तो ’है’ को दबा कर (मात्रा गिरा कर कि 1 का वज़्न आये) पर पढ़ना पढ़ेगा यानी मुतहर्रिक के तौर पर [ वैसे भी -है- मुतहर्रिक ही है ।<br />
[-"इश्क़ और '- को 122 के वज़न पर पढ़ना पड़ेगा यानी ’इश्क़’ को ’इश्’ +[क्+ और] में "और" को "अर’ की वज़न पर पढ़ना पड़ेगा जिससे -क् अलिफ़् के स्ंयोग् से -क- [ मुतहर्रिक् हो जाएगा और् -र्-तो साकिन है ही।</div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">अत: "इश्क़् और् " का वज़न 1 2 2 का ही आयेगा।<br />
<br />
एक बात और<br />
इस शे’र में 122 की आवॄति 8-बार हुई है(यानी एक मिसरा में 4 बार आया है) अत: यह मुस्समन(8) हुआ<br />
चूंकि 122 अपनी मूल स्वरूप (बिना किसी बदलाव के बिना किसी काट-छाँट के पूरा का पूरा ,गोया मुसल्लम)में हर बार रिपीट् हुआ अत्: यह "सालिम’ बहर हुआ<br />
अत: इस बहर का नाम -हुआ "<b>बहर-ए-मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम’</b><br />
चन्द अश’आर अल्लामा इक़बाल साहब के लगा रहा हूं बहुत ही मानूस(प्रिय) ग़ज़ल है<br />
<br />
<i><span style="color: red;">सितारों से आगे जहां और भी हैं</span></i><br />
<i><span style="color: red;">अभी इश्क़ के इम्तिहां और भी हैं</span></i><br />
<i><span style="color: red;"><br /></span></i><i><span style="color: red;">कनाअत न कर आलमे-रंगो-बू पर</span></i><br />
<i><span style="color: red;">चमन और भी आशियां और भी हैं</span></i><br />
<i><span style="color: red;"><br /></span></i><i><span style="color: red;">तू तायर है परवाज़ है काम तेरा</span></i><br />
<i><span style="color: red;">तिरे सामने आसमां और भी है</span></i><br />
<br />
इन अश’आर की शे’रिअत देखिए और महसूस कीजिए ..यहां काफ़िया की तुकबन्दी नहीं रदीफ़ का मिलान नहीं शे’र का वज़्न (गुरुत्व) और असरपज़ीरी [प्रभाव] देखिए और फिर देखिए की हम लोगों की गज़ल या शे’र कहां ठहरते हैं (ऐसी ग़ज़ल के मुक़ाबिल \<br />
अब इसके तक़्तीअ पर एक नज़र डालते हैं</div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br /><span style="color: red;">
122 /122 /122 /122<span> </span><span> </span><span> </span><span> = 122 -122--122--122</span></span><br /><b>
सितारों /से आगे /जहाँ औ /र भी हैं</b></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><b><br /></b></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><b>1 2 2 / 1 2 2 / 1 2 2/ 1 2 2 = 122--122--122--122<br />
अभी इश्/ क के इम्/ ति हाँ औ/ र भी हैं</b> (इश्क़ को ’इश् क’ की वज़न पर पढ़ें और ’इम्तिहां’ को ’इम’- ’ति’-हाँ- की वज़्न <span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>पर पढ़ें क्योंकि बहर की यहां पर यही माँग है)<br />
<br />
क़नाअत /न कर आ/लमे-रन् / ग बू पर [ यहाँ ग [ गाफ़ -अत्फ़् के कारण मुतहर्रिक हो गया ]<br />
चमन औ/र भी आ/शियां औ/र भी हैं<br />
<br />
तू तायर/ है परवा/ज़ है का/म तेरा<br />
तिरे सा/मने आ/समां औ/र भी हैं<br />
<br />
यहां भी ’से’ और ’है’ देखने में तो वज़न 2 का लगता है लेकिन इसे 1 की वज़्न पे पढ़्ना होगा(यानी मात्रा गिरा कर पढ़ना होगा) कारण कि बहर की यही मांग है यहां पे।यह भी बह्र-ए-मुत्क़ारिब मुसम्मन सालिम की मिसाल है कारण वही कि इस बह्र में भी सालिम रुक्न( फ़ ऊ लुन 122) शे’र में 8-बार (यानी मिसरा में 4-बार) प्रयोग हुआ है<br />
<br />
इसी सिलसिले में और इसी बहर में चन्द अश’आर इस ख़ादिम खाकसार का भी बर्दास्त कर लें<br />
122 /122 /122<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>/122<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span><br />
खयालों /में जब से/ वो आने/ लगे हैं<br />
122 /122 122 / 122<br />
हमीं ख़ुद /से ख़ुद को /बेगाने/ लगे हैं<br />
<br />
122 /122 /122 /122<br />
वो रिश्तों/ को क्या ख़ा/स तर्ज़ी/ह देते<br />
122 /122 /122 /122<br />
जो रिश्तों /को सीढ़ी /बनाने /लगे हैं<br />
<br />
122 /122 /122 /122<br />
अभी हम/ने कुछ तो /कहा भी /नहीं है<br />
122 / 122 /122/ 122<br />
इलाही / वो क्यों मुस् / कराने / लगे हैं (मुस्कराने =मुस कराने की तर्ज़ पे पढ़े)<br />
ये भी मुतकारिब मुसम्मन सालिम बह्र है<br />
<br />
<br />
कई पाठकों ने लय (आहंग) पर भी समाधान चाहा है.कुछ लोगों की मानना है कि अगर लय (आहंग) ठीक है तो अमूमन ग़ज़ल बहर में होगी। मैं इस से बहुत इत्तिफ़ाक़ (सहमति) नहीं रखता ,मगर हां,अगर ग़ज़ल बह्र में है तो लय में ज़रूर होगी ।कारण कि रुक्न और बह्र ऐसे ही बनाये गयें हैं कि लय अपने आप आ जाती है ’फ़िल्मी गानों में जो ग़ज़ल प्रयोग किए गये हैं उसमें लय भी है ..सुर भी है..ताल भी है ..तभी तो दिलकश भी है<br />
उदाहरण के लिए फ़िल्म का एक गीत लेता हूँ आप सब ने भी सुना होगा इसकी लय भी सुनी होगी इसका संगीत भी सुना होगा(फ़िल्म "कश्मीर की कली का एक .गाना है]<br />
<br />
<span style="color: red;"><i>इशारों इशारों में दिल लेने वाले ,बता ये हुनर तूने सीखा कहां से</i></span><br />
<span style="color: red;"><i>निगाहों निगाहों से जादू चलाना ,मेरी जान सीखा है तूने जहाँ से</i></span><br />
<br />
अब मैं इस की तक़्तीअ कर रहा हूं<br />
122 /122 / 122 / 122 / 122 / 122 /122 /122<br />
इशारों /इशारों/ में दिल ले /ने वाले /,बता ये/ हुनर तू/ने सीखा /कहां से<br />
122 /122 /122 /122 / 122 / 122 / 122 /122<br />
निगाहों /निगाहों /से जादू /चलाना ,/मेरी जा/न सीखा/ है तूने /जहाँ से<br />
<br />
जब आप ये गाना सुनते हैं तो आप को लय कहीं भी टूटी नज़र नही आती...क्यो?<br />
क्यों कि यह मतला सालिम बहर में है और सही वज़न में हैं<br />
यहां ’में’ ’नें’ ’से’ मे’ ’है’ देखने में तो वज़न 2 लगता है लेकिन बहर का तक़ाज़ा है कि इसे 1-की वज़न में पढ़ा जाय वरना सुर -बेसुरा हो जायेगा..वज़न से ख़ारिज़ हो जायेगा (इसी को उर्दू में मात्रा गिराना कहते हैं) मेरी को ’मिरी’ पढ़ेंगे इस शे’र में<br />
ऐसा भी नहीं है कि जहाँ आप ने ’में’ ’नें’ ’से’ मे देखी मात्रा गिरा दी ,वो तो जैसे ग़ज़ल की बह्र मांगेंगी वैसे ही पढ़ी जायेगी<br />
ऊपर के गाने में रुक़्न शे’र में 16-बार यानी मिसरा में 8-बार प्रयोग हुआ है अत: यह 16-रुकनी शे’र है मगर है मुस्समन ही<br />
अत: इस पूरी बहर का नाम हुआ,.....बहर-ए-मुक़ारिब मुइज़ाफ़ी मुसम्मन सालिम<br />
आप भी इसी बहर में शे’र कहें ..शायद कुछ बात बने..(शे’र<br />
<br />
<br />
अभी हम ’बह्र-ए-मुतक़ारिब’ सालिम पर ही चर्चा करेंगे जब तक कि ये बह्र आप के ज़ेहन नशीन न हो जाय। इस बह्र के मुज़ाहिफ़ (रुक्न पे ज़िहाफ़ ) शक्ल की चर्चा बाद में करेंगे<br />
यह ज़रूरी नहीं कि आप ’मुसम्मन’सालिम (शे’र मे 8 रुक्न) में ही ग़ज़ल कहें<br />
आप चाहें तो मुसद्द्स सालिम (शे’र में 6 रुक्न) में भी अपनी बात कह सकते है<br />
मैं मानता हूँ कि मुरब्ब सालिम (शे’र में 4 रुक़्न) में अपनी बात कहना मुश्किल काम है मगर असम्भव नहीं है अभी तक इस शक्ल के शे’र मेरी नज़र से गुज़रे नहीं है.अगर कभी नज़र आया तो इस मंच पर साझा करुंगा<br />
मगर बह्र-ए-मुतक़ारिब की मुसम्मन शक्ल इतनी मानूस (प्रिय) है कि अज़ीम शो’अरा (शायरों) ने इसी शक्ल में बहुत सी ग़ज़ल कही है। मैं इसी बहर की यहां 1-ग़ज़ल लगा रहा हूँ। यहां लगाने का मक़सद सिर्फ़ इतना है कि लगे हाथ हम-आप शे’र की मयार (स्तर) और उसके शे’रियत के bench mark से भी वाकिफ़ होते चलें और यह देखें कि हमें इस स्निफ़ (विधा) में और मयार में कहाँ तह जाना है ।तक़्तीअ आप स्वयं कर लीजिएगा .एक exercise भी हो जायेगी<br />
<br />
अल्लामा इक़बाल साहब की एक दूसरी ग़ज़ल लगा रहा हूं ।आप ग़ज़ल पढ़े नहीं सिर्फ़ गुन गुनायें और दिल में महसूस करें<br />
<br />
इसकी बुनावाट देखिए ,मिसरों का राब्ता(आपस में संबन्ध) देखिए अश’आर की असर पज़ीरी(प्रभाव) देखिए और इसका लय (आहंग) देखिए और फिर लुत्फ़ अन्दोज़ होइए<br />
<br />
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>122/122//122/122<br />
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span><span style="color: red;"><i>तिरे इश्क़ का इंतिहा चाहता हूँ</i></span><br />
<span style="color: red;"><i><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>मिरी सादगी देख ,क्या चाहता हूँ</i></span><br />
<span style="color: red;"><i><br /></i></span><span style="color: red;"><i><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>सितम हो कि हो वादा-ए-बेहिजाबी</i></span><br />
<span style="color: red;"><i><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>कोई बात सब्र आज़मा चाहता हूँ</i></span><br />
<span style="color: red;"><i><br /></i></span><span style="color: red;"><i><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>ये जन्नत मुबारक रहे ज़ाहिदों को</i></span><br />
<span style="color: red;"><i><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>कि मैं आप का सामना चाहता हूँ</i></span><br />
<span style="color: red;"><i><br /></i></span><span style="color: red;"><i><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>ज़रा-सा तो दिल हूँ मगर शोख़ इतना</i></span><br />
<span style="color: red;"><i><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>वही लनतरानी सुना चाहता हूँ</i></span><br />
<span style="color: red;"><i><br /></i></span><span style="color: red;"><i><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>कोई दम का मेहमां हूं ऎ अहले-महफ़िल</i></span><br />
<span style="color: red;"><i><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>चिराग़े-सहर हूँ बुझा चाहता हूँ</i></span><br />
<span style="color: red;"><i><br /></i></span><span style="color: red;"><i><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>भरी बज़्म में राज़ की बात कह दी</i></span><br />
<span style="color: red;"><i><span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>बड़ा बेअदब हूँ सज़ा चाहता हूँ</i></span><br />
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नोट : इश्क़ को ’इश् क (2/1) की वज़न में पढ़े<br />
’इन्तिहा’ को इन् तिहा (2/12) की वज़्न् पे पढ़ें<br />
<br />
वादा-ए-बेहिजाबी =पर्दा हटाने का वादा<br />
लनतरानी =शेखी बघारना<br />
चिराग़-ए-सहर =भोर का दीपक<br />
---------------------------<br />आप कोशिश करेंगे तो आप भी इस बह्र में शायरी कर सकते हैं।</div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
<i><span style="color: purple;">[नोट- असातिज़ा [ गुरुवरों ] से दस्तबस्ता गुज़ारिश है कि अगर कहीं कुछ ग़लतबयानी हो गई हो तो बराये मेहरबानी निशान्दिही ज़रूर फ़र्माएं ताकि मैं आइन्दा ख़ुद को दुरुस्त कर सकूँ --सादर ]</span></i><br />
<br />
-आनन्द.पाठक-<br />
Mb 8800927181ं<br />
akpathak3107 @ gmail.com</div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br /></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><span style="background-color: #fcff01; color: red;"><b>[Reveiwed by Sri Ram Awadh Vishwakarma ji </b></span></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><span style="background-color: #fcff01; color: red;"><b> on 26-09-21]</b></span><br />
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आनन्द पाठकhttp://www.blogger.com/profile/00352393440646898202noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-3287188401583659492.post-91282569729017820472023-05-21T11:26:00.006+05:302023-05-22T10:46:48.037+05:30उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त :84 : 8-हर्फ़ी अर्कान पर एक चर्चा<p> </p><blockquote style="border: none; margin: 0px 0px 0px 40px; padding: 0px;"><p style="text-align: left;"><b>8-हर्फ़ी अर्कान : एक बातचीत</b></p></blockquote><p>हम अरूज़ और बह्र में 5-हर्फ़ी सालिम अर्कान और 7- हर्फ़ी सालिम अर्कान देख चुके हैं। यानी </p><p><b>5-हर्फ़ी सालिम अर्कान</b> :- फ़ऊलुन [122} और फ़ाइलुन [ 212 ]</p><p><b>7- हर्फ़ी सालिम अर्कान </b>: मफ़ाईलुन [1222]---- फ़ाइलातुन [ 2122]---मुसतफ़इलुन [2212]---मुतफ़ाइलुन [ 1 1 2 1 2] ---मुफ़ाइलतुन [ 1 2 1 1 2 ] ---मफ़ऊलातु [ 2 2 2 1 ] </p><p>यानी 5-हर्फ़ी सालिम अर्कान की संख्या = 2</p><p>और 7- हर्फ़ी सालिम अर्कान की संख्या = 6</p><p>कुल मिला कर 8 सालिम अर्कान है मगर सालिम बह्र सात ही बनती है---कारण आप जानते होंगे।</p><p>आप यह भी जानते होंगे कि यह सारे सालिम अर्कान -सबब -[ दो हर्फ़ी कलमा] और वतद [ 3-हर्फ़ी कलमा ] के Specific arrangment से मिल कर बनते है |</p><p>ये सालिम अर्कान कैसे बनते है--सबब और वतद क्या होते हैं, इसके लिए इसी ब्लाग के पुराने अक़्सात देख सकते है। यहाँ दुहराना उचित नहीं।</p><p>मगर</p><p><b>अरूज़ में 8- हर्फ़ी सालिम अर्कान का भी ज़िक्र मिलता है</b>। </p><p>जनाब कमाल अहमद सिद्दीक़ी साहब की लोकप्रिय किताब " <b style="background-color: #fcff01;">आहंग और अरूज़</b>" में इन 8-हर्फ़ी सालिम </p><p>अर्कान का ज़िक्र है ।आज हम इन्ही सालिम अर्कान पर चर्चा करेंगे। यह बात और है कि इन अर्कान का ज़िक्र अरूज़ की किसी और किताब में नही मिलता या न ही मेरी नज़र से गुज़रा । इन अर्कान में ज़दीद शायरॊ को शायरी करते भी नहीं देखा या किसी ने किया भी होगा तो बहुत कम । अत: ये 8-हर्फ़ी अर्कान प्रचलन में न आ सके।मगर अरूज़ के उसूलों के मुताबिक़ ये अर्कान Technically वज़ूद में आ सकते हैं ।</p><p>ऎसे 6-सालिम अर्कान बन सकते है । और ये अर्कान भी एक सबब [2-हर्फ़ी कलमा } और दो वतद [ 3-हर्फ़ी कलमा] के specific arrangement से ही बनते हैं। </p><p><b style="background-color: #fcff01;">[1] मफ़ाइलातुन </b><span style="white-space: pre;"> </span><span style="color: #2b00fe;">[1 2 1 2 2 ] = 8-हर्फ़=वतद-ए-मज्मुआ’[1 2]+ वतद-ए-मज्मुआ’ [1 2] + सबब-ए- ख़फ़ीफ़ [2] = बह्र-ए-जमील [ यह नाम सिद्दीक़ी साह्ब का दिया हुआ है]</span></p><p><b style="background-color: #fcff01;">[2] मुफ़ त ऊ ल तुन </b><span style="white-space: pre;"> </span><span style="color: #2b00fe;">[ 2 1 2 1 2 ]= 8-हर्फ़= सबब-ए-ख़फ़ीफ़[2] + वतद-ए-मज्मुआ’[1 2]+ वतद-ए-मज्मुआ’ [1 2] = बह्र-ए- ख़लील [ - Do-]</span></p><p><b style="background-color: #fcff01;">[3] मफ़ाईलतुन</b><span style="white-space: pre;"><b style="background-color: #fcff01;"> </b> </span><span style="color: #2b00fe;">[ 1 2 2 1 2 ] = 8 हर्फ़ = वतद-ए-मज्मुआ’[1 2]+सबब-ए-ख़फ़ीफ़[2] + वतद-ए-मज्मुआ’ [1 2] = बह्र-ए-शमीम [ -Do ]</span></p><p><span style="color: #2b00fe;">------</span></p><p><b style="background-color: #fcff01;">[4] म फ़ा ई ला तु </b><span style="white-space: pre;"> </span><span style="color: #660000;">[ 1 2 2 2 1 ] = 8- हर्फ़ =वतद-ए-मज्मुअ’[1 2]+सबब-ए-ख़फ़ीफ़ [2] +वतद-ए-मफ़रुक़ [ 2 1] = इससे कोई सालिम बह्र नहीं बनती -कारण आप लोग जानते होंगे</span></p><p><b style="background-color: #fcff01;">[5] मुस तफ़अ’ ल तुन</b> <span style="white-space: pre;"> </span><span style="color: #990000;">[ 2 2 1 1 2 ] = 8- हर्फ़ = सबब-ए-ख़फ़ीफ़[2]+ वतद -ए-मफ़रूक़ [2 1] +वतद-ए-मज्मूअ’[1 2]= बह्र-ए-कसीर [ यह नाम सिद्दीक़ी साह्ब का दिया हुआ है]</span></p><p><b style="background-color: #fcff01;">[6] मुफ़ त इला तुन</b> <span style="white-space: pre;"> </span><span style="color: #990000;">[ 2 1 1 2 2 ] = 8-हर्फ़ = वतद-ए-मफ़रूक़[2 1 2]+वतद-ए-मज्मुअ’[3] + सबब-ए-ख़फ़ीफ़ [2] = बह्र-ए-निहाल [ -Do- ] </span></p><p><br /></p><p><i><u>[ नोट - 7-हर्फ़ी अर्कान और 8-हर्फ़ी अर्कान में बेसिक फ़र्क यह है कि</u></i></p><p>[क]<span style="white-space: pre;"> </span><b>7- हर्फ़ी अर्कान</b> मे -बस <b style="background-color: #fcff01;">एक ही वतद +दो सबब </b>होता है और इसी दोनो सबब को वतद के आगे -पीछे घुमाते रहते है और नए-नए अर्कान बरामद होते रहते है। जबकि </p><p>[ख] <b> 8-हर्फ़ी अर्कान मे</b> <span style="color: #2b00fe;"><b>दो वतद + एक सबब -ए-ख़फ़ीफ़ </b></span>होता है और वतद को इसी सबब के आगे-पीछे घुमाते रहते है और नए नए अर्कान बरामद होते है</p><p><i>एक दिलचस्प बात -- सबब का एक अर्थ ’रस्सी" भी होता है और वतद का अर्थ "खूँटा" भी होता है । रस्सी -खूटॆ से भी अर्कान की बुनावट समझी जा सकती है।</i></p><p><span style="color: red;">उ<b>न्होने [1]-[2]-[3]</b> </span> अर्कान ग्रुप को जनाब ख़्वाजा नसीरुद्दीन तौसी के नाम से मन्सूब कर - इस दायरे को "<span style="color: #2b00fe;">दायरा-ए-तौसिया" का नाम दिया </span></p><p><span style="color: red;"><b>और [4]-[5]-[6 ] </b></span> अर्कान ग्रुप को जनाब शेख मुहम्मद इब्राहिम ’ज़ौक,’ के नाम से मन्सूब कर इस दायरे को "<span style="color: #2b00fe;">दायरा-ए-इब्राहिम"</span> का नाम दिया</p><p>जैसे अन्य सालिम अर्कान पर ज़िहाफ़ात का अमल होता है वैसे इन सालिम अर्कान पर भी ’ज़िहाफ़ात" का अमल होगा। यह एक अलग विषय है। सिद्द्क़ी साहब ने अपनी उक्त किताब में इन सालिम अर्कान पर ज़िहाफ़ का अमल कर के दिखाया भी है और खुद साख़्ता अश;आर बना कर इन अर्कान का प्रयोग कर के और तक़्तीअ’ कर के भी दिखाया है।</p><p>सवाल यह उठता है कि जब यह अर्कान अरूज के नियमानुसार वज़ूद में आ सकता है तो इस पर शायरी क्यॊं नहीं की जा सकती?</p><p> जी ज़रूर की जा सकती है अगर आप कर सकते हों तो। मनाही तो नहीं है।</p><p>मगर यह बह्र[ अर्कान] प्रचलन में नहीं है । न जाने क्यॊं शायरों ने इन बहूर में शायरी क्यो नहीं की?</p><p>एक कारण यह भी हो सकता है कि इन अर्कान में दो दो मुतह्र्रिक [ यानी 1 1 ] हर रुक्न में आ रहे हैं और हर बार कुछ लफ़्ज़ का वज़न गिरा गिरा कर -1- के वज़न पर पढ़ना पड़ेगा शे’र या ग़ज़ल में बार बार वज़न गिराना चूँकि अच्छा नहीं मानते है । हो सकता है शायद शोंअरा इन्ही कारणो से इन अर्कान से गुरेज करते हों।</p><p>7- हर्फ़ी रुक्न में भी <i>बह्र-ए-कामिल और बह्र-ए- वाफ़िर</i> के अर्कान में भी दो 1- 1 आते है --। बह्र-ए-वाफ़िर में तो ख़ैर कोई शायरी नही करता , ग़ालिब ने तो बहर-ए-कामिल में भी कोई ग़ज़ल नहीं कही है । हाँ ,बह्र-ए-कामिल में कई लोग शायरी करते है मगर वहाँ भी कई शब्दों का वज़न -2- पर होते हुए भी -1- पर गिराना पड़ता है --और मुश्किल पेश आती है।</p><p>ख़ैर</p><p>बह्र का वज़ूद में होना और बात है प्रचलन में होना और बात है । बहुत से बह्र ऐसे भी है [ जैसे--मदीद--बसीत--क़रीब-सरीअ’--जदीद--आदि] जो अस्तित्व में तो हैं मगर लोग कम या नहीं के बराबर ही इन बहरों में शायरी करते है।</p><p>ख़ैर <br />बह्रें तो सैकड़ॊ [ सालिम--मिरक़्कब--मुज़ाहिफ़--मुज़ाअ;फ़ आदि मिला कर ] हो सकती हैं मगर हर शायर हर बह्र में शायरी करत भी नही । हर शायर अपनी ख़ास पसन्दीदा बहर में ही शायरी करता है जैसे ग़ालिब ने लगभग 20 बह्रों में शायरी की तो मीर ने लगभग 30 बह्रों में अपने कलाम पेश किए हैं।</p><p>अरूज़ियों ने इन 8-हर्फ़ी अर्कान और बह्रों को कोई ख़ास मान्यता नही दी । उनका कहना है कि ये अर्कान -तो 7- हर्फ़ी अर्कान पर ज़िहाफ़ लगाने से भी हासिल हो जाते है </p><p><b>जैसे मफ़ाइलातुन [ 1 2 1 2 2 ]</b> [ऊपर देखें] -- यही अर्कान <span style="color: red;">बह्र-ए-मुक्तज़िब </span>में ज़िहाफ़ के अमल से भी बरामद होते है जैसे</p><p><i>121--22 /121--22/ 121--22 /121--22</i></p><p>अब </p><p><b>मुस तफ़अ’ ल तुन [ऊपर देखें [ 2 2 1 1 2 ] </b> को ही लें </p><p>यही अर्कान बह्र-ए-मुतदारिक [212] पर खब्न का ज़िहाफ़ + तस्कीन-ए-औसत के अमल से भी बरामद हो सकता है जैसे--</p><p><b>22--112 / 22--112/ 22--112 /</b></p><p>नज़ीर अकबराबादी की मशहूर नज़म " टुक हर्स-ओ-हवा को छोड़ मियाँ----जब लाद चलेगा बंजारा " इसी मुज़ाहिफ़ बह्र में है।</p><p> अन्य लोगों ने भी इस बह्र में शायरी भी की है। जब Existing बह्र से ही काम चल जाता है तो 8-हर्फ़ी अर्कान वाले बह्र के लिए इतनी माथा पच्ची क्यों?</p><p>लेख लम्बा और दुरुह न हो जाए अत: आज इतना ही काफी है। आइन्दा और ’टापिक’ पर चर्चा करेंगे।</p><p>सादर</p><p><i><span style="color: red;">[Disclaimer Clause यह लेख कमाल अहमद सिद्दीक़ी साहब की अरूज़ की किताब- आहंग और अरूज़- पर आधारित है। असातिज़ा से दस्तबस्ता गुज़ारिश है कि इस चर्चा में </span></i><i><span style="color: red;">कुछ ग़लत बयानी हो गई हो तो निशान्दिहि ज़रूर फ़रमाएँ कि मैं आइन्दा ख़ुद को दुरुस्त कर सकूँ।</span></i></p><p><i><span style="color: red;">सादर</span></i></p><p>-आनन्द.पाठक-</p><p><br /></p><p><br /></p>आनन्द पाठकhttp://www.blogger.com/profile/00352393440646898202noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-3287188401583659492.post-1950119674326936402023-05-04T11:43:00.002+05:302023-05-04T11:43:22.841+05:30उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 83 : - उर्दू शायरी में मात्रा पतन के बारे में कुछ बातें-<p> \</p><p><span style="background-color: #fcff01; white-space: normal;"><b><span style="white-space: pre;"> </span>- उर्दू शायरी में मात्रा पतन के बारे में कुछ बातें-</b></span></p><p><br /></p><p>किसी मंच पर एक बहस चल रही थी कि -नाबीना-- का वज़न क्या - 221 -लिया जा सकता है? सद्स्यॊं ने अपने अपने विचार प्रगट किए मैने भी किया।</p><p>जिसमें मैने कहा था कि -- नाबीना--शब्द के आख़िर मे हर्फ - नून और अलिफ है और अलिफ नून की आवाज को खींच कर -ना(2)-</p><p> की पूरी आवाज दे रहा है खुल कर आवाज दे रहा है। अत: -नाबीना- को 222 के वज़न पर लेना उचित होगा।</p><p>एक सदस्य/सदस्या का कहना था कि तब -दीवाना--परवाना --जैसे शब्द का वज़न भी 222 लेना चाहिए ।</p><p>जिस पर मैने कहा ---नहीं। ऐसा नहीं है।</p><p>यह आलेख उसी सन्दर्भ में लिखा गया है ।</p><p>जिन्हे उर्दू शायरी या ग़ज़ल ,शे’र-ओ-सुखन का शौक़ है उन्हें थोड़ा बहुत उर्दू अल्फ़ाज़ और क़वायद से भी परिचित होना चाहिए।</p><p>थोड़ी बहुत जानकारी हो तो बेहतर और नही भी हो तो कोई ख़ास बात नही</p><p>ख़ैर</p><p>1- पहली बात तो यह कि हिंदी में मात्रा पतन का कोई अवधारणा नहीं है ।हिंदी में जैस बोलते हैं वैसा लिखते हैं वैसा पढ़ते हैं</p><p>मगर उर्दू में ऐसा नहीं है । उर्दू में कुछ शब्द का इमला [ मक़्तूब] कुछ होता है तलफ़्फ़ुज़ [ मल्फ़ूज़] कुछ होता है ।</p><p>2- उर्दू शायरी -तलफ़्फ़ुज़- के आधार पर चलती है। मात्रा-पतन नाम की कोई चीज़ यहाँ भी नही है --बस सारा खेल शब्द के-तलफ़्फ़ुज़-</p><p>का है कि बह्र और वज़न की माँग पर किस हर्फ़ को दबा कर पढ़ना है /गिरा कर पढ़ना है --जिसे हम मात्रा-पतन कहते हैं या समझते हैं</p><p>3- हमारी राय में --किसी शे’र में मात्रा कम से कम गिरानी पड़े तो अच्छा और न गिरानी पड़े तो बहुत अच्छा। , शे’र की रवानी बनी रहती है।</p><p>4- वज़न गिराने का मसला हमेशा शब्द के आख़िरी हर्फ़ पर ही आता है --बीच के हर्फ़ पर नहीं।</p><p>मतलब आख़िरी हर्फ़ कों खींच कर पढ़ना है -यानी -2- पर पढ़ना या दबा कर पढ़ना है यानी -1- पर पढना है।</p><p><br /></p><p>अब मूल प्रश्न पर आते हैं--क्यों दीवाना--परवाना--आइना--क़रीना--ज़माना जैसे शब्द का -ना--कभी -1- के वज़न पर लेते हैं कभी -2- के वज़न पर लेते हैं ?</p><p>जो उर्दू स्क्रिप्ट [ रस्म उल ख़त] से वाक़िफ़ है वो जानते है कि इन तमाम शब्दो के अन्त में हा-ए-हूज़ अपनी मुख़्तफ़ी शकल में शामिल है।</p><p>[ घबराइए नहीं मैं हा-ए-हूज़ और उसकी मुख़्तफ़ी शकल के बारे में स्पष्ट कर दे रहा हूँ]</p><p>हिंदी में -ह- के लिए एक ही वर्ण और एक ही आवाज़ है मगर उर्दू में -ह- के लिए दो हर्फ़ है</p><p>[1] बड़ी हे -- [ जिसे हाए हुत्ती भी कहते है जैसे--तरह- सरह में लिखे जाते हैं या आते है</p><p>[2] छोटी हे- [ जिसे हाए हूज़ भी कहते है।] जैसे निगाह--राह--तबाह--जैसे हज़ारो शब्दों के अन्त में आते है</p><p><span style="white-space: normal;"><span style="white-space: pre;"> </span>सारा खेल इसी छोटी -हे- [ हाए हुव्वज़ ] का है</span></p><p>यदि यह -हे- शब्द के आख़िर में independently आए जिसे हाए-असली भी कहते है तो यह -हे- अपनी पूरी आवाज़ देगा जैसे ऊपर -राह--निगाह--तबाह में आता है और इसका वज़न -1-</p><p>लिया जायेगा।</p><p>मगर यही -हे-जब अपने पहले वाले हर्फ़ के साथ वस्ल हो जाता है [तब इसे हाए वस्ली भी कहते हैं और अपने से पहले वाले हर्फ़ के साथ "मुख्तफ़ी"[ यानी इस -हे- की आवाज़ ख़फ़ीफ़ [छोटी] हो जाती है </p><p>आप इसे यूँ समझिए कि इस प्रकार के- हे-की आवाज़ अपने पहले वाले हर्फ़ के साथ ’खप’ जाती है </p><p>जैसे --दीवान: -परवान:--आइन:--करीन:-- जमान: तब -न- का वज़न -1- का देगा</p><p>मगर</p><p>इसी छोटी हे- कॊ अगर खींच कर पढ़ेंगे तो यही -हे- आवाज़ --आ-- [ अलिफ़ मद] की तरह सुनाई देगा यानी -2- का वज़न सुनाई देगा</p><p>तब यह दीवान: -परवान:--आइन:--करीन:-- जमान: आप को -दीवाना--परवाना--आइना--क़रीना--ज़माना का -न- 2 के वज़न पर सुनाई देगा</p><p>इसी लिए ऐसे शब्द बह्र की माँग के अनुसार ऐसे शब्दों के -ना- कभी -1- कभी-2- के वज़न पर लेते हैं</p><p><br /></p><p>दरअस्ल -शब्द -जगह- में यही हाए-हूज़ मुख़्तफ़ी यानी -ग- के साथ ’खप’ गया है जो खींच कर पढ़ने से-जगा- हो गया जो अलिफ़ क़ाफ़िए के मुक़ाबिल लाया गया था</p><p>जो अज़-रु-ए-अरूज़ दुरुस्त है।</p><p>अच्छा एक बात और0---</p><p>जब ऐसी -हे- खींच कर पढ़ने से जब -आ- की आवाज़ आ रही है तो क्या --इस -हे-को इमला मे -अलिफ़-से बदल लेना चाहिए?</p><p>अरूज़ियों का कहना है कि नहीं--ज़रूरत नही -इमला -इसी -हे-[ हाए हूज़] से चलेगा। पढ़ने वाला और समझने वाला समझ लेगा।</p><p>यही बात --वादा-- परदा--नाकर्दा-- जैसे शब्दों के साथ भी है</p><p>एक और -हे- भी है-----हा हा हा हा --जिसे- ’दो चश्मी--हे कहते हैं । उसकी बात कभी बाद में।</p><p><br /></p><p>नोट = अगर इस आलेख में कुछ ग़लत बयानी हो गई हो तो मंच के असातिज़ा से दस्तबस्ता गुज़ारिश है कि निशानदिही फ़रमा दे कि मैं आइनदा दुरुस्त कर सकूँ</p><p>सादर</p><p>-आनन्द.पाठक-</p><p> </p>आनन्द पाठकhttp://www.blogger.com/profile/00352393440646898202noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3287188401583659492.post-84263933262494563592022-11-22T19:44:00.005+05:302023-03-11T21:12:52.978+05:30उर्दू बह्र पर एक बातचीत :क़िस्त 82 : क़ाफ़िया पैमाइश -बनाम-मा’नी आफ़्रिनी<p><br /></p><div class="x78zum5 x1n2onr6 xh8yej3" style="background-color: #f0f2f5; color: #1c1e21; display: flex; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 12px; position: relative; width: 590.112px;"><div class="x9f619 x1n2onr6 x1ja2u2z x2bj2ny x1qpq9i9 xdney7k xu5ydu1 xt3gfkd xh8yej3 x6ikm8r x10wlt62 xquyuld x1yztbdb" style="background-color: var(--surface-background); border-radius: max(0px, min(8px, ((100vw - 4px) - 100%) * 9999)) / 8px; box-shadow: 0 1px 2px var(--shadow-2); box-sizing: border-box; font-family: inherit; margin-bottom: 16px; overflow: hidden; position: relative; width: 590.112px; z-index: 0;"><div class="x1n2onr6 x1ja2u2z x9f619 x78zum5 xdt5ytf x2lah0s x193iq5w" style="box-sizing: border-box; display: flex; flex-direction: column; flex-shrink: 0; font-family: inherit; max-width: 100%; position: relative; z-index: 0;"><div class="x9f619 x1n2onr6 x1ja2u2z x78zum5 xdt5ytf x1iyjqo2 x2lwn1j" style="box-sizing: border-box; display: flex; flex-direction: column; flex-grow: 1; font-family: inherit; min-height: 0px; position: relative; z-index: 0;"><div class="x9f619 x1n2onr6 x1ja2u2z x78zum5 xdt5ytf x2lah0s x193iq5w x1e558r4 x150jy0e" style="box-sizing: border-box; display: flex; flex-direction: column; flex-shrink: 0; font-family: inherit; max-width: 100%; padding-left: 4px; padding-right: 4px; position: relative; z-index: 0;"><div class="x9f619 x1n2onr6 x1ja2u2z x78zum5 x2lah0s x1qughib x6s0dn4 xozqiw3 x1q0g3np xn6708d x1ye3gou xjkvuk6 xz9dl7a xykv574 xbmpl8g x4cne27 xifccgj" style="align-items: center; box-sizing: border-box; display: flex; flex-flow: row nowrap; flex-shrink: 0; font-family: inherit; justify-content: space-between; margin: -6px; padding: 12px 12px 4px; position: relative; z-index: 0;"><div class="x9f619 x1n2onr6 x1ja2u2z x78zum5 xdt5ytf x2lah0s x193iq5w xeuugli xsyo7zv x16hj40l x10b6aqq x1yrsyyn" style="box-sizing: border-box; display: flex; flex-direction: column; flex-shrink: 0; font-family: inherit; max-width: 100%; min-width: 0px; padding: 6px; position: relative; z-index: 0;"><div aria-label="About featured section" class="x1i10hfl x1qjc9v5 xjqpnuy xa49m3k xqeqjp1 x2hbi6w x9f619 x1ypdohk xdl72j9 x2lah0s xe8uvvx x2lwn1j xeuugli x16tdsg8 x1hl2dhg xggy1nq x1ja2u2z x1t137rt x1o1ewxj x3x9cwd x1e5q0jg x13rtm0m x1q0g3np x87ps6o x1lku1pv x1a2a7pz xjyslct xjbqb8w x13fuv20 xu3j5b3 x1q0q8m5 x26u7qi x972fbf xcfux6l x1qhh985 xm0m39n x3nfvp2 xdj266r x11i5rnm xat24cr x1mh8g0r xexx8yu x4uap5 x18d9i69 xkhd6sd x1n2onr6 x3ajldb x194ut8o x1vzenxt xd7ygy7 xt298gk x1xhcax0 x1s928wv x10pfhc2 x1j6awrg x1v53gu8 x1tfg27r xitxdhh" role="button" style="-webkit-tap-highlight-color: transparent; align-items: stretch; appearance: none; background-color: transparent; border-bottom-color: var(--always-dark-overlay); border-left-color: var(--always-dark-overlay); border-radius: inherit; border-right-color: var(--always-dark-overlay); border-style: solid; border-top-color: var(--always-dark-overlay); border-width: 0px; box-sizing: border-box; cursor: pointer; display: inline-flex; flex-basis: auto; flex-direction: row; flex-shrink: 0; font-family: inherit; list-style: none; margin: 0px; min-height: 0px; min-width: 0px; outline: none; padding: 0px; position: relative; text-align: inherit; touch-action: manipulation; user-select: none; vertical-align: bottom; z-index: 0;" tabindex="0"><div class="x1ey2m1c xds687c xg01cxk x47corl x10l6tqk x17qophe x13vifvy x1ebt8du x19991ni x1dhq9h x14yjl9h xudhj91 x18nykt9 xww2gxu" data-visualcompletion="ignore" style="border-radius: 50%; font-family: inherit; inset: 0px; opacity: 0; pointer-events: none; position: absolute; transition-duration: var(--fds-duration-extra-extra-short-out); transition-property: opacity; transition-timing-function: var(--fds-animation-fade-out);"></div></div></div></div></div></div></div></div></div><div role="feed" style="background-color: #f0f2f5;"><div class="x1yztbdb x1n2onr6 xh8yej3 x1ja2u2z" style="margin-bottom: 16px; position: relative; width: 590.112px; z-index: 0;"><div class="x1n2onr6 x1ja2u2z" style="position: relative; z-index: 0;"><div><div><div aria-describedby="jsc_c_7f jsc_c_7g jsc_c_7h jsc_c_7j jsc_c_7i" aria-labelledby="jsc_c_7e" aria-posinset="1" class="x1a2a7pz" role="article" style="outline: none;"><div class="x78zum5 xdt5ytf" style="display: flex; flex-direction: column;"><div class="x9f619 x1n2onr6 x1ja2u2z" style="box-sizing: border-box; position: relative; z-index: 0;"><div class="x78zum5 x1n2onr6 xh8yej3" style="display: flex; position: relative; width: 590.112px;"><div class="x9f619 x1n2onr6 x1ja2u2z x2bj2ny x1qpq9i9 xdney7k xu5ydu1 xt3gfkd xh8yej3 x6ikm8r x10wlt62 xquyuld" style="background-color: var(--surface-background); border-radius: max(0px, min(8px, ((100vw - 4px) - 100%) * 9999)) / 8px; box-shadow: 0 1px 2px var(--shadow-2); box-sizing: border-box; overflow: hidden; position: relative; width: 590.112px; z-index: 0;"><div><div><div><div><div><div class="x168nmei x13lgxp2 x30kzoy x9jhf4c x6ikm8r x10wlt62" data-visualcompletion="ignore-dynamic" style="border-radius: 0px 0px 8px 8px; overflow: hidden;"><div><div class="x1jx94hy x12nagc" style="background-color: var(--card-background); margin-bottom: 4px;"><ul style="list-style-type: none; margin: 0px; padding: 0px;"><li><div class="x1n2onr6" style="position: relative;"><div aria-label="Comment by आनन्द पाठक 16 hours ago" class="x1n2onr6 x4uap5 x18d9i69 x1swvt13 x1iorvi4 x78zum5 x1q0g3np x1a2a7pz" role="article" style="display: flex; flex-direction: row; outline: none; padding: 4px 0px 0px 16px; position: relative;" tabindex="-1"><div class="x1r8uery x1iyjqo2 x6ikm8r x10wlt62 x1pi30zi" style="flex-basis: 0px; flex-grow: 1; overflow: hidden; padding-right: 16px;"><div><div class="x1rg5ohu xv55zj0 x1vvkbs xxymvpz" style="display: inline-block; max-width: calc(100% - 26px); overflow-wrap: break-word; vertical-align: middle;"><div class="x3nfvp2 x1n2onr6 xxymvpz xh8yej3" style="display: inline-flex; position: relative; vertical-align: middle; width: 494.112px;"><div class="xdl72j9 x1iyjqo2 xs83m0k xeuugli xh8yej3" style="flex: 1 1 auto; min-width: 0px; width: 494.112px;"><div><div class="x1tlxs6b x1g8br2z x1gn5b1j x230xth x9f619 xzsf02u x1rg5ohu xdj266r x11i5rnm xat24cr x1mh8g0r x193iq5w x1mzt3pk x1n2onr6 xeaf4i8 x13faqbe xmjcpbm" style="background-color: var(--comment-background); border-radius: 18px; box-sizing: border-box; display: inline-block; margin: 0px; max-width: 100%; overflow-wrap: break-word; position: relative; word-break: break-word;"><div class="x1y1aw1k xn6708d xwib8y2 x1ye3gou" style="padding: 8px 12px;"><div class="x1lliihq xjkvuk6 x1iorvi4" style="padding-bottom: 4px; padding-top: 4px;"><span class="x193iq5w xeuugli x13faqbe x1vvkbs x1xmvt09 x1lliihq x1s928wv xhkezso x1gmr53x x1cpjm7i x1fgarty x1943h6x xudqn12 x3x7a5m x6prxxf xvq8zen xo1l8bm xzsf02u" dir="auto" lang="hi-IN" style="display: block; line-height: 1.3333; max-width: 100%; min-width: 0px; overflow-wrap: break-word; word-break: break-word;"><div class="x11i5rnm xat24cr x1mh8g0r x1vvkbs xdj266r" style="margin: 0px; overflow-wrap: break-word;"><div dir="auto"><span face="Segoe UI Historic, Segoe UI, Helvetica, Arial, sans-serif" style="color: #1c1e21;"><span style="font-size: 15px;"><b>क़िस्त 82 : क़ाफ़िया पैमाइश -बनाम-मा’नी आफ़्रिनी<br /><br /></b></span></span></div></div><div class="x11i5rnm xat24cr x1mh8g0r x1vvkbs xtlvy1s" style="color: var(--primary-text); font-family: inherit; font-size: 0.9375rem; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">ग़ालिब ने कहा था ---शायरी सिर्फ़ क़ाफ़िया पैमाइश ही नहीं --मा’नी आफ़्रीनी का नाम है। बिलकुल सही कहा।</div><div dir="auto" style="font-family: inherit;">आजकल जो शायरी /ग़ज़ल देखते हैं उसमे ज़्यादातर ’क़ाफ़िया पैमाईश " ही है जिसे बहुत से लोग ’तुकबन्दी’ भी कहते है।</div><div dir="auto" style="font-family: inherit;">इसी तुकबन्दी पर शरद तैलंग साहब [कोटा निवासी] का एक शे’र याद आ रहा है---</div></div><div class="x11i5rnm xat24cr x1mh8g0r x1vvkbs xtlvy1s" style="color: var(--primary-text); font-family: inherit; font-size: 0.9375rem; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;"><b>सिर्फ़ तुकबन्दियां काम देगीं नही</b></div><div dir="auto" style="font-family: inherit;"><b>शायरी कीजिए शायरी की तरह</b></div></div><div class="x11i5rnm xat24cr x1mh8g0r x1vvkbs xtlvy1s" style="color: var(--primary-text); font-family: inherit; font-size: 0.9375rem; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">अगर आप ने मिर्ज़ा ग़ालिब फ़िल्म [ नसरुउद्दीन शाह अभिनीत और गुलज़ार द्वारा निर्देशित] देखी हो तो लालकिले में आयोजित</div><div dir="auto" style="font-family: inherit;">एक मुशायरे का सीन आता है जिसमे ग़ालिब साहब फ़ेटें से एक पुर्ज़ा निकालते है और एक ग़ज़ल पढ़ रहे हैं--और बड़े मगन</div><div dir="auto" style="font-family: inherit;">होकर पढ़ रहे हैं</div></div><div class="x11i5rnm xat24cr x1mh8g0r x1vvkbs xtlvy1s" style="font-family: inherit; font-size: 0.9375rem; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;"><span style="color: red;"><b>हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है</b></span></div><div dir="auto" style="font-family: inherit;"><span style="color: red;"><b>तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ़्तुगू क्या है</b></span></div></div><div class="x11i5rnm xat24cr x1mh8g0r x1vvkbs xtlvy1s" style="color: var(--primary-text); font-family: inherit; font-size: 0.9375rem; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">पास के एक शायर ने वह पुर्ज़ा उलट-पुलट कर देखा उसमे कुछ भी नही लिखा था -न ग़ज़ल -न क़ाफ़िया मगर ग़ालिब साहब शे’र दर शे’र क़ाफ़िया दर क़ाफ़िया लगाते जा रहे थे} यानी उन्होने पहले से कोई क़ाफ़िया</div><div dir="auto" style="font-family: inherit;">पैमाइश नहीं की थी बस शे’र सरज़द [ निकल ] हो रहे थे और क़ाफ़िया शे’र के मानी के हिसाब से अपने आप</div><div dir="auto" style="font-family: inherit;">"नेचुरली’ आते जा रहे थे जिसे ग़ालिब -मा’नी आफ़्रीनी कह्ते थे।</div><div dir="auto" style="font-family: inherit;">मगर सब ग़ालिब तो नहीं हो सकते ।</div></div><div class="x11i5rnm xat24cr x1mh8g0r x1vvkbs xtlvy1s" style="color: var(--primary-text); font-family: inherit; font-size: 0.9375rem; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">ख़ैर</div><div dir="auto" style="font-family: inherit;">"क़ाफ़िया पैमाइश "--से मुराद यह है कि अगर मतला में कोई क़ाफ़िया बाँध दिया --मसलन</div><div dir="auto" style="font-family: inherit;">ख़बर--नज़र</div><div dir="auto" style="font-family: inherit;">तो फिर एक पन्ने पर आगे के 10-12 क़ाफ़िए लिख लेगे --जैसे -असर--सहर--शरर--इधर--उधर</div><div dir="auto" style="font-family: inherit;">[ यानी पहले क़ाफ़िया पैमाइश कर लेंगे] तब शे’र आगे कहेंगे आगे के क़वाफ़ी को मद्दे नज़र रखते हुए</div><div dir="auto" style="font-family: inherit;">कभी कभी ऐसे शे’र मा’नी से दूर भी हो जाते हैं।</div><div dir="auto" style="font-family: inherit;">ग़ालिब का कहना है --आप शे’र कहें और क़ाफ़िया को अपने आप स्वत: Natural flow में आने दें।</div><div dir="auto" style="font-family: inherit;">[ मा’नी आफ़्रीनी होने दीजिए] इसी लिए आप ने देखा होगा कि क़ाफ़िया ’रीपीट’ भी हो जाता है और हो भी सकता है शर्त यह कि शे’र नए मा’नी में हो।</div><div dir="auto" style="font-family: inherit;">मगर यह इतना आसान है क्या?</div><div dir="auto" style="font-family: inherit;">नहीं । इसके लिए आप के पास शब्द का काफ़ी बड़ा भंडार होना चाहिए। अनुभव होना चाहिए।क़ाफ़िया का भंडार होना चाहिए कि क़ाफ़िया तंग न पड़े, जो सबके पास नहीं होता।</div><div dir="auto" style="font-family: inherit;">ज़्यादातर शायर क़ाफ़िया पैमाइश का ही सहारा लेते है और शे’र कहते हैं।</div><div dir="auto" style="font-family: inherit;">आजकल तो क़ाफ़िया बन्दी के नाम पर हिन्दी -उर्दू-अंगेरेजी-देशज सब चलते है।</div><div dir="auto" style="font-family: inherit;">अगर किसी ने मतला में लोटा--मोटा क़ाफ़िया बाँध दिया तो उनके क़ाफ़िया पैमाइश में</div></div><div class="x11i5rnm xat24cr x1mh8g0r x1vvkbs xtlvy1s" style="color: var(--primary-text); font-family: inherit; font-size: 0.9375rem; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word;"><div dir="auto" style="font-family: inherit;">छोटा--नोटा--टोटा--सोटा--लंगोटा-झोंटा-बोटा--बांधने में भी गुरेज़ नहीं---शेर में किसी न किसी प्रकार घुसा ही देंगे।</div><div dir="auto" style="font-family: inherit;">ख़ैर<br /><br /></div><div dir="auto" style="font-family: inherit;">-आनन्द.पाठक-</div></div></span></div></div></div></div></div></div></div></div></div></div></div></li><li><div dir="auto" style="font-family: inherit;"><br /></div></li><li><div dir="auto"><span face="Segoe UI Historic, Segoe UI, Helvetica, Arial, sans-serif" style="color: #1c1e21;"><span style="font-size: 15px;"><b><br /></b></span></span></div></li><li><div dir="auto"><span face="Segoe UI Historic, Segoe UI, Helvetica, Arial, sans-serif" style="color: #1c1e21;"><span style="font-size: 15px;"><b><br /></b></span></span></div></li><li><div dir="auto"><span face="Segoe UI Historic, Segoe UI, Helvetica, Arial, sans-serif" style="color: #1c1e21;"><span style="font-size: 15px;"><b><br /></b></span></span></div></li></ul></div></div></div></div></div></div></div></div></div></div></div></div></div></div></div></div></div></div>आनन्द पाठकhttp://www.blogger.com/profile/00352393440646898202noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-3287188401583659492.post-37061347157069258902021-08-18T18:28:00.004+05:302023-03-11T21:12:14.554+05:30 उर्दू बह्र पर एक बातचीत :क़िस्त 81 : कसरा-ए-इजाफ़त पर अतिरिक्त बातें[ भाग-2 ]<p><span style="color: red;"><b> क़िस्त 81 : कसरा-ए-इजाफ़त पर अतिरिक्त बातें[ भाग-2]</b></span></p><p>पिछली क़िस्त 80 में Y Type ke इज़ाफ़ती अल्फ़ाज़ की चर्चा की थी ।यानी </p><p><span style="color: red;">[Y] लफ़्ज़ A --का आखिरी हर्फ़ पर -आ [ अलिफ़ ]- या -ऊ [ वाव ] का स्वर जुड़ा हो </span></p><p><br /></p><p><span style="color: #2b00fe;">आज हम [Z] लफ़्ज़ A ---का आखिरी हर्फ़ पर -ई [ या] का स्वर जुड़ा हो</span> जैसे <span style="color: red;">दीवानगी-ए-शौक़. तीरगी-ए-वहम-</span></p><p><span style="color: red;">अफ़शानी-ए-गुफ़्तार --महरूमी-ए-जावेद---तरयाकी-ए-कदीम-- तिश्नगीए-शौक़---</span>आदि । </p><p>पर इज़ाफ़त की चर्चा करेंगे।</p><p>ऐसे केस में -बड़ी ई- वाले हर्फ़ को कसरा लगा कर छोटी इ करेंगे फ़िर -ए- लगा कर इज़ाफ़त बनाएँगे ।</p><p>ग़ालिब का एक शे’र है -बह्र है 2122--1122--1122--22 [ यानी बह्र-ए-रमल मुसम्म्न मख़्बून मक़्तूअ’]</p><p>-<span style="color: #990000;">वाए-दीवानगी-ए-शौक़ कि हरदम मुझको</span></p><p><span style="color: #990000;">आप जाना उधर और आप ही हैरां होना</span></p><p>यानी तक़्तीअ’ में यहाँ -गी [2] - को -गि [1] - करेंगे और फिर--ए- जोड़ेंगे</p><p>अब इस शे’र की तक़्तीअ’ भी कर के देख लेते हैं</p><p>2 1 2 2/ 1 1 2 2 / 1 1 2 2 / 2 2 </p><p>वाए-दीवा/ न गि-ए-शौ/क़ कि हरदम /मुझको</p><p>2 1 2 2 / 1 1 2 2 / 1 1 2 2 / 2 2</p><p>आप जाना /उध र और आ/प ही हैरां / होना </p><p><span style="background-color: #fcff01;">उधर + और+ आप = उ ध रौ रा +-प [ 1 1 2 2 ] + 1</span></p><p>[यानी अलिफ़ क वस्ल उधर के आखिरी हर्फ़ -र- पर और और के बाद जो आप का अलिफ़ ]</p><p>बज़ाहिर इस शे’र में -ए- का वज़न -2-ठहरता है </p><p>अब एक शे;र और लेते हैं ग़ालिब का ही’ है--इसकी भी बह्र वही है </p><p><span style="color: #990000;"><i>न बँधे तिश्नगी-ए-शौक़ के मज़मूँ ग़ालिब</i></span></p><p><span style="color: #990000;"><i>गरचे दिल खोल कर दर्या को भी साहिल बाँधा</i></span></p><p>इसकी भी तक़्तीअ’ कर के देख लेते हैं </p><p>1 1 2 2 / 1 1 2 2 / 1 1 2 2 / 2 2 </p><p>न बँधे तिश/ न गि -ए-शौ / क़ के मज़मूँ /ग़ालिब [ यहाँ भी -तिश्नगी [ 2 1 2 ]-को पहले तिशनगि - 2 1 1 -करेंगे फिर इज़ाफ़त का -ए-लगाएंगे</p><p><span style="color: red;">2 1 2 2 / 1 1 2 2 / 1 1 2 2 / 2 2 </span></p><p><span style="color: red;">गरच: दिल खो /ल के दर्या /को भी साहिल /बाँधा</span></p><p>बज़ाहिर यहाँ भी -ए- का वज़न -2-लिया गया है </p><p>अच्छा अब आप के मन में एक सवाल उठता होगा कि मिसरा उला के पहले मुक़ाम पर तो 2122-- का वज़न आना चाहिए -और हमने 1122 का वज़न दिखा कर तक़्तीअ कर दी।</p><p>जी बिलकुल सही --आप का सवाल 100% दुरुस्त है</p><p><span style="background-color: #fcff01; color: red;">जी। इस बह्र में [ और बह्र-ए-ख़फ़ीफ़ के मख़्बून मुसद्दस --में भी \ पहले मुक़ाम [जिसे सदर/ इब्तिदा का मुक़ाम कहते हैं ] में First वाले -2- के मुक़ाम पर -1- लाया जा सकता है </span></p><p>अरूज़ में इसकी इजाज़त है । याद करें ग़ालिब का वह मशहूर शे’र ----दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है --[ 2122---1212---22 ] में दिल-ए-नादाँ का वज़न = 1 1 2 2 है । न कि 1 2 2 2</p><p>या 2 1 2 2 </p><p>अब चलते चलते एक आख़िरी शे’र भी देख लेते हैं ग़ालिब का ही है ।</p><p><span style="color: red;">ताज़ा नहीं है नश्शा फ़िक्र-ए-सुखन मुझे</span></p><p><span style="background-color: #fcff01; color: red;">तरयाक़ी-ए-कदीम हूँ दूद-ए-चिराग़ का </span></p><p>[ दूद-ए-चिराग़ = चिराग़ का धुआँ ]</p><p>इस शे’र की बह्र है ---221-2121--1221---212 [ बह्र-ए-मुज़ारे मुसम्मन अख़रब मक्फ़ूफ़ महज़ूफ़ ]</p><p>अब इसकी भी तक़्तीअ’ कर के देखते हैं } मिसरा सानी की तक़्तीअ’ मैं कर देता हूँ । मिसरा उला की आप कर लें--आप का अत्म विश्वास बढेगा।</p><p><span style="color: #2b00fe;"><i>221--- /2121--- /1221-- /212</i></span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><i>तरयाक़ि / -ए-कदीम / हूँ दूद-ए-चि/ राग़ का </i></span></p><p>वही बात तरयाक़ी को पहले -तरयाक़ि- किया फिर इज़ाफ़त -ए- लगाया </p><p>एक बात और </p><p>दूद-ए- --को -दूदे [2 2 ] -- के वज़न पर लिया जो जायज भी है । कसरा इज़ाफ़त -ए- दूद के आख़िरी हर्फ़ को मुतस्सिर [ प्रभावित ] कर दिया और यहाँ बह्र और वज़न की</p><p>Demand खींच कर पढ़ने की है सो -द- को खींच कर पढ़ा।</p><p>अत: हम कह सकते है कि इज़ाफ़त -ए- का वज़न बह्र और रुक्न की माँग के अनुसार कभी -1- कभी -2- होता रहता है </p><p>चूँकि हिंदी गज़लों में अब कम ही इज़ाफ़त का प्रयोग होता है अत: इसके बारे में आप को बहुत परेशान होने की ज़रूरत नहीं है।</p><p>वह तो बात निकली सो लिख दिया कि अगर कभी आप को कदीम [ पुराने ]शायरों के कलाम मसलन ग़ालिब--मीर--ज़ौक़--इक़बाल को समझने और तक़्तीअ’ करने में सुविधा हो ।</p><p><b>यह चर्चा यही समाप्त करते हैं।</b></p><p>[ नोट -इस मंच के तमाम असातिज़ा से दस्तबस्ता गुज़ारिश है कि अगर कुछ ग़लतबयानी हो गई हो तो ज़रूर निशानदिही फ़रमाएँ कि आइन्दा मैं खुद को दुरुस्त कर सकूं~।</p><p><br /></p><p>-<span style="color: #cc0000;">आनन्द.पाठक- </span></p><p><span style="color: #cc0000;">Mb 8800927181</span></p><p><span style="color: #cc0000;">Email akpathak3107@gmail.com</span></p><p><span style="color: #cc0000;">दिनांक 17-अगस्त-21</span></p><div><br /></div>आनन्द पाठकhttp://www.blogger.com/profile/00352393440646898202noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-3287188401583659492.post-35058497236789088862021-08-16T11:22:00.002+05:302023-03-11T21:11:47.994+05:30 उर्दू बह्र पर एक बातचीत :क़िस्त 80 : कसरा-ए-इजाफ़त पर अतिरिक्त बातें [ भाग -1 ]<p style="text-align: center;"><span style="color: red;"><b> क़िस्त 80 : कसरा-ए-इजाफ़त पर अतिरिक्त बातें [ भाग -1]</b></span></p><p><span style="background-color: #fcff01;"><u><b>विशेष नोट = इस विषय पर पूर्व जानकारी के लिए क़िस्त 70 भी देख सकते है --</b></u></span></p><p>-पिछली क़िस्त 70 में चर्चा की थी कि इज़ाफ़त अपने से पहले वाले शब्द के आखिरी हर्फ़ को वज़न के लिहाज़ से कैसे शे;र में कैसे मुतस्सिर [ प्रभावित ] करता है।</p><p>बह्र कैसे प्रभावित होती है ।क्यों हम उस हर्फ़ का वज़न कभी -1- लेते हैं कभी -2- लेते हैं ।</p><p><span style="white-space: pre;"> </span><span style="color: #2b00fe;"><b>लफ़्ज़ A -e- लफ़्ज़ B इज़ाफ़त की शक्ल की</b></span></p><p>तीन स्थितियाँ हो सकती है </p><p><span style="color: red;"><b>[X] लफ़्ज़ A -का आखिरी हर्फ़ ’साकिन’ हो</b></span> जैसे दर्द-ए-दिल--ग़मे-दिल , राज़-ए-दिल--ज़ेर-ए-नज़र--बयान-ए-शोखी ---आदि जिसमें पहले शब्द के का-द्--म्--ज़्--र्--न्- [ साकिन् ] हो</p><p>वैसे भी उर्दू का हर हर्फ़ -साकिन-[ आप इसे हलन्त टाइप की आवाज़ समझ लें ] पर ही गिरता है । यह आप जानते होंगे।और यह इज़ाफ़त इन साकिन हर्फ़ को [ मुतहर्रिक ] कर देती है यानी -1- के वज़न पर कर देती है </p><p><span style="color: red;"><b>[Y] लफ़्ज़ A --का आखिरी हर्फ़ पर -आ [ अलिफ़ ]- या -ऊ [ वाव ] का स्वर जुड़ा हो</b></span> जैसे -सीना-ए-सर ,तमाशा-ए-अहल-ए-करम ,दर्या-ए-दिल, दुआ-ए-मग्फ़िरत, दवा-ए-मरज़ . ---या <span style="white-space: pre;"> </span>ख़ुश्बू-ए-चमन ,बू-ए-गुल--आदि</p><p><span style="white-space: pre;"> </span><i><span style="color: #2b00fe;">{ ऐसे ’अलिफ़’ या ; वाव’ को जो अपने से पहले वाले हर्फ़ कॊ खींच कर स्वर देते है उसे ]अलिफ़-ए-इल्लत या वा-ए-इल्लत कहते है -बस ऐसे ही लिख दिया आप लोगों की जानकारी के लिए। </span></i></p><p><span style="white-space: pre;"> </span>जब हम कहते है कि अमुक क़ाफ़िया में -अलिफ़ का क़ाफ़िया है तो दर अस्ल वह -अलिफ़-ए- इल्लत -का क़ाफ़िया होता है जिसे हम -आ- का क़ाफ़िया समझते है जैसे--ख़ुदा- वफ़ा--सज़ा--रफ़ा-दफ़ाआदि आदि </p><p><span style="color: red;"><b>[Z] लफ़्ज़ A ---का आखिरी हर्फ़ पर -ई [ या] का स्वर जुड़ा हो </b></span>जैसे दीवानगी-ए-शौक़. तीरगी-ए-वहम--हस्ती-ए-अशिया आदि। </p><p><span style="background-color: #fcff01;">आज हम यहाँ [X] क़िस्म के इज़ाफ़त पर मज़ीद [ अतिरिक्त ]बात करेंगे। कुछ बातें क़िस्त 70 में भी कर चुके हैं</span></p><p>इस टाईप के इज़ाफ़त में आप को दो आप्शन मिलते है । </p><p>[1] पहले शब्द के आख़िरी हर्फ़ -द्--म्--ज़्--र्--न्- [ साकिन् ]-को हल्का सा ज़बर /जोर देकर पढ़े [ मुतहर्रिक के वज़न पर ] यानी -1- के वज़न पढ़े -जैसे द-म-ज़-र-न [1]</p><p>[2] पहले शब्द के आख़िरी का आख़िरी हर्फ़ द्--म्--ज़्--र्--न्- [ साकिन् ] को खींच कर पड़े जैसे ---दे-मे-ज़े-रे--ने [ 2] की वज़न पर । इस खींचने की क्रिया को उर्दू में ’इस्बाअ’ कहते है</p><p> मरजी आप की --जैसे बहर की माँग हो --रुक्न की ’डिमांड’ हो -वैसे पढ़ेंगे। शे’र का बह्र और वज़न क़ायम रहे । आप के पास दोनो विकल्प मौजूद है ।</p><p>उदाहरण के लिए ग़ालिब की एक मशहूर ग़ज़ल लेते हैं । बहुत ही आसान बह्र की ग़ज़ल है ।आप ने भी पढ़ी होगी या सुनी होगी।</p><p><b>122----122-----122----122</b></p><p>जहाँ तेरा <b>नक़्श-ए-क़दम</b> देखते हैं</p><p>खियाबां ख़ियाबा इरम देखते है<span style="white-space: pre;"> </span>1</p><p><br /></p><p>दिल-आशुफ़्तगा, <b>ख़ाल-ए-कुंज-ए-दहन</b> है</p><p>सुवैदा में <b>सैर-ए-अदम</b> देखते है <span style="white-space: pre;"> </span>2</p><p><br /></p><p>तेरे <b>सर्व-ए-कामत</b> में इक <b>कद्द-ए-आदम</b></p><p>क़यामत में फ़ित्ने को कम देखते हैं<span style="white-space: pre;"> </span>3</p><p><br /></p><p>तमाशा कि ऎ <b>मह्व-ए-आइनादारी</b></p><p>तुझे किस तमन्ना से हम देखते हैं<span style="white-space: pre;"> </span>4</p><p><br /></p><p><b>सुराग-ए-तुफ़-ए-नाला</b> ले <b>दाग़-ए-दिल</b> से</p><p>कि शब-रौ का <b>नक़्श-ए-क़दम</b> देखते हैं<span style="white-space: pre;"> </span>5</p><p><br /></p><p>बना कर फ़क़ीरों का हम भेस ’ग़ालिब’</p><p>तमाशा-ए-<b>अहल-ए-करम</b> देखते है <span style="white-space: pre;"> </span>6</p><p><b><i> इस ग़ज़ल में जहाँ [X] टाईप की इज़ाफ़त का इस्तेमाल हुआ है </i></b>बस उसी उसी मिसरा की तक़्तीअ’ कर के देखते है</p><p>यदि आप चाहें तो पूरी ग़ज़ल की तक्तीअ’ आप ख़ुद कर लें -आत्मविश्वास बढ़ेगा।</p><p>शे’र 1-</p><p>1 2 2 / 1 2 2 / 1 2 2 / 1 2 2</p><p>जहाँ ते/ <b><span style="color: #2b00fe;">रा नक़् श-ए/</span></b>-क़ दम दे/ख ते हैं</p><p>यहाँ --श- को खींच कर पढ़ना है -2- की वज़न पर यहाँ श-ए-= शे [2] की आवाज़ सुनाई देनी चाहिए क्यों कि बह्र और रुक्न की यहाँ यही माँग है </p><p>यहाँ कैसे इज़ाफ़त ने -श- [1] को [2] कर दिया </p><p>शे’र 2-</p><p>1 2 2 / 1 2 2 / 1 2 2 / 1 2 2</p><p>दिल-आशुफ़/ त गा , ख़ा’/<span style="color: #2b00fe;"><b> ल-ए-कुंज-ए-/</b></span> द हन है</p><p>यहाँ दिल-आशुफ़्तगा में लाम में अलिफ़ का वस्ल है तो हम इसे -दि-ला-शुफ़ [ 122 ] पढ़ेंगे</p><p>ख़ाल-ए-कुंज-ए = में इज़ाफ़त नें -ल-[ लाम ] को -1-मुतहर्रिक कर दिया और इसी इज़ाफ़त ने कुंज-ए- में -ज को -2- कर दिया । बह्र और वज़न सर्वोपरि राजन !</p><p>इसीलिए हम नहीं कह सकते कि इज़ाफ़त -ए- सदा --1- का ही वज़न देगा या सदा-2- का ही वज़न देगा । जैसी बह्र और रुक्न की माँग होगी वो वज़न देगा।</p><p>शे’र 6- </p><p>1 2 2 / 1 2 2 / 1 2 2 / 1 2 2 </p><p><span style="color: #2b00fe;">सुराग-ए-</span>/ <span style="color: #2b00fe;">तु फ़-ए-ना</span>/ला ले दा/ <span style="color: #2b00fe;"><b>ग़-ए-दिल</b></span> से</p><p>यहाँ -ग- -ए-[ इज़ाफ़त ] के साथ मिलकर -गे [ 2] का वज़न देगा --रुक्न की माँग तभी सन्तुष्ट होगी।यानी सुराग-ए- = सुरागे [ 1 2 2 ] इज़ाफ़त के कारण</p><p>वरना तो सुराग तो 121 के वज़न पर ही था । यही बात दूसरे रुक्न -फ़-ए- = फ़े [2 ] के साथ भी है </p><p>अब आप के मन में एक सवाल उठ रहा होगा कि -नाला- का -ला- को -1- के वज़न पर क्यों ? देखने में तो -2- का वज़न लगता है ।</p><p>जी बिलकुल जायज़ सवाल है । हम हिंदी वाले -नाला- को -लाम पर अलिफ़ समझते है जब कि उर्दॊ में इसका सही तलफ़्फ़ुज़ =नाल: है -यानी लाम </p><p>मुतहर्रिक है अत: -1- के वज़न पर लिया जायेगा ।</p><p>उसी प्रकार दाग़-ए-दिल में -ग़ -इज़ाफ़त के कारण -1- [ मुतहर्रिक ] का वज़न देगा । वरना stand alone दाग़ -में -ग़- साकिन ही होता है । ख़ैर</p><p>बाक़ी अश’आर की तक़्तीअ’ आप कर लें । अगर कहीं दिक्कत महसूस हो तो यह बन्दा हाज़िर है।मुझे लगता नहीं है कि आप लोगों को कोई दिक्कत पेश आयेगी।</p><p>अच्छा । </p><p><span style="background-color: #fcff01; color: red;">अब [Y] टाइप के इज़ाफ़त की चर्चा कर लेते हैं </span></p><p><br /></p><p>[Y] लफ़्ज़ A --का आखिरी हर्फ़ पर -आ [ अलिफ़ ]- या -ऊ [ वाव ] का स्वर जुड़ा हो जैसे </p><p> लफ़्ज़ A -e- लफ़्ज़ B जिसमे लफ़्ज़ A का आख़िरी हर्फ़ -आ - या -ऊ- क़िस्म का हो जैसे</p><p>सरगस्ता-ए-ख़ुमार . , नाला-ए-दिल, बू-ए-गुलाब ,जल्वा-ए-गुल ,दीदा-ए-अख़्तर .ख़ाना-ए-आशिक़--दर्या-ए-दिल या वफ़ा---सज़ा----दगा---शिकस्ता----के साथ इजाफ़त वग़ैरह वग़ैरह </p><p>ऐसे केस में इज़ाफ़त दिखाने के लिए --पहले शब्द के आखिरी हर्फ़ के आगे -ए- लगा कर दिखाते है --उर्दू में भी ,हिंदी में भी।</p><p>इस इज़ाफ़त -ए- का शे’र पर क्या प्रभाव पड़ेगा --देखते हैं</p><p>ग़ालिब के शे’र से ही देखते हैं </p><p><br /></p><p>बना कर फ़क़ीरों का हम भेस ’ग़ालिब’</p><p>तमाशा-ए-अहल-ए-करम देखते है </p><p><br /></p><p><b style="background-color: white;"><span style="color: red;">तमाशा-ए-अहले-करम </span></b>--में दोनॊ टाईप के इज़ाफ़त इस्तेमाल किए गये है </p><p>अब इसकी तक़्तीअ’ कर के मुतमइन [ निश्चिन्त ] हो लेते हैं </p><p>122----122----122-----122</p><p>तमाशा/-ए-अहले-/करम दे/ खते है </p><p>बज़ाहिर -ए- यहाँ -1- के वज़न पर लिया जायेगा</p><p><br /></p><p>अब दूसरा शे’र लेते है--ग़ालिब का ही</p><p>2122----1122-----22</p><p><br /></p><p>फिर मुझे दीदा-ए-तर याद आया</p><p>दिल जिगर तश्ना-ए-फ़रियाद आया</p><p><br /></p><p>इसमें भी Y Type इज़ाफ़त का इस्तेमाल हुआ है</p><p>तक़्तीअ’ कर के देखते हैं </p><p>2 1 2 2 / 1 1 2 2 / 2 2 </p><p>फिर मुझे दी/ द: -ए-तर या/ द आया-----याद+आया= यादाया [ अलिफ़ का वस्ल हो गया है]</p><p>बज़ाहिर -ए-का वज़न-1- पर आया</p><p>2 1 2 2 / 1 1 2 2 / 2 2 </p><p>दिल जिगर तश्/ न:-ए-फ़र या /द आया</p><p>बज़ाहिर -ए-का वज़न-1- पर आया</p><p><br /></p><p>अब चन्द अश’आर ऐसे देखते है जिसमे इज़ाफ़त के पहले शब्द का आख़िरी हर्फ़ -ऊ- पर गिरता हो --</p><p>ग़ालिब का ही एक मिसरा है-</p><p><br /></p><p>नहीं देखा शनावर-जू-ए-खूँ में तेरे तौसन को---और बह्र है</p><p>1222---1222---1222--1222</p><p>अब इसकी तक़्तीअ’ कर के देखते हैं कि -ए- का वज़न क्या उतरता है </p><p><br /></p><p>1222--- /-1222 /--1222-- /-1222 </p><p>नहीं देखा / शनावर-जू-/ ए-खूँ में ते/ र तौसन को</p><p>बज़ाहिर -ए- [ इज़ाफ़त ] -1- की वजन पर लिया गया है </p><p><br /></p><p>अब फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ का एक शे’र देखते है-बह्र है 1212--1122--1212--112</p><p><br /></p><p> मक़ाम फ़ैज़ कोई राह में जँचा ही नहीं</p><p><span style="color: red;">जो <i>कू-ए-यार </i></span>से निकले- तो <i><span style="color: red;">सू-ए-दार </span></i>चले</p><p><br /></p><p> अब इसकी तक़्तीअ’ कर के देखते हैं </p><p>1 2 1 2 / 1 1 2 2 / 1 2 1 2 ’ 1 1 2</p><p> मक़ाम फ़ै/ ज़ कोई रा / ह में जँचा /ही नहीं</p><p><br /></p><p>1 2 1 2 / 1 1 2 2 / 1 2 1 2 / 1 1 2</p><p>जो कू-ए-या /र से निकले-/ तो सू-ए-दा /र चले</p><p><br /></p><p>बज़ाहिर मिसरा सानी में -ए- [ इजाफ़त ] को -1- के वज़न पर लिया गया है।</p><p>हम ऐसे ही बहुत से उदाहरण देख सकते है कि इज़ाफ़त-ए- का वज़न -1- पर लिया गया है</p><p><br /></p><p>अब अगली क़िस्त 81 में हम [Z] लफ़्ज़ A ---का आखिरी हर्फ़ पर -ई [ या] का स्वर जुड़ा हो जैसे दीवानगी-ए-शौक़. तीरगी-ए-वहम--आदि। </p><p>पर इज़ाफ़त की चर्चा करेंगे।</p><p><span style="color: #2b00fe;"><i>[ नोट -इस मंच के तमाम असातिज़ा से दस्तबस्ता गुज़ारिश है कि अगर कुछ ग़लतबयानी हो गई हो तो ज़रूर निशानदिही फ़रमाएँ कि आइन्दा मैं खुद को दुरुस्त कर सकूं~।</i></span></p><p><br /></p><p>-आनन्द.पाठक- </p><p><span style="color: red;">Mb 8800927181</span></p><p><span style="color: red;">Email akpathak3107@gmail.com</span></p><p>दिनांक 16-अगस्त-21</p><p><br /></p><p><br /></p><p><br /></p><p><br /></p>आनन्द पाठकhttp://www.blogger.com/profile/00352393440646898202noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-3287188401583659492.post-45382341280463043552021-07-08T11:14:00.006+05:302021-07-08T19:37:56.808+05:30 उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 79 [ आहंग एक - नाम दो [भाग -2]<p><b><span style="color: red;"> उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 79 [ आहंग एक - नाम दो [भाग -2]</span></b></p><div style="text-align: left;">पिछली क़िस्त 78 में मैने इसी विषय पर बातचीत की थी कि कैसे एक बहर की आहंग तो एक है और नाम दो हैं<br />और वो बह्र थी <br /><span style="color: red;">1212-- -1212-- -1212---1212- यानी <br /></span><span style="color: red;">मुफ़ाइलुन--मुफ़ाइलुन--फ़ाइलुन--मुफ़ाइलुन</span></div><div style="text-align: left;"><span style="color: red;"><br /></span>और इस बह्र की मुज़ाइफ़ शकल [यानी 16-रुक्नी बह्र ] भी अज रू-ए-अरूज़ मुमकिन है ।<br />----- ---- <br />आज हम ऐसी ही दूसरी बह्र पर भी बातचीत करेंगे। और वो बह्र है <br /><span style="background-color: #fcff01; color: red;"><b>22---22---22---22 </b></span><br />और इस बह्र की भी मुज़ाइफ़ शकल [ यानी 16-रुक्नी बह्र ]भी मुमकिन है । देखिए कैसे?</div><div style="text-align: left;"><br /><b>[1] यह बह्र तो आप पहचानते होंगे <br />212------212-------212--------212- </b><br />फ़ाइलुन--फ़ाइलुन----फ़ाइलुन----फ़ाइलुन--<br />बह्र-ए-मुतदारिक मुसम्मन सालिम<br />अगर आप इस के सभी मुक़ाम पर ख़ब्न का ज़िहाफ़ लगा दें तो [ चूँकि ख़ब्न एक आम ज़िहाफ़ है तो <br />शे’र के किसी मुक़ाम पर लगाया जा सकता है सो लगा दिया ] तो हासिल होगा-<br /><span style="color: red;">112-------112------112---112 <span style="white-space: pre;"> </span> यानी <br />फ़इलुन --फ़इलुन --फ़इलुन --फ़इलुन </span> यानी सालिम बह्र की एक मुज़ाहिफ़ शकल <br />बह्र-ए- मुतदारिक मख़्बून मुसम्मन <br />तस्कीन-ए-औसत और तख़्नीक़ के अमल के बारे में क़िस्त--- में चर्चा कर चुका हूँ [ आप वहाँ देख सकते हैं। फिर भी संक्षेप में<br />यहाँ लिख दे रहा हूँ <br /><b>तस्कीन-ए-औसत </b>= किसी ’एकल मुज़ाहिफ़ रुक्न" में 3-मुतहर्रिक हर्फ़ [ जैसा कि ऊपर वाली बह्र में है ] में दो 1 , 1 एक साथ <br />[ अगल बगल ,आमने सामने ,Adjacent ] आ जाए तो 1 1 मिल कर -2- हो जायेगा।<br />तस्कीन-ए-औसत का अमल मुज़ाहिफ़ रुक्न "पर ही होता है । सालिम रुक्न पर कभी नहीं होता। और शर्त यह भी कि<br />इनके अमल से बह्र बदलनी नही चाहिए यानी इसका अमल करते करते मूल बह्र की शकल ऐसी न हो जाए कि पहले से किसी <br />मान्य और प्रचलित बह्र से मेल खा जाए । यह एक बन्दिश है ।<br />अगर अब इस बह्र पर ’तस्कीन-ए-औसत का अमल कर दिया जाए तो क्या हासिल होगा ? हासिल होगा<br /><b style="background-color: #fcff01;">22--22---22---22--- [क]</b><br /> इस बह्र की भी मुसम्मन मुज़ाइफ़ शकल यानी 16-रुक्नी बह्र भी मुमकिन है ।और लोग उस बह्र में भी शायरी करते है ।<br />हालाँकि इस बह्र के और भी मुतबादिल औज़ान [ आपस में बदले जाने वाले वज़न ] बरामद होंगे या हो सकते हैं मगर यहाँ मैने मात्र एक शकल<br />ही लिया है ।विषय की सुगमता के लिए उन तमाम औज़ान का ज़िक्र यहाँ नहीं कर रहा हूँ। <br />=== =====<br />अच्छा अब एक दूसरी बह्र देखते हैं।<br /><span style="color: red;">[2 आप यह बह्र भी पहचानते होंगे <br />21---121--121--122 </span><br />[ बह्र-ए-मुतक़ारिब असरम मक़्बूज़ मक़्बूज सालिम अल आख़िर]<br />यानी यह भी एक मुज़ाहिफ़ शकल है ्बह्र-ए-मुतक़ारिब का।<br />अब अगर इस बह्र पर ’तख़्नीक़ ’ का अमल कर दिया जाए तो क्या हासिल होगा ?<br />तख़नीक़ का अमल बिल्कुल तस्कीन के अमल जैसा होता है ,बन्दिश भी वही होती है । फ़र्क सिर्फ़ इतना है कि तस्कीन का अमल --जब एकल रुक्न में<br />3- मुतहर्रिक साथ आते है तब । तख़्नीक के अमल तब होता है जब दो Adjacent रुक्न में ऐसी स्थिति [ यानी आ जाए जैसा कि ऊपर के बह्र में आ गया है ।<br />] में दो 1 , 1 एक साथ [ अगल बगल ,आमने सामने ,Adjacent ] आ जाए तो 1 1 मिल कर -2- हो जायेगा।<br />इस अमल से 21--121--121--12 का हासिल होगा<br /><b style="background-color: #fcff01;">22--22---22--22---[ख]</b><br />इस बहे की भी "मुसम्मन मुज़ाइफ़" यानी 16-रुक्नी बह्र मुमकिन है ।लोग उसमे शायरी भी करते है ।<br />हालाँकि इस बह्र के और भी मुतबादिल औज़ान [ आपस में बदले जाने वाले वज़न ] बरामद होंगे या हो सकते हैं मगर यहाँ मैने मात्र एक शकल<br />ही लिया है ।विषय की सुगमता के लिए उन तमाम औज़ान का ज़िक्र यहाँ नहीं कर रहा हूँ। <br />अगर आप ध्यान से देखें तो [क] और [ख] दोनो की शकल एक आहंग एक -परन्तु नाम दो<br />एक [क] <span style="white-space: pre;"> </span>मुतदारिक से हासिल हुआ<br />दूसरा [ ख] <span style="white-space: pre;"> </span>मुतक़ारिब से हासिल हुआ<br />चलते चलते एक सवाल<br />अगर आप से कोई मात्र यह शकल दिखा कर पूछे कि<span style="color: red;"><i> <b>22---22----22---22</b> </i></span> कौन सी बह्र है या इसका क्या नाम है ? तो आप क्या जवाब देंगे?<br />सादर</div><p style="text-align: left;">-आनन्द.पाठक-</p><div><br /></div>आनन्द पाठकhttp://www.blogger.com/profile/00352393440646898202noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3287188401583659492.post-6686713859337344062021-07-06T11:02:00.008+05:302021-07-08T11:50:52.110+05:30उर्दू बह्र पर एक बातचीत :क़िस्त 78 [आहंग एक --नाम दो ] [ भाग-1]<p><b> उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 78 [ आहंग एक -नाम दो ][ भाग-1]</b></p><p><br /></p><p> उर्दू शायरी में कभी कभी ऐसे मुक़ाम भी आ जाते हैं जब आहंग एक जैसे होते हैं मगर नाम </p><p>अलग अलग होते हैं । यह स्थिति कभी सालिम बह्र पर ज़िहाफ़ लगाने से हो जाती है तो कभी</p><p>किसी सालिम बह्रे के मुज़ाहिफ़ शकल पर ’तस्कीन या तख़नीक़ के अमल से पैदा हो जाति है ।</p><p>आज हम ऐसी ही 1-2 बह्र पर चर्चा करेंगे। </p><p>एक बह्र है </p><p><span style="background-color: #fcff01; color: red;">1212---1212---1212---1212-</span> यानी</p><p> मफ़ाइलुन --मफ़ाइलुन--मफ़ाइलुन--मफ़ाइलुन</p><p>देखते हैं कैसे ?</p><p>[क] आप यह बह्र तो पहचानते होंगे </p><p><b>2212--------------2212------------2212-----------2212-</b></p><p>मुस तफ़ इलुन -- मुस तफ़ इलुन ---मुस तफ़ इलुन --मुस तफ़ इलुन यानी</p><p>बह्र-ए-रजज़ मुसम्मन सालिम</p><p>अब इस बह्र पर ’ख़ब्न का ज़िहाफ़ लगा कर देखते हैं क्या होता ?</p><p>आप जानते हैं कि तमाम ज़िहाफ़ात में से एक ज़िहाफ़ "ख़ब्न" भी होता है ।</p><p>इसके अमल के तरीक़े आप जानते होंगे। जो नहीं जानते हैं उनके लिए संक्षेप में यहाँ लिख दे रहा हूँ।</p><p>ज़िहाफ़ ख़ब्न = अगर कोई सालिम रुक्न सबब-ए-ख़फ़ीफ़ [ यहाँ मुस--] से शुरु हो रहा हो तो दूसरे हर्फ़ [ जो साकिन होगा] को गिराने का अमल ख़ब्न कहलाता है ।यानी आसान भाषा में --यदि कोई सालिम रुक्न -2- से शुरु हो रहा है तो ज़िहाफ़ ख़ब्न उसे -1-कर देगा।और जो मुज़ाहिफ़ रुक्न हासिल होगा उसे ’मख़्बून’ कहेंगे।</p><p>ख़ब्न का शब्दकोषीय अर्थ ही होता है कंधे पर पड़े चादर या अंगरखे को लपेट कर छोटा करना । अरूज़ के संदर्भ में सालिम रुक्न [ जो 2- से शुरु होता है ] को छोटा कर के -1-कर देना समझ लें।</p><p>यह एक आम ज़िहाफ़ है, जो शे’र के किसी मुक़ाम पर [यानी पहले-दूसरे--तीसरे यहाँ तक कि चौथे मुक़ाम पर भी] लाया जा सकता है।अर्थात </p><p><b>मुस तफ़ इलुन [2 2 1 2 ] + ख़ब्न = मख़्न्बून 1 2 1 2 = मफ़ाइलुन </b></p><p>अब आप इस ज़िहाफ़ को [क] के सभी मुक़ाम पर लगा दें तो क्या होगा ? कुछ नहीं, नीचे वाला आहंग बरामद होगा</p><p><br /></p><p><span style="color: red;"><b style="background-color: #fcff01;">[का]<span style="white-space: pre;"> </span>1 2 1 2 ---1 2 1 2 ----1 2 1 2 ----1 2 1 2 </b></span></p><p><span style="white-space: pre;"> </span><b><i>मफ़ाइलुन--मफ़ाइलुन--मफ़ाइलुन--मफ़ाइलुन और नाम होगा</i></b></p><p><b><i><span style="white-space: pre;"> </span>बह्र-ए- रजज़ मख़्बून मुसम्मन </i></b></p><p>इस बह्र की मुसम्मन मुज़ाइफ़ [ दो-गुनी ]शकल भी होती है और शायरी भी होती है मगर बहुत कम । कहने का मतलब कि इस बह्र में शायरी की जा सकती है ।</p><p>एक ग़ज़ल ्के चन्द अश’आर इस बहर में उदाहरण के तौर पर लगा रहा हूँ । यह ग़ज़ल मेरे मित्र नीरज गोस्वामी [ जयपुर ] का है जो उनकी किताब</p><p>[डाली मोगरे की--संग्रह से साभार ]</p><p>ग़ज़ल </p><p><span style="color: #2b00fe;">तुझे किसी से प्यार हो तो हो रहे तो हो रहे </span></p><p><span style="color: #2b00fe;">चढ़ा हुआ ख़ुमार हो तो हो रहे तो हो रहे </span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><br /></span></p><p><span style="color: #2b00fe;">जहाँ पे फूल हों खिले वहाँ तलक जो ले चलो</span></p><p><span style="color: #2b00fe;">वो राह, ख़ारज़ार हो तो हो रहे तो हो रहे </span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><br /></span></p><p><span style="color: #2b00fe;">उजास हौसलो को साथ में लिए चले चलॊ</span></p><p><span style="color: #2b00fe;">घना जो अन्धकार हो तो हो रहे तो हो रहे </span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><br /></span></p><p><span style="color: #2b00fe;">मेरा मिजाज़ है कि मैं खुली हवा में साँस लूँ</span></p><p><span style="color: #2b00fe;">किसी को नागवार हो तो हो रहे तो हो रहे </span></p><p><br /></p><p> तक़्तीअ’ आप कर के देख लें ।</p><p>एक शे’र की तक़्तीअ’ आप की सुविधा के लिए कर दे रहा हूँ।</p><p>1 2 1 2 / 1 2 1 2 / 1 2 1 2 / 1 2 1 2</p><p>तुझे किसी /से प्यार हो /तो हो रहे /तो हो रहे = 1212--1212--1212--1212</p><p>1 2 1 2 / 1 2 1 2 / 1 2 1 2 / 1 2 1 2 </p><p>चढ़ा हुआ /ख़ुमार हो /तो हो रहे /तो हो रहे <span style="white-space: pre;"> </span>= 1 2 1 2 --1 2 1 2--1 2 1 2--1 2 1 2 </p><p><br /></p><p>=== ======== =======</p><p>अब एक दूसरी बह्र देखते हैं </p><p>[ख ] आप यह बह्र तो पहचानते होंगे </p><p><b><span style="color: red;">1222------1222-----1222-------1222 <span style="white-space: pre;"> </span>यानी </span></b></p><p><b>मफ़ाईलुन--मफ़ाईलुन---मफ़ाईलुन---मफ़ाईलुन यानी</b></p><p><b>बह्र-ए-हज़ज मुसम्मन सालिम</b></p><p> आप जानते हैं कि तमाम ज़िहाफ़ात में से एक ज़िहाफ़ ’कब्ज़’ भी होता है।</p><p>इसके अमल के तरीक़े आप जानते होंगे। जो नहीं जानते हैं उनके लिए संक्षेप में यहाँ लिख दे रहा हूँ।</p><p>ज़िहाफ़ कब्ज़ = अगर कोई सालिम रुक्न वतद-ए-मज्मुआ [ यहाँ मफ़ा --] से शुरु होता है और उसके ठीक बाद ’सबब--ए-ख़फ़ीफ़ [यहाँ -ई- ] हो तो <span style="white-space: pre;"> </span><b style="background-color: #fcff01;">’पाँचवे ’ </b>हर्फ़ [ जो साकिन होगा ] को गिराना-कब्ज़ का अमल कहलाता है ।और जो मुज़ाहिफ़ शकल बरामद होगी उसे ’मक़्बूज़’ कहते हैं</p><p>आसान भाषा में आप इसे यूँ समझ लें </p><p>--कि अगर कोई बह्र 1222 -से शुरु हो रहा है - तो तीसरे मक़ाम पर -2- को -1- कर देना कब्ज़ कहलाता है ।</p><p>अर्थात </p><p><b>मफ़ाईलुन [1222 ] + कब्ज़ = मक़्बूज़ 1 2 1 2 [ मफ़ाइलुन ] </b></p><p>यह एक आम ज़िहाफ़ है, जो शे’र के किसी मुक़ाम पर [यानी पहले-दूसरे--तीसरे यहाँ तक कि चौथे मुक़ाम पर भी] लाया जा सकता है।</p><p>हम इसे सभी मुक़ाम पर लगा कर देखते हैं । तो हासिल होगा </p><p><b><span style="background-color: #fcff01; color: red;">[खा] 1 2 1 2 - --1 2 1 2 -- -1 2 1 2 -- 1 2 1 2 </span></b></p><p><span style="white-space: pre;"> </span>मफ़ाइलुन---मफ़ाइलुन--मफ़ाइलुन--मफ़ाइलुन और नाम होगा </p><p><span style="white-space: pre;"> </span>बह्र-ए-हज़ज मक्बूज़ मुसम्मन </p><p>इस बह्र में भी शायरी की जा सकती है । मगर लोग न जाने क्यों इस दिलकश बह्र में भी बहुत कम शायरी करते हैं</p><p>और इस बह्र की भी मुसम्मन मुज़ाइफ़ [ दो-गुनी ] शकल मुमकिन है । </p><p>एक ग़ज़ल ्के चन्द अश’आर इस बहर में उदाहरण के तौर पर लगा रहा हूँ । यह ग़ज़ल मेरे मित्र नीरज गोस्वामी [ जयपुर ] का है जो उनकी किताब</p><p>[डाली मोगरे की--संग्रह से साभार ]</p><p><span style="color: #4c1130;">ग़ज़ल </span></p><p><span style="color: #4c1130;">चमक है जुगनूऒं में कम, मगर उधार की नहीं</span></p><p><span style="color: #4c1130;">तू चाँद आबदार हो तो हो रहे तो हो रहे </span></p><p><span style="color: #4c1130;"><br /></span></p><p><span style="color: #4c1130;">जहाँ उसूल दाँव पर लगे वहाँ उठा धनुष</span></p><p><span style="color: #4c1130;">न डर जो कारज़ार हो तो हो रहे तो हो रहे </span></p><p><span style="color: #4c1130;"><br /></span></p><p><span style="color: #4c1130;">फ़क़ीर है मगर कभी गुलाम मत हमे समझ</span></p><p><span style="color: #4c1130;">भले तू ताजदार हो तो हो रहे तो हो रहे </span></p><p><br /></p><p><span style="color: red;"><span style="white-space: pre;"> </span>-नीरज गोस्वामी -</span></p><p>इन अश’आर की तक़्तीअ’ आप खुद कर के देख लें और निश्चिन्त हो लें ।</p><p>======</p><p>अब अपनी बात समेटते हुए</p><p> <span style="color: red;">[का]<span style="white-space: pre;"> </span>1 2 1 2 ---1 2 1 2 ----1 2 1 2 ----1 2 1 2 </span></p><p><span style="color: red;">[खा] 1 2 1 2 - --1 2 1 2 -- -1 2 1 2 -- 1 2 1 2 </span></p><p><br /></p><p>दोनॊ आहंग एक जैसा --पर नाम अलग अलग </p><p>पहली बह्र ---रजज़ -+ ख़्बन से बरामद हुई</p><p>दूसरी बह्र --हज़ज + कब्ज़ से बरामद हुई</p><p>मगर आहंग -एक -है नाम अलग अलग है।</p><p><br /></p><p>अच्छा अब एक बात और </p><p><span style="color: red;"><b><i>1212--1212---1212---1212-- [ रजज़ बह्र का मख़्बून ----}</i></b></span></p><p><span style="color: red;"><b><i>1212--1212---1212--1212 - [ हज़ज का मक़्बूज़-----]</i></b></span></p><p> और दोनों बह्रें अरूज़ के क़ायदे के मुताबिक़ ही बरामद की थी </p><p>मगर अरूज़ की किताबों में ’हज़ज के मक़्बूज़ मुज़ाहिफ़ वाले बह्र का चर्चा तो है । मगर </p><p>रजज़ के इस मख़्बून शकल [1212--1212--1212--1212-] की हू ब हू की कोई चर्चा नहीं मिलता।</p><p>जब कि रजज़ के दीगर मख़्बून शकल की चर्चा है।</p><p>पता नहीं क्यों ?</p><p>अपने अपने दलाइल [ दलीलें ] हो सकते हैं </p><p>शायद एक कारण यह हो कि दो बह्र का एक नाम या एक जैसे नाम से ’कन्फ़्यूजन ’ न पैदा हो इसलिए इस बह्र की चर्चा एक ही जगह [ हज़ज में ] की गई हो और यही मान्यता प्राप्त हो।हज़ज बह्र में ही इस बह्र की ही तर्ज़ीह दी गई है ।</p><p>आप लोगों की क्या राय है। बताइएगा ज़रूर।</p><p>सादर</p><p>-आनन्द.पाठक -</p><p><br /></p>आनन्द पाठकhttp://www.blogger.com/profile/00352393440646898202noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3287188401583659492.post-66419330023040672772021-06-08T11:44:00.005+05:302024-02-26T11:24:10.728+05:30उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 77 [ सबसे लम्बी बह्र ??? ]<p><span style="color: red;"> <b>उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 77 [ सबसे लम्बी बह्र ???]</b></span></p><p style="text-align: left;"><span style="font-weight: normal;">पिछली क़िस्त 62 में " सबसे <span style="color: red;">छोटी बह्र </span>" पर एक चर्चा की थी।<br /></span></p><p><span style="font-weight: normal;">आज हम ’सबसे <span style="color: red;">बड़ी बह्र या सबसे लम्बी बह्र</span> ’ पर बात करेंगे कि क्या कोई सबसे बड़ी या सबसे लम्बी बह्र हो सकती है ? क्या अरूज़ में ऐसी कोई मख़्सूस ] ख़ास निर्धारित की गई है ।या छोटी बह्र की तरह यह भी एक Perception मात्र है ?<br /></span><span style="font-weight: normal;"> अभी तक किसी शायर को यह लिखते हुए नहीं देखा -<br /></span><span style="font-weight: normal;"><span style="color: #2b00fe;">"-- बड़ी बह्र में एक ग़ज़ल पेश-ए-ख़िदमत है---" </span>। शायद आप ने देखा हो ।<br /></span><span style="font-weight: normal;">अच्छा, जब किसी ने यह लिखा ही नहीं -</span><span style="font-weight: normal;">तो बहस किस बात की ! </span></p><p><span style="font-weight: normal;">मगर इस पर विचार करने में हर्ज भी क्या है । विचार तो किया जा सकता है ।</span></p><p><span>अच्छा, अब मूल विषय पर आते हैं-- सबसे <i><b><span style="color: #800180;">लम्बी बह्र क्या है या क्या हो सकती है </span>।</b></i><br /></span><span style="font-weight: normal;">बज़ाहिर [ स्पष्टत: ] सबसे लम्बी बहर वह बहर हो सकती है जिसमें मापनी [ अर्कान ] की संख्या और मात्रा भार [वज़न ]ज़्यादा से ज़्यादा हो और जो अरूज़ के नियमों से बनी हो।<br />[ मालूम रहे कि अरूज़ में ऐसी कोई पर्रिभाषा नही दिया गया है --यह अरूज़ का विषय है भी नहीं --यह तो ’पर्सेप्शन का विषय है। यह अलग बात है कि ऐसी बह्र प्रचलन में है भी या नहीं । या ऐसी बह्र में कोई शायरी करता भी है या नहीं। सबसे लम्बी बह्र में शायरी करने की कोई मनाही तो नहीं। फ़न या हुनर के लिए तब’अ आज़माई तो की ही जा सकती है। ख़ैर जो भी हो।</span></p><p><span style="font-weight: normal;"><br /></span><span style="font-weight: normal;">सामान्यतया लोग मुसम्मन [ यानी शे;र में मापनी की संख्या 8 वाली] बहर में शायरी करते है और सुविधाजनक भी है । अगर इनको </span><span><b>मुज़ाइफ़ [ दो गुना ] </b></span><span style="font-weight: normal;">कर दे तो बह्र का नाम होगा --मुसम्मन मुज़ाइफ़-- और अर्कान की संख्या होगी 16 यानी 8 x 2 होगी जो क्लासिकल अरूज़ के लिहाज़ </span><span style="font-weight: normal;">से सबसे ज़्यादा अर्कान वाली बह्र होगी। ऐसी बह्र को 16-रुक्नी बह्र भी कहते हैं।</span><span style="font-weight: normal;">[ नोट - मुसम्मन और मुज़ाइफ़ की चर्चा पहले कर चुका हूँ।</span></p><p><span style="font-weight: normal;"><br /></span><span style="font-weight: normal;">मुज़ाहिफ़ और मुज़ाइफ़ से आप confuse न हों ।तलफ़्फ़ुज़ लगभग एक जैसा है ।<br /></span><span style="font-weight: normal;"> मुज़ाहिफ़ रुक्न --सालिम रुक्न पर ज़िहाफ़ लगाने से हासिल होता है।<br /></span><span style="font-weight: normal;">और "मुज़ाइफ़"--माने किसी चीज़ को "दो गुना’ करना होता है या युगल होना। ख़ैर।</span></p><p><span style="font-weight: normal;"><br /></span><span style="font-weight: normal;">अब कुछ 16- रुक्नी बह्र में अज़ीम शो’अरा की ग़ज़ल के 2-4 शे’र देख लेते है फ़िर उनमें इस्तेमाल हुई " मात्रा भार [वज़न ] की संख्या" पर विचार करेंगे।<br /></span><span style="font-weight: normal;">पूरी ग़ज़ल ’रेख्ता’ साइट पर मिल जायेगी।<br /></span><span style="font-weight: normal;">इस बह्र को आप पहचानते होंगे<br /></span><span><span style="color: red;"><b> 21--121--121--122 // 21-121-121-12 = एक मिसरा में 16//14= 30 मात्रा</b></span><br /></span><span style="font-weight: normal;">जी बिलकुल सही पकड़ा।<br /></span><span style="font-weight: normal;">जी हाँ । यह ’मीर’ की बह्र है --जिसके एक शे’र में 16-रुक्न इस्तेमाल होते हैं यानी मिसरा में -8<br /></span><span style="font-weight: normal;">हमारे बहुत से मित्र<span style="background-color: #fcff01; color: red;"> 21--121--121--122</span> को ही मीर का बह्र कह देते है या समझ लेते हैं<br /></span><span style="font-weight: normal;">या फिर <span style="background-color: #fcff01;"> 21--121--121---12 </span>को ही मीर का बह्र कह देते है ।<br /></span><span style="font-weight: normal;">Individually ये दोनॊ अलग अलग बह्र हैं और इनके अलग अलग नाम भी हैं ।।लेकिन जब यह <br /></span><span style="font-weight: normal;">combined हो कर एक साथ आती हैं तो -मीर की बह्र -कहलाती हैं ।<br /></span><span style="font-weight: normal;">[<span style="background-color: #fcff01;"> मीर की बह्र --पर एक विस्तृत आलेख मेरे ब्लाग ’ उर्दू बह्र पर एक बातचीत " -किस्त 59 पर उपलब्ध है </span>} इच्छुक पाठकों <br /></span><span style="font-weight: normal;">की सुविधा के लिए और विशेष जानकारी के लिए लिन्क रहा हूँ<br /></span><span style="color: red; font-weight: normal;">https://aroozobahr.blogspot.com/2020/06/60.html<br /></span><span style="font-weight: normal;"><span style="color: red;">उर्दू बह्र पर एक बातचीत -किस्त 59</span><br /></span><span style="font-weight: normal;">इन तमाम बह्र और अर्कान [ मापनी ] के नाम भी हैं ।मैं इन सब के नाम जानबूझ कर नहीं लिख रहा हूँ।कारण?<br /></span><span style="font-weight: normal;">कारण कि मेरे बहुत से साथी बह्र को उनके नाम से से नही बल्कि Numerical अलामत [ चिह्नों [ जैसे 1222--1222 आदि से जानते और पहचानते है<br /></span><span style="font-weight: normal;">नाम लिखने से उन लोगों को लेख समझना और दुरूह हो जाएगा।<br /></span><span style="font-weight: normal;">मीर ने इस बह्र में कई ग़ज़लें कहीं है .जिसमें --एक मशहूर ग़ज़ल यह भी है<br /></span><span style="font-weight: normal;"> <br /></span><span style="font-weight: normal;">मूल बह्र 21--121--121--122 // 21-121-121-12 = 16/14 = 30 मात्रा भार वज़न एक मिसरा में।</span></p><p><span style="font-weight: normal;"><br /></span><span style="color: red;"><i><span style="font-weight: normal;">पत्ता पता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है<br /></span><span style="font-weight: normal;">जाने न जाने गुल ही न जाने बाग़ तो सारा जाने है</span></i></span></p><p><span style="color: red;"><i><span style="font-weight: normal;"><br /></span><span style="font-weight: normal;">आशिक़ सा तो सादा कोई और न होगा दुनिया में<br /></span><span style="font-weight: normal;">जी के जिया को इश्क़ में उसके अपना वारा जाने है</span></i></span></p><p><span style="color: red;"><i><span style="font-weight: normal;"><br /></span><span style="font-weight: normal;"><span style="white-space: pre;"> </span>-मीर तक़ी मीर-</span></i></span><span style="font-weight: normal;"><br /></span><span style="font-weight: normal;">नीचे वाली गज़ल मीर का है पर मीर की बहर नहीं है -<br /></span><span style="font-weight: normal;">नीचे [121-22 ] को ग्रुपिंग कर के दिखा रहा हूँ कि समझने में सुविधा हो । वास्तव में ये दो अलग-अलग मुज़ाहिफ़ रुक्न है जो सालिम रुक्न पर ज़िहाफ़ के अमल से बरामद होते हैं<br /></span><span style="font-weight: normal;">मूल बह्र 121-22 / 121--22/ 121-22/ 121-22/= 32 मात्रा भार वज़न एक मिसरा मे। मिसरा में 8-रुक्न</span></p><p><span style="font-weight: normal;"><br /></span><span style="color: red;"><i><span style="font-weight: normal;">करो तवक्कुल कि आशिक़ी में न यूँ करोगे तो क्या करोगे<br /></span><span style="font-weight: normal;">अलम जो यह है दर्द मन्दॊं कहाँ तलक तुम दवा करोगे</span></i></span></p><p><span style="color: red;"><i><span style="font-weight: normal;"><br /></span><span style="font-weight: normal;">ग़म-ए-मुहब्बत से ’मीर’ साहब बतंग हूँ मैं फ़क़ीर हो तुम<br /></span><span style="font-weight: normal;">जो वक़्त होगा कभी मुसाइद तो मेरे हक़ मे दुआ करोगे</span></i></span></p><p><span style="color: red; font-weight: normal;"><i><br /></i></span><span style="font-weight: normal;"><span style="color: red;"><i><span style="white-space: pre;"> </span>-मीर तक़ी मीर-</i></span><br /></span><span style="font-weight: normal;">16-रुक्नी बह्र में कुछ अन्य शायरो की ग़ज़ल से 2-4 शे’र लिख रहा हूँ <br /></span><span style="font-weight: normal;">[ख] <br /></span><span style="font-weight: normal;">मूल बह्र 22-112/22-112//22-112/22-112 = 32 मात्रा भार एक मिसरा में ।यानी मिसरा में 8-रुक्न</span></p><p><span style="font-weight: normal;"><br /></span><span style="color: red;"><i><span style="font-weight: normal;">मयख़ाना-ए-हस्ती में अकसर हम अपना ठिकाना भूल गए<br /></span><span style="font-weight: normal;">या होश में जाना भूल गए या होश में आना भूल गए</span></i></span></p><p><span style="color: red;"><i><span style="font-weight: normal;"><br /></span><span style="font-weight: normal;">मालूम नहीं आइने में चुपके से हँसा था कौन "अदम"?<br /></span><span style="font-weight: normal;">हम जाम उठाना भूल गए ,वो साज़ बजाना भूल गए <br /></span></i></span><span style="font-weight: normal;"><span style="color: red;"><i><span style="white-space: pre;"> </span>अब्दुल हमीद ’अदम’-</i></span><br /></span><span style="font-weight: normal;">[ग] <br /></span><span style="font-weight: normal;">मूल बह्र 121--22/121-22//121-22/ 121-22 = 32 मात्रा भार एक मिसरा में</span></p><p><span style="font-weight: normal;"><br /></span><span style="color: red;"><i><span style="font-weight: normal;">लतीफ़ पर्दों से नुमायां मकीं के जल्वे मकां से पहले<br /></span><span style="font-weight: normal;">मुहब्बत आइना हो चुकी थी वजूद-ए-बज़्म-ए-जहाँ से पहले</span></i></span></p><p><span style="color: red;"><i><span style="font-weight: normal;"><br /></span><span style="font-weight: normal;">अज़ल से शायद लिखे हुए थे ’शकील’ किस्मत में जौर-ए-पैहम<br /></span><span style="font-weight: normal;">खुली जो आँखें इस अंजुमन में नज़र मिली आस्मां से पहले<br /></span></i></span><span style="font-weight: normal;"><span style="color: red;"><i><span style="white-space: pre;"> </span>शकील बदायूनी</i></span></span></p><p><span style="font-weight: normal;"><span style="color: red;"><i><br /></i></span></span><span style="font-weight: normal;">22--112/ 22-112 //22-112/ 22-112<br /></span><span style="color: red;"><i><span style="font-weight: normal;">हंगामा-ए-ग़म से तंग आकर इज़हार-ए-मसर्रत कर बैठे<br /></span><span style="font-weight: normal;">मशहूर थी अपनी ज़िन्दा-दिली दानिस्ता शरारत कर बैठे</span></i></span></p><p><span style="color: red;"><i><span style="font-weight: normal;"><br /></span><span style="font-weight: normal;">अल्लाह तो सब की सुनता है ,जुर्रत है ”शकील’अपनी-अपनी<br /></span><span style="font-weight: normal;">’हाली’ ने ज़बाँ से उफ़ भी न की ,’इक़बाल’ शिकायत कर बैठे<br /></span></i></span><span style="font-weight: normal;"><span style="color: red;"><i><span style="white-space: pre;"> </span>शकील बदायूनी</i></span><br /></span><span style="font-weight: normal;">इन सब उदाहरणों से स्पष्ट है कि 16- रुक्नी मक़्बूल [ लोकप्रिय ] बह्र में एक मिसरा में ज़्यादातर वजन =32 का आता है।<br /></span><span style="font-weight: normal;">जब कि मीर की बहर में =30 मात्रा ही आ रही है यानी -2- कम } इसे अरूज़ की भाषा में -सबब-ए-ख़फ़ीफ़ [ 2] बोलते है।<br /></span><span style="font-weight: normal;">बाक़ी सभी बह्रे मुज़ाइफ़ बह्रें हैं --मीर की बह्र मुज़ाइफ़ बह्र नहीं है ।<br /></span><span style="font-weight: normal;">मुजाइफ़ बह्र के लिए ज़रूरी है कि इसको दो बराबर -बराबर भाग में बाँटा जा सकें जब कि मीर की बह्र 16//14 unequal हैi|<br /></span><span style="font-weight: normal;">ख़ैर।<br /></span><span style="font-weight: normal;">अब इन मुज़ाइफ़ बह्रों की कल्पना कीजिए <br /></span><span style="font-weight: normal;">जो 16-रुक्नी तो है मगर मात्रा भार [वज़न ] अलग है <br /></span><span style="font-weight: normal;">122--122--122-122 // 122--122--122-122 = 40 मात्रा भार एक मिसरा में [ नाम आप जानते होंगे}<br /></span><span style="font-weight: normal;">------<br /></span><span style="font-weight: normal;">212---212---212---212-// 212--212--212--212 = 40 मात्रा भार वज़न बह्र का भी नाम आप जानते होंगे।<br /></span><span style="font-weight: normal;">"मुतदारिक सालिम मुसम्मन मुज़ाइफ़ " इस बह्र में भी एक ग़ज़ल के चन्द अश’आर देख लीजिए--</span></p><p><span style="font-weight: normal;"><br /></span><span style="font-weight: normal;">212--212--212--212-// 212--212--212-212= </span></p><p><span style="color: red;"><i><span style="font-weight: normal;">दिल दुखाए कभी ,जाँ जलाए कभी, हर तरह आज़माए तो मैं क्या करूँ ?<br /></span><span style="font-weight: normal;">मैं उसे याद करता रहूँ हर घड़ी , वो मुझे भूल जाए तो मैं क्या करूँ ?</span></i></span></p><p><span style="color: red;"><i><span style="font-weight: normal;"><br /></span><span style="font-weight: normal;">मैने माना कि कोई ख़राबी नहीं , पर करूँ क्या तबियत ’गुलाबी’ नहीं<br /></span><span style="font-weight: normal;">मैं शराबी नहीं ! मैं शराबी नहीं ! वो नज़र से पिलाए तो मैं क्या करूँ ?<br /></span></i></span><span style="font-weight: normal;"><span style="color: red;"><i><span style="white-space: pre;"> </span>सरवर आलम राज़ ’सरवर’</i></span></span></p><p><span style="font-weight: normal;"><span style="color: red;"><i><br /></i></span></span><span style="font-weight: normal;">यदि यही Logic अन्य सालिम बह्रों पर लगाया जाए ,जैसे -</span></p><p><span style="font-weight: normal;">हज़ज [ 1222 ] ,रमल [2122] ----- कामिल [11212] जैसी बह्रों का ’मुसम्मन मुज़ाइफ़" बनाया जाए तो क्या होगा ?<br /></span><span style="font-weight: normal;">बनाया जा सकता है ।Theoretically and technically possible है } । अरूज़ में मनाही तो है नही कि इन मुज़ाइफ़ बह्रों में ग़ज़ल <br /></span><span style="font-weight: normal;">नहीं कही जा सकती । आप कर सकते हैं अगर आप में हुनर है । मुझे यक़ीन है कि आप कर सकते है [ तबअ’ आज़माई के तौर पर ही<br /></span><span style="font-weight: normal;">सही या फ़नी एतबार से ही सही }<br /></span><span style="font-weight: normal;">मगर आज तक ऐसी कोई ग़ज़ल मेरी नज़र से गुज़री नही । अगर आप की नज़र से गुज़री हो तो अलग बात है।<br /></span><span style="font-weight: normal;">1222--1222--1222--1222-// 1222--1222-1222-1222- = 56 मात्रा एक मिसरा में या ऐसे ही और कोई सालिम बह्र<br /></span><span style="font-weight: normal;"><span style="color: red;">तो क्या यह सबसे लम्बी बह्र हो सकती है ?</span></span></p><p><span style="font-weight: normal;"><span style="color: red;"><br /></span></span><span style="font-weight: normal;"> हो सकती है । मगर अमलन [ Practically या व्यावहारिक रूप से ] होती नहीं ।कोई शायर इतनी लम्बी बह्र में शायरी करता नहीं।<br /></span><span style="font-weight: normal;"> कारण ? नहीं मालूम <br /></span><span style="font-weight: normal;">--शायद एक कारण यह हो कि इतनी लम्बी बह्र में शे’र को पढ़ना आसान काम न हो। स<br /></span><span style="font-weight: normal;">--शायद इतनी लम्बी बह्र में भाव को ,अल्फ़ाज़ [ शब्दों ] को एक साथ बाँध कर [ गुम्फ़ित कर के condensed कर के ] जमाए रखना आसान काम न हो<br /></span><span style="font-weight: normal;">--शायद मिसरा या शे’र का कसाव ढीला हो जाए तो शे’र हल्का हो जायेगा श्रोताऒ कॊ बाँध न पाए।<br /></span><span style="font-weight: normal;">कारण जो भी हो । मैने लम्बी बह्र की एक संभावना व्यक्त की है कि यह सबसे लम्बी बह्र हो सकती है ।<br /></span><span style="font-weight: normal;">एक मज़ेदार बात और ।<br /></span><span style="font-weight: normal;">क्या आप जानते है कि जदीद शायरी मे [ आधुनिक शायरी ] में एक मिसरा में 5-अर्कान [ यानी एक शे’र में 10-रुक्न ] कुछ लोग शायरी करते है ।जहाँ क्लासिकल अरूज़<br /></span><span style="font-weight: normal;">[ मुसम्मन तक ] खत्म हो जाता है उसके आगे की शायरी। हालाकि ऐसी ग़ज़ल बहुत प्रचलन में नहीं है मक़्बूलियत हासिल नहीं है ,मान्यता नहीं मिली मगर कुछ लोग करते हैं।<br /></span><span style="font-weight: normal;">आटे में नमक के बराबर ही सही।आप भी कर सकते हैं ।मनाही नहीं है ।<br /></span><span style="font-weight: normal;"> अगर कल्पना करें कि ऐसे शे’र [ एक मिसरा में 5-रुक्न ] का मुज़ाइफ़ करेंगे तो क्या हासिल होगा : ? यानी एक शेर में </span><span style="font-weight: normal;">20- अर्कान ।यानी ज़्यादा से ज़्यादा 7x 20 =140 मात्रा भार वज़न [ अगर 7- हर्फ़ी सालिम रुक्न का इस्तेमाल हुआ हो तो ]<br /></span><span style="font-weight: normal;"> बस बस अब रहने दीजिए । छोड़िए अब यह बात, बहुत हो गई । हा हा हा हा ।<br /></span><span style="font-weight: normal;"> ज़्यादातर शायर मुसम्मन और मुसद्दस बहे में शायरी करना पसन्द करते है ?<br /></span><span style="font-weight: normal;">इसलिए कि अनुभव के आधार पर यही Optimum स्थिति है जिसमे शे’र कसा हुआ रहता है भाव गठे हुए रहते हैं अदायगी बेहतर होती है ।<br /></span><span style="font-weight: normal;">।आप जिस बह्र मे comfortable feel करें उसी बह्र में शायरी करें। "छोटी बह्र" --"लम्बी बह्र" की बह्स में न उलझे । बात निकली तो </span><span style="font-weight: normal;">बेबात की बात कर ली।<br /></span><span style="font-weight: normal;"><br /></span><span style="font-weight: normal;">[नोट - इस मंच के गुरुजनॊ से करबद्ध प्रार्थना है कि अगर इस लेख में कुछ तथ्यात्मक दोष दृष्टिगोचर हो तो कृपया ध्यान में अवश्य लाएं जिससे मैं स्वयं को सही कर सकूँ ]<br /></span><span style="font-weight: normal;">सादर</span></p><p><span style="font-weight: normal;"><br /></span><span style="font-weight: normal;">-आनन्द पाठक--<br /></span><br /></p><p></p><p style="text-align: left;"><br /></p>आनन्द पाठकhttp://www.blogger.com/profile/00352393440646898202noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-3287188401583659492.post-32607109545447902592021-01-12T19:34:00.003+05:302021-01-30T12:33:40.619+05:30उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 76 [ तस्कीन-ए-औसत का अमल ]<p><span style="white-space: pre;"> <span style="color: red;"><b> </b></span></span><span style="color: red;"><b>तस्कीन-ए-औसत का अमल </b></span></p><p><br /></p><p>इससे पहले हमने तख़नीक के अमल पर चर्चा की थी ।जैसे</p><p>क़िस्त 59--मीर की बह्र की चर्चा के समय<br />क़िस्त 60-- रुबाई की बह्र की चर्चा के समय</p><p> आज तस्कीन-ए-औसत के अमल पर चर्चा करेंगे । संक्षेप में क़िस्त 61 [ माहिया की बह्र की चर्चा करते समय इस पर भी चर्चा कर चुका हूँ ]आज विस्तार से इस पर चर्चा करूँगा।</p><p>वस्तुत: दोनो का अमल एक जैसा ही है फ़र्क़ बस यह है कि तक़नीक़ के अमल में ’दो consecutive रुक्न</p><p>में 3-मुतस्सिल मुतहर्रिक " आते हैं तब लगाते है जब कि ’तस्कीन के अमल में ’एक ही रुक्न मे" 3-मुतस्सिल </p><p>मुतहर्रिक आते हैं तब अमल दरामद होता है । शर्ते दोनो ही स्थिति में वही है ।</p><p>1- यह अमल हमेशा ’मुज़ाहिफ़ रुक्न [ ज़िहाफ़ शुदा रुक्न ] पर ही लगता है---</p><p>सालिम रुक्न पर कभी नहीं लगता। जैसे अगर्चे बह्र-ए-कामिल [ मुतफ़ाइलुन 1 1 212 ] या बह्र-ए-वाफ़िर [ मुफ़ा इ ल तुन 1 2 1 1 2 ] में भी मुतस्सिल [लगातार ]3-मुतहर्रिक आते है पर तस्कीन-ए-औसत का अमल नहीं होता ।<br />कारण ? आप लगा कर देख लें--बात साफ़ हो जायेगी । मुतफ़ाइलुन [11212] बदल जायेगा ---- [ आप बताएँ] </p><p>यानी मूल अर्कान / बह्र बदल जायेगी --जिसकी मनाही है इस के अमल में </p><p>2- इस अमल से बह्र बदलनी नहीं चाहिए</p><p>अब आगे बढ़ते है --</p><p>मुतदारिक का एक आहंग है - मुतदारिक मुसम्मन सालिम = फ़ाइलुन--फ़ाइलुन--फ़ाइलुन--फ़ाइलुन</p><p> 212---212---212---212-अगर इस पर ’ख़ब्न ’ का ज़िहाफ़ लगा दे तो रुक्न बरामद होगी</p><p><br /></p><p>112---112---112---112---यानी </p><p>फ़’अलुन ---फ़’अलुन ---फ़’अलुन --फ़’अलुन यानी मुज़ाहिफ़ रुक्न --और तीन मुतहररिक ’एक ही ’</p><p>रुक्न "फ़’अलुन’ [ फ़े--ऎन--लाम ] और अब इस पर तस्कीन-ए-औसत का [ तख़नीक का नहीं ध्यान रहे ] </p><p>अमल हो सकता है </p><p>हम 112---112---112---112- को मूल बह्र कहेंगे क्यों कि इसी बह्र से हम कई मुतबादिल औज़ान [ वज़न का बहु वचन ]</p><p>बरामद करेंगे---जो आप बाअसानी कर सकते है ।</p><p><br /></p><p>अब हम ’अदम ’ साहब की एक ग़ज़ल लेते हैं --जो इसी आहंग की ’मुज़ाइफ़ ’ [ दो-गुनी ] शकल है </p><p>यानी 112---112---112--112-// 112--112--112--112</p><p><br /></p><p><i><span style="color: red;">मयख़ाना-ए-हस्ती में अकसर हम अपना ठिकाना भूल गए</span></i></p><p><i><span style="color: red;">या होश से जाना भूल गए या होश में आना भूल गए</span></i></p><p><i><span style="color: red;"><br /></span></i></p><p><i><span style="color: red;">असबाब तो बन ही जाते हैं तकदीर की ज़िद को क्या कहिए</span></i></p><p><i><span style="color: red;">इक जाम तो पहुँचा था हम तक ,हम जाम उठाना भूल गए</span></i></p><p><br /></p><p>----</p><p>-----</p><p><br /></p><p><span style="color: red;"><i>मालूम नही आइने में चुपके से हँसा था कौन ’अदम’</i></span></p><p><span style="color: red;"><i>हम जाम उठाना भूल गए ,वो साज़ बजाना भूल गए</i></span></p><p><br /></p><p>[ पूरी ग़ज़ल गूगल पर मिल जायेगी ]</p><p>आप की सुविधा के लिए --मतला की तक़्तीअ’ कर दे रहे हैं ---बाक़ी अश’आर की तक़्तीअ आप कर लें --तो मश्क़ </p><p>का मश्क़ हो जायेगा \</p><p> 2 2 / 1 1 2 / 2 2 / 2 2 // 2 2 / 1 1 2 / 2 2/ 1 2 2</p><p>मय ख़ा/ न:-ए-हस/ ती में /अकसर //हम अप /ना ठिका/ना भू/ल गए = 22--112---22--22--//22--112--22---112</p><p><br /></p><p>2 2 / 1 1 2 / 2 2/ 1 1 2 // 2 2 / 1 1 2 / 2 2 / 1 1 2<span style="white-space: pre;"> </span> = 22----112---22-112-//22--112---22---112</p><p>या हो /श से जा/ना भू/ल गए // या हो/श में आ/ना भू/ल गए</p><p> इस में आवश्यकतानुसार --11 को 2 लिया गया है जो ’तस्कीन के अमल से जायज़ है ।</p><p><br /></p><p>अब एक ग़ज़ल शकील बदायूनी वाली लेते है </p><p><br /></p><p><span style="color: red;"><i>करने दो अगर कत्ताल-ए जहाँ तलवार की बाते करते हैं</i></span></p><p><span style="color: red;"><i>अर्ज़ा नही होता उनका लहू जो प्यार की बाते करते है</i></span></p><p><span style="color: red;"><i><br /></i></span></p><p><span style="color: red;"><i>ग़म में भी रह एहसास-ए-तरब देखो तो हमारी नादानी</i></span></p><p><span style="color: red;"><i>वीराने में सारी उम्र कटी गुलज़ार की बातेम करते हैं</i></span></p><p><span style="color: red;"><i><br /></i></span></p><p><span style="color: red;"><i>ये अहल-ए-क़लम ये अहल-ए-हुनर देखो तो ’शकील’ इन सबके जिगर</i></span></p><p><span style="color: red;"><i>फ़ाँकों से हई दिल मुरझाए हुए ,दिलदार की बातें करते हैं</i></span></p><p><br /></p><p>[ पूरी ग़ज़ल गूगल पर मिल जायेगी ]</p><p>आप की सुविधा के लिए --मतला की तक़्तीअ’ कर दे रहे हैं ---बाक़ी अश’आर की तक़्तीअ आप कर लें --तो मश्क़ </p><p>का मश्क़ हो जायेगा ।</p><p><br /></p><p> 2 2 / 1 1 2 / 2 2 / 1 1 2 // 2 2 / 1 1 2 / 2 2 / 2 2= 22--112---22---112--// 22--112---22--22</p><p>कर ने / दो अगर /कत ता /ल जहाँ //तल वा/र की बा/ते कर /ते हैं</p><p><br /></p><p> 2 2 / 1 1 2 / 2 2 / 1 1 2 // 2 2 / 1 1 2 / 2 2 / 2 2 = 22---112--22--112 // 22--112--22--22</p><p>अर् ज़ा /नही हो/ ता उन/का लहू /जो प्या/ र की बा/ते कर /ते है</p><p><br /></p><p>यानी किसी भी रुक्न के 112 को हम 22 कर सकते है [ तस्कीन-ए-औसत की अमल से ]</p><p>मगत 22-- को 112 नहीं कर सकते । और करेंगे तो किस अमल से ??? यही मेरा सवाल है ---अजय तिवारी जी से </p><p><br /></p><p>आप ऐसी ही 2-4 ग़ज़लो पर मश्क़ करते रहें इन्शाअल्लाह इसे सीखने में आप को कामयाबी मिलेगी</p><p><br /></p><p>-आनन्द.पाठक-</p><p><br /></p><p><br /></p><p><br /></p><p><br /></p><p><br /></p>आनन्द पाठकhttp://www.blogger.com/profile/00352393440646898202noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3287188401583659492.post-1096775218975272162020-11-12T11:08:00.002+05:302020-11-12T13:00:45.151+05:30 उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 001 [ सालिम रुक्न कैसे बनते है ?<p> <b style="color: red;">उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 001 [ सालिम रुक्न कैसे बनते है ?</b></p><p><br /></p><p><a href="https://urdusehindi.blogspot.com/2020/11/000.html" target="_blank">क़िस्त 000 </a>में हम 8-सालिम रुक्न की चर्चा कर चुके है । ये बनते कैसे हैं , आज हम उसी पर चर्चा करेंगे।</p><p> हर सालिम रुक्न सबब और वतद के योग से बनता है। आप जानते हैं कि शायरी के लिए 8- सालिम रुक्न मुक़र्रर है</p><p>। देखिए कैसे यह वतद और सबब के कलमा के योग से बनते हैं ।</p><p><br /></p><p><span style="color: red;">1-<span style="white-space: pre;"> </span>फ़ऊलुन فعولن </span><span style="white-space: pre;"> </span>= <span style="background-color: #fcff01;">फ़ऊ+ लुन </span><span style="white-space: pre;"> </span>= 12+ 2 <span style="white-space: pre;"> </span>= 1 2 2 <span style="white-space: pre;"> </span><span style="color: #2b00fe;">=<b>वतद </b></span>-<span style="background-color: #fcff01;">सबब</span></p><p><span style="color: red;">2-<span style="white-space: pre;"> </span>फ़ाइलुन فا علن </span><span style="white-space: pre;"><span style="color: red;"> </span> </span>=<span style="background-color: #fcff01;"> फ़ा + इलुन </span><span style="white-space: pre;"> </span>= 2 + 12 <span style="white-space: pre;"> </span>= 2 1 2 <span style="white-space: pre;"> </span>=<span style="background-color: #fcff01;">सबब+</span> <span style="color: #2b00fe;"><b>वतद</b></span></p><p><span style="color: red;">3-<span style="white-space: pre;"> </span>मुफ़ाईलुन مفا ٰعلن </span><span style="white-space: pre;"> </span>= <span style="background-color: #fcff01;">मुफ़ा +ई+लुन </span><span style="white-space: pre;"> </span>= 12 + 2 +2 <span style="white-space: pre;"> </span>= 1 2 2 2 <span style="white-space: pre;"> </span>=<span style="color: #2b00fe;"><b> वतद </b></span>+ <span style="background-color: #fcff01;">सबब+सबब</span></p><p><span style="color: red;">4-<span style="white-space: pre;"> </span>फ़ाइलातुन فاعلاتن</span><span style="white-space: pre;"> </span>= <span style="background-color: #fcff01;">फ़ा +इला+ तुन </span>= 2 +1 2 + 2<span style="white-space: pre;"> </span>= 2 1 2 2<span style="white-space: pre;"> </span>= <span style="background-color: #fcff01;">सबब</span>+ <span style="color: #2b00fe;"><b>वतद+</b></span> <span style="background-color: #fcff01;">सबब</span></p><p><span style="color: red;">5-<span style="white-space: pre;"> </span>मुस तफ़ इलुन مستفعلن </span> = <span style="background-color: #fcff01;">मुस+तफ़+इलुन </span>= 2+2+ 12<span style="white-space: pre;"> </span>=2 2 1 2 <span style="white-space: pre;"> </span>= <span style="background-color: #fcff01;">सबब+सबब</span>+ <span style="color: #2b00fe;"><b>वतद </b></span></p><p><span style="color: red;">6-<span style="white-space: pre;"> </span>मुतफ़ाइलुन متفاعلن<span style="white-space: pre;"> </span></span>=<span style="background-color: #fcff01;"> मु +त+फ़ा+इलुन </span>= (1+1)+2+12= 1 1 2 1 2 = <span style="background-color: #fcff01;">सबब+सबब </span>+<span style="color: #2b00fe;"><b>वतद </b></span></p><p><span style="color: red;">7-<span style="white-space: pre;"> </span>मुफ़ा इ ल तुन مفاعلتن<span style="white-space: pre;"> </span></span>= <span style="background-color: #fcff01;">मुफ़ा_ इ+ल+तुन </span>= 12 + {1+1) + 2= 1 2 1 1 2 = <span style="color: #2b00fe;"><b>वतद</b></span> + <span style="background-color: #fcff01;">सबब+ सबब</span></p><p><span style="color: red;">8-<span style="white-space: pre;"> </span>मफ़ऊलातु مفعلاتُ</span><span style="white-space: pre;"> </span>=<span style="background-color: #fcff01;"> मफ़+ऊ+लातु </span>= 2 +2+2 1<span style="white-space: pre;"> </span>= 2 2 2 1 <span style="white-space: pre;"> </span>= <span style="background-color: #fcff01;"> सबब+सबब</span>+<b><span style="color: #2b00fe;"> वतद </span></b></p><p><br /></p><p>ध्यान से देखें :- </p><p><span style="white-space: pre;"> </span>[अ]<span style="white-space: pre;"> </span>सभी रुक्न में -वतद -एक खूंटॆ [ PEG] की तरह स्थिर गड़ा हुआ है -और -सबब- एक रस्सी सा बँधा हुआ है इस खूंटे से,-जो कभी -वतद -के बाएं तो कभी दाएं आ जाते है --मगर वतद को छोड़ नही रहे है। इसीलिए मैने पिछले क़िस्त में कहा था कि अरबी में - वतद -का एक अर्थ ’खूँटा’ भी होता है और सबब का एक अर्थ ’रस्सी’ ।’सबब’ कभी”वतद’ के बाएँ --कभी दाएँ कभी दोनॊ बाएं -कभी दोनो दाएँ घूम रहे हैं।</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>[ब]<span style="white-space: pre;"> </span>आप देख रहे है -सबब - के किए कहीं -लुन--कहीं - फ़ा- कहीं -ई- कहीं -तुन-- कहीं -मुस-=- कहीं -तफ़- कहीं--मफ़- ये सब दो हर्फ़ी कलमा है जिसमे पहला हर्फ़ ’मुतहर्रिक’ है और दूसरा हर्फ़ :साकिन’ । सवाल यह है कि सबब-ए-ख़फ़ीफ़ के लिए कोई एक ही कलमा काफी था ,पता नहीं इतने लाने की क्या ज़रूरत थी । यह तो कोई अरूज़ी ही बता सकता है ।</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>[स] <span style="white-space: pre;"> </span>यही बात वतद के लिए भी है । कहीं- फ़ऊ- --कहीं -इलुन- कहीं -मुफ़ा- --कहीं -इला-लिया ,।</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>[द]<span style="white-space: pre;"> </span>मज़े की बात तो सबब-ए-सकील में के लिए है। वाफ़िर [ मफ़ा इ ल तुन ] में इसे --इ-ल- लिया मगर कामिल [ मु त फ़ा इलुन] में इसे मु-त -लिया[ दोनॊ मुतहर्रिक ] । मगर अलग अलग।</p><p>इन सभी सालिम अर्कान पर एक एक कर के चर्चा कर लेते हैं ।</p><p><span style="color: red;"><b>1- फ़ऊलुन فعولن =2 12 </b></span></p><p><span style="white-space: pre;"> </span>’फ़ऊलुन’[ फ़े’लुन]- एक सालिम रुक्न है और यह -"बहर-ए-मुतक़ारिब ’ का बुनियादी रुक्न है ।यह 5-हर्फ़ [ फ़े-ऐन- वाव--लाम --नून = 5 ] से मिल कर बना है तो इसे <span style="white-space: pre;"> </span>’ख़म्मासी’ रुक्न भी कहते हैं [ख़म्स: माने-5-वस्तुओं का समाहार ]-] फ़ऊ --क्या है ? कुछ नहीं है ।यह सालिम रुक्न " वतद-ए-मज्मुआ [फ़ऊ] + सबब-ए-ख़फ़ीफ़ [लुन] से मिल कर बना है यानी 1 2+2 = 1 2 2 से बनता है।</p><p>इस हमवज़न अल्फ़ाज़ हैं जैसे-----ज़माना/-- फ़साना-- बहाना--निशाना---वफ़ा कर/ सितमगर/ इशारा/ निगाहों / सितारों /सनम /मुकाबिल --- ऎसे बहुत से अल्फ़ाज़।</p><p>एक बात और । इसका वज़न हिन्दी के के गण [ देखें क़िस्त 000 ] यगंण [ यमाता = 1 2 2 ] के वज़न पर उतरता है । बस एक व्यवस्था है वज़न दिखाने का ।-फ़े -ऐन-वाव [ मुतहर्रिक +मुतहर्रिक + साकिन ] है जो वतद-ए-मज़्मुआ की नुमाइन्दगी कर रहा है बस।<span style="white-space: pre;"> </span>और लुन ? लुन भी कुछ नहीं है । लाम -नून [ मुतह्र्रिक +साकिन] सबब-ए-ख़फ़ीफ़ की नुमाइन्दगी कर रहा है । </p><p>ज़िहाफ़ [ चर्चा आगे किसी मुनासिब मुक़ाम पर करेंगे] --हमेशा सालिम रुक्न पर ही लगता है और वह भी सालिम रुकन के ’जुज़’ [ टुकड़े पर ] ही लगता है ।यानी कोई ज़िहाफ़ [ चाहे मुफ़र्द हो या मुरक़्क़ब हो]लगेगा तो सबब के जुज़ पर या वतद के जुज़ पर ही लगेगा । ये ज़िहाफ़ात भी अलग अलग अमल के होते है _- सबब-ए-ख़फ़ीफ़ पर लगने वाले ज़िहाफ़ात अलग [ जैसे---ख़ब्न--तय्य--क़ब्ज़---कफ़--कस्र--हज़्फ़--आदि</p><p><i><span style="color: #2b00fe;">वतद-ए-मज़्मुआ पर लगने वाले ज़िहाफ़ात अलग [ जैसे-ख़रम--सलम--कतअ’ बतर--इज़ाला आदिक-----॥ </span></i>] </p><p>इसमें कुछ ज़िहाफ़ात तो शे’र में -सद्र/इब्तिदा के लिए ही ख़ास है --।] कुछ अरूज़ और ज़र्ब के लिए ख़ास है । ज़िहाफ़ात की चर्चा --आगे कही करेंगे।</p><p><span style="color: red;"><b>2- फ़ाइलुन [2 1 2 ]= مفا ٰعلن </b></span></p><p><span style="white-space: pre;"> </span>’फ़ाइलुन’ - एक सालिम रुक्न है और यह "बह्र-ए-मुतदारिक" का बुनियादी रुक्न है। यह भी एक 5- हर्फ़ी यानी ख़म्मासी रुक्न भी कहते हैं[यह रुक्न सबब-ए-ख़फ़ीफ़ [ फ़ा] +वतद-ए-मज़्मुआ [ इलुन] से मिल कर बना है</p><p> यानी 2+1 2= 2 1 2 के योग से बनता है। आप "फ़ऊलुन [ 1 2 2 ] से इसकी तुलना करें । देखें कि क्या फ़र्क़ है --व्यवस्था में, वतद-सबब के लिहाज़ से ।</p><p>इसके हमवज़न अल्फ़ाज़ हैं----- प्यार का /आशना / कामना / सामना/ दिल्ररूबा / ऎ सनम/ ऐसे बहुत से अल्फ़ाज़। </p><p>एक बात और। हिंदी के गण से तुलना करें [ देखें 000] तो इसका वज़न ’रगण’ [ राज़भा = 2 1 2] पर उतरता है</p><p>इसीलिए कहते हैं कि ये दोनो रुक्न हिन्दी छन्द शास्त्र से उर्दू अरूज़ में आए हैं और उसमे ’ फ़ाइलुन’ -पहले आया । ठीक ’फ़ऊलुन’ की तरह इस पर वही ज़िहाफ़ लगेगे जो सबब-ए-ख़फ़ीफ़ और वतद-ए-मज़्मुआ पर लगेंगे मगर कुछ क़ैद के साथ । कारण कि इस रुक्न की शुरुआत "सबब’ [फ़ा]से हो रही है जब कि ’फ़ऊलुन’[फ़ऊ] <span style="white-space: pre;">।</span>शुरुआत ’ वतद-ए-मज़्मुआ’ से शुरु हो रही है । ज़िहाफ़ की चर्चा बाद में करेंगे।</p><p><span style="color: red;"><b>3- मुफ़ाईलुन [ 1 2 2 2 ] =مفا ٰعلن </b></span></p><p>’मुफ़ाईलुन ’ -भी एक सालिम रुक्न है और यह "बह्र-ए-हज़ज" का बुनियादी रुक्न है ।यह भी एक 7-हर्फ़ी [ मीम---फ़े--अलिफ़--ऐन- ये--लाम--नून=7] सुबाई रुक्न है।<span style="white-space: pre;"> </span>यह वतद-ए-मज्मुआ [ मुफ़ा ]+ सबब-ए-ख़फ़ीफ़ [ई]+ सबब-ए-ख़फ़ीफ़ [लुन] से मिल कर बना है यानी = 12+2_+2 = 1 2 2 2 से बनता है । यह हिन्दी छन्द-शास्त्र के किसी गण से नहीं मिलता है ।</p><p>इसके हमवज़न अल्फ़ाज़ हो सकते है--- मना कर दो / वफ़ा करना / सितमगर हो/ पता दे दो / निभाना है / --जैसे बहुत से अल्फ़ाज़।</p><p>इस रुक्न पर लगने वाले कुछ ख़ास ख़ास ज़िहाफ़ के नाम यहाँ लिख रहा हूँ <span style="color: #2b00fe;"><i>जैसे ख़रम---कफ़---कस्र--क़ब्ज़---सरम--हत्म--जब्ब:--बत्र--सतर-- </i></span>। इसके अलावा और भी फ़र्द और मुरक़्कब ज़िहाफ़ भी लगते हैं।</p><p>ज़िहाफ़ की चर्चा बाद में करुँगा। </p><p><span style="color: red;"><b>4- फ़ाइलातुन [ 2 1 2 2 ] =فاعلاتن</b></span></p><p>फ़ाइलातुन - भी एक सालिम रुक्न है और यह ’बह्र-ए-रमल’ का बुनियादी रुक्न है। यह भी एक -7- हर्फ़ी [सुबाई] है। <span style="white-space: pre;"> </span>यह रुक्न सबब-ए-ख़फ़ीफ़[ फ़ा] + वतद-ए-मज्मुआ [इला] + सबब-ए-ख़फ़ीफ़ [तुन] = 2+ 1 2 + 2 = 2 1 2 2 से बनता है।यह भी एक 7-हर्फ़ी सुबाई रुक्न है ।</p><p>इसके हम वज़न अल्फ़ाज़ हो सकते हैं ---दिल-ए-बीना-- .नासुबूरी----बेहुज़ूरी -- अंजुमन है--- जैसे बहुत से अल्फ़ाज़ ।</p><p><i><span style="color: #2b00fe;">इस सालिम रुक्न पर लगने वाले ख़ास ख़ास ज़िहाफ़ है --ख़ब्न---कफ़---क़स्र--तश्शीस---हज़्फ़--शकल आदि । </span></i>इसके अलावा और भी बहुत से फ़र्द और मुरक़्क़ब ज़िहाफ़ भी लगते है ।</p><p><span style="color: red;"><b>5- मुसतफ़इलुन [ 2 2 1 2 ]</b></span></p><p>”’मुसतफ़इलुन’- भी एक सालिम रुक्न है और यह ’बह्र-ए- रजज़" का बुनियादी रुक्न है । यह भी एक 7-हर्फ़ी सुबाई रुक्न है।</p><p>यह रुक्न सबब-ए-ख़फ़ीफ़ [मुस] +सबब-ए-ख़फ़ीफ़ [तफ़]+ वतद-ए-मज्मुआ [ इलुन ] से मिल कर बना है।यानी 2+2+12 =2 2 1 2</p><p>इसके हम वज़न अल्फ़ाज़ हो सकते है जैसे - आ जा सनम / आए नहीं / इतना सितम / जैसे बहुत से अल्फ़ाज़ </p><p><span style="color: #2b00fe;"><i>इस सालिम रुक्न पर लगने वाले मुख्य ज़िहाफ़ हैं ------ख़ब्न---तय्यी--क़तअ’--इज़ाला और भी बहुत से फ़र्द और </i></span>मुरक़्क़ब ज़िहाफ़</p><p><span style="color: red;"><b>6-<span style="white-space: pre;"> </span>मुतफ़ाइलुन [ 1 1 2 1 2 ]</b></span></p><p>मुतफ़ाइलुन - भी एक सालिम रुक्न है और यह ’बह्र-ए-कामिल ’ का बुनियादी रुक्न है। यह भी एक 7-हर्फ़ी सुबाई रुक्न है।</p><p>यह रुक्न सबब-ए-सकील [ मु त ] + सबब-ए-ख़फ़ीफ़ [फ़ा]+वतद-ए-मज्मुआ [इलुन ] से मिल कर बना है यानी 1 1+ 2+ 1 2 = 1 1 2 1 2 </p><p>यहाँ पर प्रदर्शित 1 1 को आप मुतहर्रिक हर्फ़ समझे न कि हिंदी का ’लघु वर्ण’ समझें।</p><p>ध्यान देने की बात है कि पहला - सबब- सबब-ए-सकील है और जब कि दूसरा सबब -सबब-ए-ख़फ़ीफ़ है ।कहने का मतलब यह कि </p><p>सबब-ए-सकील पर लगने वाले ज़िहाफ़ात अलग होते हैं जब कि सबब-ए-ख़फ़ीफ़ पर लगने वाले ज़िहाफ़ात अलग होते हैं।</p><p><span style="color: red;"><b><i>[ एक विशेष टिप्पणी </i></b></span>--पिछली क़िस्त [000] में "फ़ासिला सुग़रा" की चर्चा किए थे कि वह चार हर्फ़ी कलमा जिसमे मुतहर्रिक+ मुतहर्रिक + मुतहर्रिक +साकिन हर्फ़ हो यानी 1 1 2 जैसे--बरकत-- हरकत आदि जिसमें -ते [ते] साकिन है और बाक़ी सभी मुस्तमिल [ इस्तेमाल किए हुए ] हर्फ़ पर ज़बर का हरकत है । तो मु त फ़ा इलुन को <span style="background-color: #fcff01;">फ़ासिला + वतद</span> से भी दिखा सकते हैं । मगर हमने तो ऊपर सबब और वतद के परिभाषा से ही दिखा दिया और बता दिया । इसीलिए मैने कहा था कि </p><p>फ़ासिला के बग़ैर भी अरूज़ का काम चल सकता है ।]</p><p>इस के हमवज़न अल्फ़ाज़ हो सकते है ---यूँ ही बेसबब / न फ़िरा करो / कोई शाम घर / भी रहा करो /[बशीर बद्र की एक ग़ज़ल से]-या ऐसे ही बहुत से जुमले।</p><p>या -तू बचा बचा / के न रख इसे / न कही जहाँ / में अमाँ मिली / [ इक़बाल की एक ग़ज़ल से ] </p><p><span style="color: #cc0000;"><i>और इस पर लगने वाले मुख्य मुख्य ज़िहाफ़ात है ---इज़्मार--वक़्स--क़त’अ--इज़ाला --</i></span></p><p><span style="color: red;"><b>7-<span style="white-space: pre;"> </span>मफ़ाइलतुन [ 1 2 1 1 2 ]</b></span></p><p><span style="white-space: pre;"> </span>मफ़ाइलतुन - भी एक सालिम रुक्न है और यह बह्र-ए-वाफ़िर का बुनियादी रुक्न है। यह भी एक 7-हर्फ़ी सुबाई रुक्न है।</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>यह वतद-ए-मज्मुआ [ मुफ़ा ]+ सबब-ए-सकील[ इ ल] + सबब-ए-ख़फ़ीफ़[ तुन] से मिल कर बना है यानी 12 1 1 2 = 1 2 1 1 2 </p><p><span style="white-space: pre;"> </span>यहाँ पर प्रदर्शित 1 1 को आप मुतहर्रिक हर्फ़ समझे न कि हिंदी का लघु वर्ण ।</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>[ एक विशेष टिप्पणी --इस रुक्न को भी फ़ासिला + सबब से दिखा सकते हैं यानी वतद+फ़ासिला = 12 112 और वतद और सबब से भी।आप को जो सुविधाजनक लगे।</p><p> <span style="white-space: pre;"> </span>एक बार ध्यान से देखें -- क्या आप को मफ़ा इ ल तुन [ वाफ़िर] --बरअक्स मु त फ़ाइलुन [ कामिल का नहीं लगता ?</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>इस पर लगने वाले मुख्य ज़िहाफ़ात हैं---<span style="color: #2b00fe;"><i>---इज़्मार---वक़्स---कतअ’--इज़ाला --और भी बहुत से फ़र्द और मुरक़्क़ब ज़िहाफ़ भी।</i></span></p><p><span style="color: red;"><b>8- <span style="white-space: pre;"> </span>मफ़ऊलातु [ 2 2 2 1 ] </b></span></p><p><span style="white-space: pre;"> </span>मफ़ऊलातु -- भी एक सालिम 7-हर्फ़ी सुबाई रुक्न तो है मगर यह किसी सालिम बह्र की बुनियादी रुकन नहीं है। हो भी नहीं सकती । कारण कि इसका हर्फ़-उल-आखिर -तु- [ ते पर </p><p><span style="white-space: pre;"> </span>पेश की हरकत है ] मुतहर्रिक है । उर्दू ज़बान की फ़ितरत ऐसी है कि मिसरा का आख़िरी हर्फ़ -साकिन -हर्फ़ पर गिरता है, मुतहर्रिक पर कभी नहीं गिरता ।तो ?</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>यह मिसरा के आखिर में अपने मुज़ाहिफ़ शक्ल [ जिसमे आखिरी साकिन हो जाता है ] में ही आ सकता है । हाँ यह रुक्न अपने सालिम शकल में मुरक़्क़ब बहर के बीच में आ सकती</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>है और आती भी है । मगर ज़्यादातर अपनी मुज़ाहिफ़ शकल में ही आती है ।</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>इस के हम वज़न अल्फ़ाज़ तो सालिम शकल में नहीं दिए जा सकते । हाँ क़सरा-ए-इज़ाफ़त और वाव-ओ-अत्फ़ की तरक़ीब से हो सकता है ।</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>इस पर लगने वाले ्मुख्य मुख्य ज़िहाफ़ात हैं---अज़्ब--क़स्म--जम्म-- अक़्ल --नक़्स-- और भी बहुत से मुफ़र्द और मुरक़्क़ब ज़िहाफ़ भी।</p><p>उर्दू शायरी में प्रचलित 8-सालिम अर्कान की बात तो हो चुकी मगर अबतक "वतद-ए-मफ़रूक़" का ज़िक्र तो आया नहीं जब कि पिछले क़िस्त [000] में इस पर चर्चा कर चुका हूँ।</p><p><span style="color: #cc0000;"><i>ऊपर वर्णित दो रुक्न -ऎसे हैं जिनके इमला की दो शकले [ उर्दू स्क्रिप्ट में लिखने के दो तरीक़े ] मुमकिन है और लिखे जाते हैं । एक तरीक़े को --मुतस्सिल और दूसरा तरीक़े को मुन्फ़सिल कहते है।</i></span></p><p><span style="color: #cc0000;"><i>मुत्तस्सिल तरीके में अर्कान में मुस्तमिल तमाम हर्फ़ -सिल्सिले- से यानी एक दूसरे से मिला कर लिखते है जब कि -मुन्फ़सिल- तरीक़े में कुछ हर्फ़ में ’फ़ासिला- देकर लिखते है</i></span></p><p><span style="color: #cc0000;"><i>मुत्तस्सिल तरीक़ा तो वही जो ऊपर लिखा जा चुका है । मुन्फ़सिल तरीका नीचे लिख रहा हूँ ।</i></span></p><p><span style="color: #cc0000;"><i>तरीक़ा कोई हो- वज़न दोनो में समान ही रहेगा और तलफ़्फ़ुज़ भी लगभग समान रहेगा।</i></span></p><p><span style="color: #cc0000;"><i>--फ़ाइलातुन [ रमल ] فاع لاتن<span style="white-space: pre;"> </span>=’ मुन्फ़सिल शकल ]= 2 1 2 2 = फ़ाअ’ ला तुन = [ फ़ा अ’ में---ऎन ्मुतहर्रिक है यानी --्फ़े [-मुतहर्रिक] +अलिफ़ [साकिन] + ऐन [ मुतहर्रिक } ---यानी वतद-ए-मफ़रुक़ [ दोनो मुतहर्रिक के बीच में फ़र्क है। </i></span></p><p><span style="color: #cc0000;"><i>--मुसतफ़इलुन [ रजज़] مس تفع لن= मुन्फ़सिल शकल = 2 2 1 2 = मुस तफ़अ’ लुन = [ तफ़ अ’ -यहाँ भी -ऎन- मुतहर्रिक है ते -[ मुतहर्रिक] + फ़े [ साकिन ] + ऐन [ मुतहर्रिक ]-- यानी वतद-ए-मफ़रुक़ [ दोनो मुतहर्रिक के बीच में फ़र्क है। </i></span></p><p>अब आप कहेंगे कि इस मुक़ाम पर इसकी चर्चा क्यों कर रहे हैं ? बिलकुल सही। इसलिए कर रहे है कि कुछ मुरक़्क़ब बह्र [ जैसे-----\] में यह रुक्न अपने मुन्फ़सिल शकल में ही आती हैं।</p><p>और उस बह्र लगने वाले ज़िहाफ़ -वतद-ए-मफ़रुक -वाले ज़िहाफ़ लगेंगे। बहुत से लोग यही गलती कर देते है और उस मुक़ाम पर भी --वतद-ए- मज्मुआ वाले ज़िहाफ़ लगा देते हैं । हमे इसका पास [ ख़याल ] रखना होगा</p><p>ये दोनो कोई नया रुक्न नहीं है । ये तो बस वर्णित रुक्न के बदली शकल हैं ।नया कुछ भी नहीं।</p><p>-आनन्द.पाठक-</p><p> </p><p><span style="white-space: pre;"> </span></p>आनन्द पाठकhttp://www.blogger.com/profile/00352393440646898202noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-3287188401583659492.post-82883556733738624032020-11-02T12:28:00.006+05:302022-04-19T20:40:28.975+05:30उर्दू बह्र पर एकबातचीत : क़िस्त 000 [ अरूज़ की कुछ बुनियादी बातें ]<div style="text-align: left;"> <span style="white-space: pre;"> </span><span style="color: red;"><b>उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 000 [ अरूज़ की कुछ बुनियादी बातें ]</b></span></div><div style="text-align: left;"><span style="color: red;"><b><br /></b></span><span style="color: #2b00fe;"><i><b>भूमिका </b>: जब अपने ब्लाग के इस श्रृंखला के पुनरीक्षण और परिवर्धन करने की सोच रहा था तो<br />ध्यान में आया कि अरूज़ की कुछ बुनियादी बातें ऐसी थीं जो इस इस श्रृंखला में सबसे पहले आनी चाहिए थी जिससे पाठक गण को आगे के क़िस्तों को समझने/समझाने में सुविधा होती । जब तक यह बात <br />ध्यान में आती तबतक बहुत विलम्ब हो चुका था और 75-क़िस्त लिखा जा चुका था । ख़ैर कोई बात नहीं।<br />जब जगे तभी सवेरा।<br />यह वो बुनियादी बातें है जिनका ज़िक्र हर क़िस्त में आता रहता है और वज़ाहत करता रहता हूँ । इसीलिए सोचा कि ये सब बातें यकजा कर लूँ जिससे क़िस्तों में बार बार ज़िक्र न करना पड़ेगा। <br />इसी लिए इस क़िस्त की संख्या 000 डालनी पड़ी जो क़िस्त 01 से पहले आनी चाहिए थी ।<br /><span style="white-space: pre;"> </span>इस क़िस्त में , हम अरूज़ की कुछ बुनियादी बातों पर चर्चा करेंगे।</i></span><br />-------------------------------------------------</div><p>1-<span style="white-space: pre;"> </span>जैसे हिंदी [और संस्कृत में भी ] के छन्द-शास्त्र में ’वार्णिक छन्दों’ में मात्रा गणना की जाती है और अनुशासन के लिए ’गण’ निर्धारित किए गये हैं जिसे हम ’दशाक्षरी सूत्र" <span style="color: red;"><b>-यमाताराजभानसलगा</b></span> - से याद रखते हैं । यानी</p><p><span style="white-space: pre;"> </span><span style="color: red;">[1]<span style="white-space: pre;"> </span>यगण = यमाता = 1 ऽ ऽ = 1 2 2 </span></p><p><span style="color: red;"><span style="white-space: pre;"> </span>[2]<span style="white-space: pre;"> </span>मगण =<span style="white-space: pre;"> </span>मातारा = ऽ ऽ ऽ = 2 2 2 </span></p><p><span style="color: red;"><span style="white-space: pre;"> </span>[3]<span style="white-space: pre;"> </span>तगण = ताराज = ऽ ऽ 1 = 2 2 1</span></p><p><span style="color: red;"><span style="white-space: pre;"> </span>[4]<span style="white-space: pre;"> </span>रगण = राजभा = ऽ 1 ऽ = 2 1 2 </span></p><p><span style="color: red;"><span style="white-space: pre;"> </span>[5]<span style="white-space: pre;"> </span>जगण = जभान = 1 ऽ 1 = 1 2 1 </span></p><p><span style="color: red;"><span style="white-space: pre;"> </span>[6]<span style="white-space: pre;"> </span>भगण = भानस = ऽ 1 1 = 2 1 1 </span></p><p><span style="color: red;"><span style="white-space: pre;"> </span>[7]<span style="white-space: pre;"> </span>नगण = नसल = 1 1 1 = 1 1 1 </span></p><p><span style="color: red;"><span style="white-space: pre;"> </span>[8]<span style="white-space: pre;"> </span>सगण = सलगा = 1 1 ऽ = 1 1 2 </span></p><p><span style="white-space: pre;"> </span>यानी 1-2 के तीन-तीन वर्ण के combination /permutation 8- गण बनते है जहाँ [ 1= लघु वर्ण ] और </p><p><span style="white-space: pre;"> </span>[ ऽ = दीर्घ वर्ण ] मानते हैं ।</p><p>2- <span style="white-space: pre;"> </span>जैसे हिंदी में [ और संस्कृत में भी ] छन्दों के लिए 8- प्रारम्भिक गण की व्यवस्था है ,वैसे ही ’उर्दू’ में भी ’अरूज़’ के लिए भी 8- रुक्न [ ब0व0 अर्कान ] की व्यवस्था है जो निम्न हैं । अरूज़ को आप उर्दू शायरी का छन्द शास्त्र समझिए ।</p><p><br /></p><p><span style="white-space: pre;"> <span style="color: #800180;"> </span></span><span style="color: #800180;">-सालिम रुक्न ---<span style="white-space: pre;"> </span>बह्र का नाम </span></p><p><span style="color: #800180;"><span style="white-space: pre;"> </span>[1]<span style="white-space: pre;"> </span>फ़ऊलुन = 1 2 2 <span style="white-space: pre;"> </span>= बह्र-ए-मुतक़ारिब का सालिम रुक्न= 5- हर्फ़ी रुक्न [ख़म्मासी रुक्न]</span></p><p><span style="color: #800180;"><span style="white-space: pre;"> </span>[2] <span style="white-space: pre;"> </span>फ़ाइलुन = 2 1 2 <span style="white-space: pre;"> </span>= बह्र-ए-मुतदारिक का सालिम रुक्न= <span style="white-space: pre;"> </span>-do-</span></p><p><span style="color: #800180;"><span style="white-space: pre;"> </span>[3]<span style="white-space: pre;"> </span>मफ़ाईलुन = 1 2 2 2<span style="white-space: pre;"> </span>= बह्र-ए-हज़ज का सालिम रुक्न = 7- हर्फ़ी रुक्न[सुबाई रुक्न]</span></p><p><span style="color: #800180;"><span style="white-space: pre;"> </span>[4] <span style="white-space: pre;"> </span>फ़ाइलातुन = 2 1 2 2<span style="white-space: pre;"> </span>= बह्र-ए-रमल का सालिम रुक्न<span style="white-space: pre;"> </span>= <span style="white-space: pre;"> </span> -do-</span></p><p><span style="color: #800180;"><span style="white-space: pre;"> </span>[5] <span style="white-space: pre;"> </span>मुसतफ़इलुन= 2 2 1 2<span style="white-space: pre;"> </span>= बह्र-ए-रजज़ का सालिम रुक्न<span style="white-space: pre;"> </span>= <span style="white-space: pre;"> </span>-do-</span></p><p><span style="color: #800180;"><span style="white-space: pre;"> </span>[6] मु त फ़ाइलुन = 1 1 2 1 2 = बह्र-ए-कामिल का सालिम रुक्न = -do-</span></p><p><span style="color: #800180;"><span style="white-space: pre;"> </span>[7]<span style="white-space: pre;"> </span> मुफ़ा इ ल तुन = 1 2 1 1 2= बह्र-ए-वाफ़िर का सालिम रुक्न = <span style="white-space: pre;"> </span>-do-</span></p><p><span style="color: #800180;"><span style="white-space: pre;"> </span>[8] मफ़ ऊ लातु = 2 2 2 1 = --- ---<span style="white-space: pre;"> <span> </span><span> </span><span> </span></span>= -do-</span></p><p><br /></p><div style="text-align: left;"> <span style="white-space: pre;"> </span><span style="color: #660000;"><i>नोट</i></span></div><div style="text-align: left;"><span><i><span style="color: #660000;">1 -</span><span style="color: #660000; white-space: pre;"> </span><span style="color: #660000;"> ’मफ़ऊलातु’--एक सालिम रुक्न तो है मगर इससे कोई ’ सालिम बह्र " नहीं बनती । कारण ? आगे किसी </span><span style="color: #660000;"> </span><span style="color: #660000;"> </span><span style="color: #660000;"> </span><span style="color: #660000;">मुक़ाम पर चर्चा करेंगे।</span><br /><span style="color: #660000; white-space: pre;"> </span><span style="color: #660000;">उर्दू में अर्कान को अन्य नामों से भी जाना जाता है जैसे--अफ़ाइल--तफ़ाइल--औज़ान -मीज़ान -- उसूल -- नाम </span><span style="color: #660000;"> </span><span style="color: #660000;"> </span><span style="color: #660000;">कुछ भी हो अर्थ वही है । </span><br /><span style="color: #660000; white-space: pre;"> </span><span style="color: #660000;">यह सालिम रुक्न कैसे बनते हैं ,इसकी भी चर्चा आगे करेंगे। आइन्दा चर्चा में हम </span><b><span style="color: #2b00fe;">’रुक्न’/ अर्कान </span></b><span style="color: #660000;">[ रुक्न का </span><span style="color: #660000;"> </span><span style="color: #660000;"> </span><span style="color: #660000;"> </span><span style="color: #660000;">ब0व0] -लफ़्ज़ ही इस्तेमाल करेंगे।</span><br /><span style="color: #660000; white-space: pre;"> </span><span style="color: #660000;">यहाँ पर ये अर्कान उर्दू के किस ’दायरे’ [ वृत्त] से निकलते है --उसकी चर्चा नहीं करेंगे। कारण? कारण कि <span> </span><span> </span><span> </span>हमे इसकॊ ज़रूरत नहीं पड़ेगी और विषय दुरूह हो जाएगा ऊपर से।</span><br /><span style="color: #660000; white-space: pre;"> </span><span style="color: #660000;">अगर दायरे के बारे में विस्तार से समझना हो इसके बारे में तो अरूज़ की किसी भी किताब में ब आसानी <span> <span> </span><span> </span> </span><span> </span>मिल जायेगी ।</span><br /><span style="color: #660000;">2 - </span><span style="color: #660000; white-space: pre;"> </span><span style="color: #660000;">पाँच हर्फ़ी [5-हर्फ़ी ]रुक्न को ’ख़म्मासी रुक्न " भी कहते हैं जैसे फ़ऊलुन--फ़ाइलुन [2-रुक्न ]</span><br /><span style="color: #660000; white-space: pre;"> </span><span style="color: #660000;">सात हर्फ़ी [7-हर्फ़ी] रुक्न को ’सुबाई रुक्न’-कहते हैं जैसे मुफ़ाईलुन---फ़ाइलातुन---मुस तफ़ इलुन--<span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span>मुतफ़ाइलुन---मुफ़ाइलतुन--मफ़ऊलातु [ 6-रुक्न]</span><span style="color: #660000; white-space: pre;"> </span></i></span></div><p style="text-align: left;">3- <span style="white-space: pre;"> </span>यह भी क्या इत्तिफ़ाक़ है कि हिंदी के छन्द गणना के लिए 8- बुनियादी गण और उर्दू के अरूज़ के लिए भी 8-बुनियादी सालिम रुक्न ! ख़ैर</p><p>4-<span style="white-space: pre;"> </span>उर्दू शायरी के लिए थोड़ी बहुत उर्दू के हरूफ़ [ हर्फ़ का ब0व0] ,क़वायद [ क़ायदा का ब0व0] की जानकारी होनी चाहिए। हो तो बेहतर।</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>और मैं आशा करता हूँ कि इतनी बहुत जानकारी अवश्य होगी। जानकारी होगी तो आप को अरूज़,बह्र,वज़न समझने /समझाने में </p><p><span style="white-space: pre;"> </span> और आसानी होगी।</p><p>5- उर्दू के मात्र दो -रुक्न [ फ़ऊलुन 1 2 2 और फ़ाइलुन 2 1 2 ] ऐसे सालिम रुक्न हैं जो हिंदी के .गण [ यगण 1 2 2 और रगण 2 1 2 ] से मेल खाते हैं</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>इसीलिए कहा जाता है कि ये दो वज़न --हिंदी से उर्दू में आए हैं और उसमें भी ’फ़ाइलुन [2 1 2 ] वज़न ’ पहले आया ।</p><p>6-<span style="white-space: pre;"> </span>जैसे हम हिंदी में ’वर्ण-माला ’ होती हैं .वैसे ही उर्दू में हिज्जे होते है जिसे ’<span style="color: red;">हरूफ़-ए-तहज्जी,</span> कहते हैं । इन की संख्या 35-या 36 ।उर्दू मे हरूफ़-ए-तहज्जी में बहुत से हर्फ़ ’अरबी’ से आए ,कुछ फ़ारसी तुर्की हिंदी से भी आए ।.जब जब और जैसे जैसे उर्दू को मुख्तलिफ़ आवाज़ों की ज़रूरत महसूस होती गई ,हर्फ़ आते गए और अलामात [ चिह्न] बनाते गए। यही बात हिंदी में भी हुई । उर्दू हर्फ़ की कुछ आवाजें हिंदी में नहीं थी अत: हिंदी के वर्ण में --नुक़्ता [ अलामत ] लगा कर काम चलाते हैं।</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>क़---ख़--ग़---ज़--अ’ --आदि। मगर यह भी नाकाफी था । जैसे उर्दू में --ज़- की आवाज़ के लिए के 5- हर्फ़ होते है , मगर हमने सबके लिए -एक- ही वर्ण -ज़- रखा।</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>हिंदी में अब आम आदमी के दैनिक बातचीत में -अब यह नुक़्ते का भी फ़र्क दिनो दिन मिटता जा रहा है -लेखन में भी और उच्चारण में भी।</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>मगर हम शे’र और ग़ज़ल बावज़ूद इन बारीकियों के भी समझ जाते हैं ।</p><p><span style="color: red;"><b>7-<span style="white-space: pre;"> </span>साकिन हर्फ़ </b></span> : हरूफ़-ए-तहज्जी के तमाम हर्फ़ मूलत: साकिन होते हैं जब तक कि उन पर कोई ’हरकत’ न दी जाए । आप इन्हें संस्कृत के ’ हलन्त’ वाला’ व्यंजन समझ सकते हैं ।जैसे -क्-ज़्-प्</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>फ़्-- आदि। चूंकि यह हर्फ़ बिना स्वर के होते है। जब इन हर्फ़ पर पर ’हरकत’ [ ज़ेर--ज़बर-पेश की] दी जाती है इनको स्वर दिया जाता है तब यह अपनी अपनी आवाज़ देते हैं।</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>वरना तो शान्त ही रहते हैं । इसीलिए इन्हे ’साकिन’ [ शान्त] कहते है॥</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>उर्दू का हर लफ़्ज़ ’साकिन’ पर ही ख़त्म होता है । ज़ुबान की फ़ितरत ही ऐसी है ।</p><p><span style="color: red;"><b><br /></b></span></p><p><span style="color: red;"><b>8- <span style="white-space: pre;"> </span>मुतहर्रिक हर्फ़ </b></span> : जब किसी साकिन हर्फ़ को ’हरकत’ [ ज़बर, ज़ेर. पेश की ] दी जाती है यानी स्वर दिया जाता है तो वैसी ही अपनी आवाज़ देते हैं । वैसे तो उर्दू में 7-क़िस्म की हरकत होती है </p><p><span style="white-space: pre;"> </span>ज़बर---ज़ेर--पेश--मद्द--जज़्म--तस्द्दीद--तन्वीन । मगर इसमें 3- [ ज़बर-ज़ेर-पेश ] ही मुख्य हैं । यह् सब् बातें उर्दू के किसी भी क़वायद [व्याकरण ] की किताब में ब आसानी मिल जायेगी</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>जैसे </p><p><span style="white-space: pre;"> </span>-क्- ज़बर =क । -क्-ज़ेर =कि । क्-पेश =कू </p><p><span style="white-space: pre;"> </span>ज़्- ज़बर =ज़ ।ज़्-ज़ेर = जि ।ज़्-पेश =ज़ू</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>प् - ज़बर = प । प् ज़ेर् = पि । प् पेश =पू</p><p><br /></p><p><span style="white-space: pre;"> </span>अगर किसी”हर्फ़’ पर कोई ’अलामत ’ न लगी हो तो समझ लें कि ’ज़बर’ की अलामत तो ज़रूर होगी । यह बात अलग है कि लोग लिखते वक़्त उसे दिखाते नहीं ।</p><p> <span style="white-space: pre;"> </span>अगर आप मुतहर्रिक [ हरकत लगा हुआ हर्फ़ ] और साकिन [ बिना हरकत लगा हुआ हर्फ़ ] अच्छी तरह समझ लें तो आगे चल कर शे’र का वज़न ,बह्र समझने में और तक़्तीअ’ </p><p><span style="white-space: pre;"> </span>करने में , शब्द के मात्रा गणना करने में आप को कोई असुविधा नहीं होगी । उर्दू लफ़्ज़ का पहला ’हर्फ़’ -मुतहर्रिक होता है । यानी उर्दू का कोई लफ़्ज़ ’साकिन’ हर्फ़ से शुरू नहीं होता ।</p><p>9- <span style="color: red;"><b><span style="white-space: pre;"> </span>सबब =</b></span> "दो-हर्फ़ी कलमा " को सबब कहते हैं जैसे -- अब--तब--ग़म--दिल---रंज-- नम-- की --भी---तुम--हम --मन--इत्यादि</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>सबब---दो प्रकार के होते है </p><p><span style="white-space: pre;"> </span>[क] सबब-ए-ख़फ़ीफ़</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>[ख] सबब-ए-सकील</p><p> <span style="white-space: pre;"> </span><span style="white-space: pre;"> </span><span style="background-color: #fcff01; color: red;">सबब-ए-ख़फ़ीफ़ </span>= वह ’दो हर्फ़ी कलमा ’ [ अर्थ पूर्ण भी हो सकता है ,अर्थहीन भी हो सकता है ]-जिसमें पहला हर्फ़ ’ मुतहर्रिक’ हो और दूसरा हर्फ़ ’साकिन ’ हो । यानी [मुतहर्रिक साकिन ] बज़ाहिर हर दो हर्फ़ी कलमा सबब-ए-ख़फ़ीफ़</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>ही होगा क्योंकि उर्दू का पहला हर्फ़ तो मुतहर्रिक होता है और आख़िरी हर्फ़ साकिन ही होता है [ देखे ऊपर 7- और 8 ] इसे -2- की अलामत से दिखाते हैं। वैसे सबब का एक मानी [अर्थ] -रस्सी- भी होता है 1</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>अभी आप रस्सी { Rope ] ज़ेहन में रखें बाद में ज़रूरत पड़ेगी रुक्न की बुनावट समझने में ।</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>जैसे अब --ख़त --तब--फ़ा--लुन--तुन--मुस--तफ़-- दो--गो--आदि</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>अब = -[अ] अलिफ़- मुतहर्रिक -+-[ब] बे साकिन = वज़न 2 </p><p><span style="white-space: pre;"> </span>ख़त = ख़ [ख़े] मुतहर्रिक + त [ तोये] साकिन = वज़न 2</p><p><span style="background-color: #fcff01; color: red;"><span style="white-space: pre;"> </span>सबब-ए-सकील =</span> वह -’दो हर्फ़ी कलमा’ - जिसमें पहला हर्फ़ मुतहर्रिक हो और दूसरा हर्फ़ भी मुतहर्रिक हो । यानी "मुतहर्रिक+ मुतहर्रिक"</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>उर्दू में ऐसा स्वतन्त्र शब्द मिलना मुश्किल है [ देखे पैरा 7-और 8 ] मगर उर्दू की [ वस्तुत: फ़ारसी की 1-2 तरक़ीब है जिसे उर्दू ने भी अपना लिया है ] कसरा-ए-इज़ाफ़त और वाव-ए-अत्फ़ ।</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>इस से ठीक इससे पहले वाले साकिन हर्फ़ पर ’हरकत’ आ ही जाती है या महसूस होती है । इसे 1-1 के अलामत से दिखाते है </p><p> <span style="white-space: pre;"> </span>जैसे </p><p><span style="white-space: pre;"> </span><span style="color: #cc0000;">ग़म-ए-दिल </span>= वैसे ग़म [ स्वतन्त्र रूप से ] में -म[मीम ] तो साकिन है मगर कसरा इज़ाफ़त -ए- से- मीम [म] पर हरकत [ एक भारीपन = सकील ] महसूस हो रही है या पैदा हो रही है ।अत: -गम- का वज़न यहाँ [ 1 1 ] लिया जायेगा</p><p><span style="white-space: pre;"> </span><span style="color: #cc0000;">दिल-ए-नादाँ =</span> वैसे दिल [ स्वतन्त्र रूप से ] में -लाम [ल ] तो साकिन है मगर कसरा इज़ाफ़त -ए- से- लाम [ल] पर हरकत [ एक भारीपन सकील ] महसूस हो रही है या पैदा हो रही है ।अत: -दिल का वज़न यहाँ [ 1 1 ] लिया जायेगा</p><p><span style="white-space: pre;"> </span><span style="color: #cc0000;">दौर-ए-हाज़िर</span>= वैसे दौर [ स्वतन्त्र रूप से ] में -र[ रे ] तो साकिन है मगर कसरा इज़ाफ़त -ए- से- रे [र] पर हरकत [ एक भारीपन सकील ] महसूस हो रही है या पैदा हो रही है । अत: दौर का वज़न यहाँ [2 1 ] लिया जायेगा</p><p><span style="white-space: pre;"> </span><span style="color: #cc0000;">रंज-ओ-अलम </span>= वैसे रंज [ स्वतन्त्र रूप से ] में -ज़ तो साकिन है मगर कसरा इज़ाफ़त -ए- से- ज़ -पर हरकत [ एक भारीपन सकील ] महसूस हो रही है या पैदा हो रही है । अत: रंज़ का वज़न [2 1 ] लिया जायेगा </p><p><span style="white-space: pre;"> </span><span style="color: #cc0000;">जान-ओ-जिगर </span>= वैसे जान [ स्वतन्त्र रूप से ] में -न [नून ] तो साकिन है मगर कसरा इज़ाफ़त -ए- से- नून [न ] पर हरकत [ एक भारीपन सकील ] महसूस हो रही है या पैदा हो रही है ।अत: जान का वज़न 2 1 लिया जायेगा।</p><p><span style="background-color: #fcff01; color: red;">10<span style="white-space: pre;"> </span>- वतद =</span> 3-हर्फ़ी कलमा को वतद कहते है । अगर हम आप से कहें कि 2-हर्फ़ [ मुतहर्रिक और साकिन ] से 3- हर्फ़ी कलमा के कितने arrangment हो सकते है ? बज़ाहिर 3- हो सकते है । अर्थ पूर्ण भी हो सकता है ,अर्थहीन भी हो सकता है ]देखिए कैसे </p><p><span style="white-space: pre;"> </span>[अ] मुतहर्रिक + मुतहर्रिक + साकिन</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>[ब] मुतहर्रिक + साकिन + मुतहर्रिक</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>[स] मुतहर्रिक + साकिन + साकिन </p><p><span style="white-space: pre;"> </span>जी,बिलकुल दुरुस्त । अत: वतद 3- प्रकार के होते है । वतद का एक अर्थ "खूँटा’ [ PEG] भी है । ये खूँटा--रस्सी का क्या लफ़ड़ा है --इसको बाद में समझायेंगे जब सालिम रुक्न कैसे बनते है पर चर्चा करेंगे ।</p><p><span style="white-space: pre;"> </span> [अ] वतद -ए--मज्मुआ = <span style="white-space: pre;"> </span>वो तीन हर्फ़ी कलमा जिसमें पहला और दूसरा हर्फ़ ’मुतहर्रिक’ हो ।</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>जैसे ---<span style="white-space: pre;"> </span>जैसे ----अबद--असर---सहर--बरस--सफ़र--</p><p><span style="white-space: pre;"> </span> मज्मुआ--इसलिए कहते है कि दो- मुतहर्रिक एक साथ ’ जमा’ [ मज़्मुआ] हो गए। यानी मुतहर्रिक की ’तकरार- या मुकर्रर हो गया ।कभी कभी "वतद-ए- मक्रून" भी कहते है । मगर हम आइन्दा ’वतद-ए-मज्मुआ ’ ही कहेंगे</p><p><span style="background-color: #fcff01;"><span style="white-space: pre;"> </span><span style="color: red;">[ब] वतद-ए- मफ़रूक़ </span> </span>= वो तीन हर्फ़ी कलमा जिसमे पहला हर्फ़ मुतहर्रिक -दूसरा हर्फ़ साकिन--तीसरा हर्फ़ मुतहर्रिक हो ।मफ़्रूक़ - इसलिए कहते हैं कि दो मुतहर्रिक के position में "फ़र्क़’ [ मफ़्रूक़ ] है ।जैसे ’फ़ाअ’ [ -ऐन- मुतहर्रिक] यह एक रुक्न का जुज [ टुकड़ा] है। फ़े-मुतहर्रिक --अलिफ़ -साकिन---ऐन मुतहर्रिक] </p><p><span style="white-space: pre;"> </span><span style="background-color: #fcff01; color: red;">वतद-ए-मौक़ूफ़ </span>= वो तीन हर्फ़ी कलमा जिसमें पहला हर्फ़ मुतहर्रिक + दूसरा हर्फ़ साकिन+ तीसरा हर्फ़ साकिन हो ।जैसे ----अब्र--उर्द--अस्ल--बुर्ज---जुर्म --</p><p><span style="background-color: #fcff01; color: red;">11- फ़ासिला </span>= सबब और वतद के अलावा दो परिभाषायें और भी है --4- हर्फ़ी कलमा और 5- हर्फ़ी कलमा के लिए । मगर हम यहाँ उनकी चर्चा नहीं करेंगे।कारण कि बग़ैर इसके भी हमारा काम </p><p><span style="white-space: pre;"> </span>चल जायेगा ।अब बात निकल गई तो थोड़ी सी चर्चा कर ही लेते हैं । 4- हर्फ़ी कलमा क्या है ? दो सबब है । यानी सबब -ए-सकील+सबब-ए-ख़फ़ीफ़ = अब आप फ़ासिला की परिभाषा खुद ही बना सकते है ।</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>यानी वो 4-हर्फ़ी कलमा जिसमे हरकत +हरकत+हरकत+साकिन वाले हर्फ़ एक साथ हों \</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>जैसे "लफ़्ज़ "हरकत " खुद ही फ़ासिला है ।ह+र+क+त् । ऐसे लफ़्ज़् को ’फ़ासिला सुग़रा ’ कहते हैं</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>5-हर्फ़ी कलमा क्या है ? सबब-ए-सकील + वतद-ए-मज्मुआ = यानी हरकत+हरकत+हरकत +हरकत +साकिन= 5 हर्फ़ =ऐसे लफ़्ज़ को फ़ासिला कबरा कहते है।</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>बस आप समझ लीजिए कि उर्दू ज़ुबान की फ़ितरत ऐसी है कि यह "फ़ासिला कब्रा"-’सपोर्ट’ नही करती या नहीं कर पाती।</p><p> <span style="white-space: pre;"> </span>[ नोट : आप पैरा 11-नहीं भी समझेंगे तो भी ’अरूज़’ का काम चल जायेगा । समझ लेंगे तो बेहतर। आप इन बुनियादी इस्तलाहात [ परिभाषाओं से ] घबराये नहीं।</p><p><span style="white-space: pre;"> </span> आगे चल कर ये परिभाषायें बड़े काम की साबित होंगी।बह्र और वज़न समझने में। उकताहट तो हो रही होगी मगर धीरे धीरे यह सब आप को भी अजबर [ कंठस्थ ] हो जायेगा ।धीरज रखिए ।</p><p><span style="background-color: #fcff01; color: red;">12 <span style="white-space: pre;"> </span>ज़ुज <span style="white-space: pre;"> </span></span> : सालिम रुक्न सबब और वतद के योग से बनता है। इन्हीं टुकड़ो से बनता है । कैसे बनता है इसकी चर्चा आगे करेंगे।इन्ही टुकड़ो को ’ज़ुज’ कहते हैं।</p><p><br /></p><p><span style="background-color: #fcff01; color: red;">13<span style="white-space: pre;"> </span>ज़िहाफ़</span><span style="white-space: pre;"> </span>: ज़िहाफ़ एक अमल है जो हमेशा ’सालिम रुक्न ’ पर ही लगता है। दरअस्ल -यह अमल ’सबब’ और ’ वतद’ पर ही होता है । ज़िहाफ़ से-सालिम रुक्न के वज़न में कतर-ब्यॊत हो जाती है। कमी -बेशी हो जाती है </p><p>और सालिम रुक्न का रूप बदल जाता है । इस बदली हुई शकल को " मुज़ाहिफ़ रुक्न’ कहते हैं । प्राय: वज़न में नुक़सान भी हो जाता है ।कभी कभी वज़न बढ़ भी जाता है । पर वज़न में ज़्यादातर: कमी ही हो होती है ।</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>ज़िहाफ़ की चर्चा किसी क़िस्त में विस्तार से करेंगे। </p><p><span style="white-space: pre;"> </span>शे’र में ’लोकेशन’ के लिहाज़ से ज़िहाफ़ 2-क़िस्म के होते हैं।</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>[अ<span style="color: #cc0000;">]<span style="white-space: pre;"> </span>आम ज़िहाफ़ </span>: वह ज़िहाफ़ जो शे’र के किसी मुक़ाम पर आ सकता है। [ शे’र के मुक़ाम के लिए <span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span>नीचे देखें ] जैसे-- ख़ब्न---क़ब्ज़--त्य्यै --</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>[<span style="color: #cc0000;">ब] <span style="white-space: pre;"> </span>ख़ास ज़िहाफ़</span> : वह ज़िहाफ़ जो शे’र के किसी ’ख़ास’ मुक़ाम पर ही आ सकता है [शे’र के मुक़ाम <span> </span><span> </span><span> </span><span> </span>के लिए नीचे देखें ] जैसे--क़स्र----हज़्फ़ --खरम---</p><p><span style="white-space: pre;"> </span> सालिम रुक्न पर अमल संख्या के लिहाज़ से ज़िहाफ़ 2-किस्म के होते है। </p><p><span style="white-space: pre;"> </span>[<span style="color: red;">अ] <span style="white-space: pre;"> </span>मुफ़र्द ज़िहाफ़ </span>: या ’एकल’ ज़िहाफ़। वह ज़िहाफ़ जो सालिम रुक्न पर ’अकेले’ ही अमल करता <span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span>एक बार ही अमल करता है ।</p><p><span style="white-space: pre;"> </span><span style="color: red;">[ब] मुरक़्क़ब ज़िहाफ़ </span> या मिश्रित ज़िहाफ़ । वह ज़िहाफ़ जि दो या दो से अधिक ज़िहाफ़ से मिल कर <span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span>बने हों।</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>कहते हैं कुल ज़िहाफ़ात की संख्या लगभग 50- के आस पास हैं </p><p><span style="color: red;"><b>14 <span style="white-space: pre;"> </span>सालिम बह्र </b></span>: वह बह्र जो सालिम रुक्न [ ऊपर लिखे हुए ] के तकरार [ आवृति] से बनती है । सालिम <span> <span> </span><span> </span><span> </span><span> </span>इ</span>सलिए कि ये अर्कान अपनी सालिम शकल [ बिना नुक़सान के ] में ही इस्तेमाल होती हैं </p><p><span style="white-space: pre;"> </span>’मुफ़ऊलातु’ -सालिम रुक्न से कोई सालिम बह्र नहीं बनती । वज़ाहत ऊपर नोट में दे दी गई है। सालिम <span> </span><span> </span><span> </span>बह्र --जैसे -- मुतक़ारिब --मुतदारिक --हज़ज--रमल --रजज़ --कामिल--वाफ़िर-<span style="white-space: pre;"> ।</span>इनकी संख्या 7- हैं </p><p><span style="color: red;"><b>15-<span style="white-space: pre;"> </span>मुरक़्कब बह्र </b></span>या मिश्रित बह्र ।वह बह्र जो 2-या 2 से अधिक सालिम रुक्न से मिल कर बनती है । जैसे -- <span> </span><span> </span><span> </span>मुज़ार’ ख़फ़ीफ़--मुज्तस--बसीत -- जदीद--[ आगे के क़िस्त में ज़िक्र आयेगा] इनकी संख्या 12- हैं </p><p>-<span style="color: red;"><b>16-<span style="white-space: pre;"> </span>मिसरा :</b></span> एक काव्यमयी अर्थ पूर्ण ,सार्थक लाइन [ पंक्ति] जो अरूज़ के मान्य वज़न / अर्कान /बह्र /आहंग <span> </span><span> </span>के अनुसार हो ,को मिसरा कहते है । </p><p><span style="color: red;"><b>17<span style="white-space: pre;"> </span>शे’र </b></span>= एक शे’र दो-मिसरों से मिल कर बनता है । पहले मिसरा को ’मिसरा ऊला’ [ ऊला/उला= अव्वल ] <span> </span><span> </span>कहते है और दूसरे मिसरे को ’मिसरा सानी’ कहते हैं । [सानी= दूसरा]</p><p><span style="color: red;"><b>18<span style="white-space: pre;"> </span>मतला </b></span>= किसी ग़ज़ल के पहले शे’र को [जहाँ से ग़ज़ल तुलुअ’ -शुरु होती है ]"मतला कहते है । इसके दोनो <span> </span><span> </span>मिसरों में ’हम क़ाफ़िया" इस्तेमाल होता है ।</p><p><span style="color: red;"><b>19 मक़्ता </b></span>= किसी ग़ज़ल का आख़िरी शे’र [ जहाँ ग़ज़ल क़त’ -ख़त्म हो जाती है कट जाती है ] को ’मक़्ता’ कहते हैं । अगर शायर ’तख़्ल्लुस" डालना चाहे तो इसी मक़्ता के शे’र में डालता है ।</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>’तख़्ल्लुस’ डालना ---मक़्ता की आवश्यक शर्त नहीं है --आप की मरजी। आप डालना चाहे डालें ,न डालना चाहे न डालें।</p><p><span style="color: red;"><b>20<span style="white-space: pre;"> </span>तख़ल्लुस [Pen Name ]</b></span> = बहुत से शायर अपना "उपनाम" रखते हैं -जो बाद में उनकी पहचान बन जाती है । जैसे ग़ालिब--दाग़-- ज़ौक़--जिगर -- जब कि इनके असल नाम और हैं।’</p><p><br /></p><p>21 <span style="white-space: pre;"> </span>-शे’र के मुक़ाम : किसी शे’र में अर्कान के ’लोकेशन’ के आधार पर उन मक़ामात के नाम भी दिए गए हैं जिससे उन स्थानों को पहचानने में या समझने में सुविधा हो ।</p><p><br /></p><p><span style="white-space: pre;"> </span><b>सद्र <span style="white-space: pre;"> </span></b>= मिसरा ऊला के पहले रुक्न के पहले मुक़ाम को - सद्र- कहते है ।</p><p><span style="white-space: pre;"> </span><b>अरूज़ </b> = मिसरा ऊला के अन्तिम मुक़ाम को -अरूज़- कहते हैं</p><p><br /></p><p><span style="white-space: pre;"> </span><b>इब्तिदा </b>= मिसरा सानी के पहले मुक़ाम को -इब्तिदा- कहते हैं</p><p><span style="white-space: pre;"> </span><b>ज़र्ब </b> = मिसरा सानी के अन्तिम मुकाम को --ज़र्ब-कहते हैं ।</p><p><br /></p><p><span style="white-space: pre;"> </span><b>हस्व </b> = किसी शे’र के [ सदर/अरूज़ या इब्तिदा/ ज़र्ब के बीच ] उन तमाम मुक़ामात को -हस्व- कहते है </p><p> <span style="white-space: pre;"> </span>इस परिभाषा की ज़रूरत क्यों पड़ी ? इसलिए पड़ी कि कुछ -ज़िहाफ़- सदर और इब्तिदा के लिए मख़्सूस [ ख़ास है ] तो आप ब आसानी समझ जाएँ कि अमुक ज़िहाफ़ किस मुक़ाम के रुक्न पर लगेगा।</p><p> <span style="white-space: pre;"> </span>वैसे ही अगर हम कहें कि अमुक -ज़िहाफ़- अरूज़/ज़र्ब के लिए मख़्सूस[ ख़ास] है तो आप समझ लें कि इस अमुक ज़िहाफ़ का अमल कहाँ होगा।</p><p><br /></p><p><span style="white-space: pre;"> </span>एक उदाहरण से देखते हैं </p><p><span style="white-space: pre;"> </span>सितारों से आगे जहाँ और भी हैं</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>अभी इश्क़ के इम्तिहाँ और भी हैं<span style="white-space: pre;"> </span>-इक़बाल -</p><p><span style="white-space: pre;"> </span></p><p><span style="white-space: pre;"> </span><span style="color: red;"><b>-सद्र -<span style="white-space: pre;"> </span>/ हस्व / हस्व / अरूज़</b></span></p><p><span style="white-space: pre;"> </span>सितारों /से आगे /जहाँ औ /र भी हैं</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>-------------------</p><p><span style="white-space: pre;"> </span><span style="color: red;"><b> -इब्तिदा-/ --हस्व--/ -हस्व- / ज़र्ब </b></span></p><p><span style="white-space: pre;"> </span>अभी इश्/ क़ के इम् / तिहाँ औ /र भी हैं<span style="white-space: pre;"> </span></p><p> एक और उदाहरण देखते हैं ---</p><p><span style="white-space: pre;"> </span><span style="color: #2b00fe;">दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है </span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><span style="white-space: pre;"> </span>आख़िर इस दर्द की दवा क्या है <span style="white-space: pre;"> </span>-ग़ालिब-<span style="white-space: pre;"> </span></span></p><p><span style="white-space: pre;"> </span></p><p><span style="white-space: pre;"> </span> <span style="color: red;">--सद्र-- / --हस्व-- / -अरूज़-</span></p><p><span style="white-space: pre;"> </span>दिल-ए-नादाँ / तुझे हुआ /क्या है </p><p><span style="white-space: pre;"> </span>--------------</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>-<span style="color: red;">-सद्र--- / -हस्व-- / - ज़र्ब-</span></p><p><span style="white-space: pre;"> </span>आख़िर इस दर्/ द की दवा /क्या है </p><p><br /></p><p><span style="color: red;"><b>22-<span style="white-space: pre;"> </span>मुरब्ब: बह्र :-</b></span><span style="white-space: pre;"> </span>वह शे’र जिसमें -’चार अर्कान [4] - का इस्तेमाल हुआ हो । यानी एक मिसरा में -दो रुक्न [2]- हो ।बज़ाहिर मुरब्ब: में -हस्व- का मुक़ाम नहीं होता। यानी </p><p><span style="white-space: pre;"> </span>मिसरा ऊला मे --सद्र और अरूज़-- और मिसरा सानी में -इब्तिदा और ज़र्ब । हो गए 4-रुक्न के मुक़ाम। </p><p><br /></p><p><span style="color: red;"><b>23- मुसद्दस बह्र </b></span><span style="white-space: pre;"> </span>: वह शे’र जिसमें -छह अर्कान [6] का इस्तेमाल हुआ हो यानी एक मिसरा में -तीन[3]- अर्कान हो । बज़ाहिर मुसद्दस शे’र के एक मिसरा में -एक हस्व- का ही मुक़ाम- आयेगा।</p><p><br /></p><p><span style="color: red;"><b>24 - मुसम्मन बह्र </b></span> : वह शे’र जिसमें -आठ- अर्कान [ 8 ]का इस्तेमाल हुआ हो यानी एक मिसरा में -चार [4] अर्कान हो । बज़ाहिर मुसम्मन शे’र के ए्क मिसरा में -दो हस्व - का मुक़ाम आयेगा</p><p> <span style="white-space: pre;"> </span>[नोट -याद रहे ये ’अर्कान’ सालिम भी हो सकते है या मुज़ाहिफ़ रुक्न [ सालिम रुक्न पर ज़िहाफ़ लगा हुआ ] भी हो सकते है या दोनो के मिश्रण भी हो सकते है । यह सब बह्र के नामकरण में आयेगा।</p><p><span style="color: red;"><b>25 मुज़ायफ़ [ मुज़ाइफ़] बह्र</b></span>:<span style="white-space: pre;"> </span>मुज़ायफ़/मुज़ाइफ़ के मा’नी होता है -दो गुना- करना । किसी शे’र में अगर अर्कान की संख्या को -दो गुना - कर दें तो उसके नाम में ’मज़ाइफ़’- शब्द जोड़ देंगे जिससे पता लग सके की शे’र मूलत: </p><p><span style="white-space: pre;"> </span>मुरब्ब: / मुसद्दस/ मुसम्मन ही है -बस अर्कान की संख्या को -दो गुना- कर के कहा गया है । यानी "मुरब्ब: मुज़ाइफ़" --में 8-अर्कान हैं। मुसद्दस मुज़ाइफ़ में -12- अर्कान हैं । मुसम्मन मुज़ाइफ़ में 16- अर्कान है</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>मुसम्मन मुज़ाइफ़ को कभी कभी 16-रुक्नी बह्र भी कहते हैं। </p><p><br /></p><p><span style="white-space: pre;"> </span>{ नोट - मुज़ाहिफ़ और मुज़ाइफ़ में ’कन्फ़्यूज’ नहीं होइएगा । मुज़ाहिफ़ ---ज़िहाफ़ शब्द से बना है ।जब कि मुज़ाइफ़ -[ -ह- नहीं है ] जिसके मा’नी होता है दो-गुना ।</p><p><span style="color: red;"><b>26 - कसरा-ए-इज़ाफ़त और वाव-ओ-अत्फ़</b></span> = विस्तार से समझने के लिए देखे <i><b><a href="https://aroozobahr.blogspot.com/2020/06/70.html" target="_blank">क़िस्त नं0-70 </a></b></i></p><p><br /></p><p><span style="color: red;"><b>27- तस्कीन-ए-औसत का अमल </b></span>= इस विषय पर विस्तार से अलग एक आलेख प्रस्तुत कर दूँगा । यहाँ संक्षेप में चर्चा कर लेता हूँ । </p><p><span style="white-space: pre;"> </span>= अगर किसी ’एकल मुज़ाहिफ़ रुक्न " में -तीन मुतहर्रिक हर्फ़ एक साथ लगातार एक के बाद एक [ मुतस्सिल] आ जाए तो बीच [ औसत ] वाला मुतहर्रिक -साकिन- माना जाता है</p><p><span style="white-space: pre;"> </span> इससे रुक्न की शकल बदल जायेगी । बदली हुई रुक्न को ’ मुसक्किन ’कहते हैं।</p><p><span style="white-space: pre;"> </span> यहाँ दो-तीन बातें ध्यान देने की है । तस्कीन-ए-औसत का अमल </p><p><br /></p><p><span style="white-space: pre;"> </span>[अ] हमेशा मुज़ाहिफ़ रुक्न पर ही होता है । सालिम रुक्न पर कभी नही होता।</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>[ ब] इसका अमल बह्र- के किसी मुज़ाहिफ़ रुक्न पर एक साथ सभी रुक्न पर या अलग अलग रुक्न हो सकता है शर्त यह है कि इस से बह्र बदलनी नहीं चाहिए जिस मुज़ाहिफ़ बह्र पर इसका अमल हो रहा है ।</p><p><span style="white-space: pre;"> </span></p><p><span style="white-space: pre;"> </span>अगर यही स्थिति ’दो-आस पास [ adjacent and consecutive ] रुक्न में आ जाए तो फिर इस अमल को "तख़्नीक़ का अमल" कहते है और बरामद रुक्न को ’मुख़्न्निक़" कहते है। </p><p><br /></p><p><span style="white-space: pre;"> </span>इन तमाम इस्तलाहात [ परिभाषाओं ] को समझने के लिए उदाहरण के तौर पर 1-2 लेते हैं जिससे बात और साफ़ हो जाएगी।</p><p><br /></p><p>ग़ज़ल 01 : <span style="white-space: pre;"> </span></p><p><span style="color: #660000;">अर्कान<span style="white-space: pre;"> </span>फ़ऊलुन-फ़ऊलुन-फ़ऊलुन-फ़ऊलुन</span></p><p><span style="color: #660000;">बह्र<span style="white-space: pre;"> </span>बह्र-ए-मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम</span></p><p><br /></p><p><span style="white-space: pre;"> </span><span style="color: #2b00fe;"><i>सितारॊं से आगे जहाँ और भी हैं</i></span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><i><span style="white-space: pre;"> </span>अभी इश्क़ के इम्तिहाँ और भी है -1-</i></span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><i><br /></i></span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><i><span style="white-space: pre;"> </span>तही ज़िन्दगी से नहीं ये फ़ज़ाएँ</i></span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><i><span style="white-space: pre;"> </span>यहाँ सैकड़ों कारवां और भी हैं <span style="white-space: pre;"> </span> -2-</i></span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><i><br /></i></span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><i><span style="white-space: pre;"> </span>कनाअत न कर आलम-ओ-रंग-ओ-बू पर</i></span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><i><span style="white-space: pre;"> </span>चमन और भी आशियाँ और भी हैं<span style="white-space: pre;"> </span>-3-</i></span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><i><br /></i></span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><i><span style="white-space: pre;"> </span>अगर खो गया तो इक नशेमन तो क्या ग़म</i></span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><i><span style="white-space: pre;"> </span>मुक़ामात-ए-आह-ओ-फ़ुगाँ और भी हैं -4-</i></span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><i><br /></i></span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><i><span style="white-space: pre;"> </span>तू शाहीं है परवाज़ है काम तेरा</i></span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><i><span style="white-space: pre;"> </span>तेरे सामने आसमाँ और भी हैं<span style="white-space: pre;"> </span>-5-</i></span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><i><br /></i></span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><i><span style="white-space: pre;"> </span>इसी रोज़-ओ-शब में उलझ कर न रह जा</i></span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><i><span style="white-space: pre;"> </span>कि तेरे ज़मान-ओ-मकाँ और भी हैं<span style="white-space: pre;"> </span>-6-</i></span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><i><br /></i></span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><i><span style="white-space: pre;"> </span>गए दिन कि तनहा था मैं अंजुमन में </i></span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><i><span style="white-space: pre;"> </span>यहाँ अब मेरे राज़दाँ और भी हैं<span style="white-space: pre;"> </span>-7-</i></span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><i><br /></i></span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><i><span style="white-space: pre;"> </span>-इक़बाल-</i></span></p><p><br /></p><p>इस ग़ज़ल में --</p><p>शे’र की संख्या <span style="white-space: pre;"> </span>= 7 [ किसी ग़ज़ल में कितने शे’र हो सकते है या होने चाहिए .इस पर अरूज़ ख़ामोश है ]</p><p>मतला <span style="white-space: pre;"> </span>= पहला शे’र न-1 = जिसके दोनो मिसरों का ’हम क़ाफ़िया- जहाँ- और -इम्तिहाँ- है </p><p><span style="white-space: pre;"> </span>मतला का मिसरा ऊला = सितारों के आगे----</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>मतला का मिसरा सानी = अभी इश्क़ के इम्तिहाँ ---</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>[ वैसे हर शे’र का पहला मिसरा - मिसरा उला कहलाता है और दूसरा मिसरा मिसरा सानी कहलाता है ।</p><p>हुस्न-ए-मतला <span style="white-space: pre;"> </span>= इस ग़ज़ल में ’हुस्न-ए-मतला; नहीं है । अगर होता तो ठीक ’मतला’ के नीचे आता और उसके भी दोनों मिसरे " हम काफ़िया" होते।</p><p>मक़ता<span style="white-space: pre;"> </span> = आख़िरी शे’र -7 = यहाँ पर शायर ने अपना तख़्ल्लुस ; इक़बाल : नहीं डाला है । मक़्ता में तख़्ल्लुस डालना कोई अनिवार्य शर्त</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>नहीं है । ग़ज़ल में कोई न कोई शे’र तो आख़िरी होगा ही ।वही मक़्ता होगा।</p><p>क़ाफ़िया <span style="white-space: pre;"> </span>= काफ़िया का बहु वचन ’क़वाफ़ी’ है। यहाँ क़वाफ़ी हैं---जहाँ--इम्तिहाँ--कारवाँ--आशियाँ--फ़ुगाँ--आसमाँ--मकाँ--राज़दां ---</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>हर शे’र के मिसरा सानी में "हम क़ाफ़िया" आना ज़रूरी है लाज़िमी है । क़ाफ़िया का अर्थ पूर्ण [ बा मा’नी होना ] ज़रूरी है ।</p><p>रदीफ़ <span style="white-space: pre;"> </span>= यहाँ रदीफ़ - और भी हैं-- । रदीफ़ एक शब्द लफ़्ज़ भी हो सकता है या एक जुमला भी हो सकता है ।रदीफ़ का मतला [ और हुस्न-ए-मतला भी ]</p><p><span style="white-space: pre;"> </span> के दोनो मिसरों में और हर शे’र के मिसरा सानी में आना ज़रूरी है ।</p><p>अर्कान <span style="white-space: pre;"> </span> <span style="white-space: pre;"> </span>= इस ग़ज़ल में जो रुक्न इस्तेमाल किए गए है -उसका नाम "फ़ऊलुन "[ 1 2 2 ] है और बिना किसी काट-छाँट के --पूरा का पूरा सालिम शकल में इस्तेमाल</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>हुआ है अत: इसे "सालिम बह्र " कहेंगे। मान लीजिए अगर किसी कारण वश [ ज़िहाफ़ के कारण ] किसी रुक्न में कोई काट-छाँट हो जाती [ यानी 122 की जगह 22 ही हो जाता तो]</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>फिर हम इसे ’सालिम ’ न कह कर "मुज़ाहिफ़’ [ उस ज़िहाफ़ के नाम के साथ] जोड़ देते। इत्तिफ़ाक़न इस बहर में कोई ज़िहाफ़ नहीं लगा है --सब रुक सालिम के सालिम ही हैं।</p><p> </p><p>बह्र <span style="white-space: pre;"> </span>= "फ़ऊलुन"- चूंकि बहर मुतक़ारिब का बुनियादी रुक्न तय किया गया अत: ग़ज़ल में इस बह्र का नाम होगा --बह्र-ए-मुतक़ारिब-। और चूंकि यह रुक्न मिसरा में 4- बार [ यानी </p><p><span style="white-space: pre;"> </span>=शे’र में 8-बार ] इस्तेमाल हुआ है तो हम इसे ’मुसम्मन’ कहेंगे। तब बह्र का पूरा नाम होगा----बह्र-ए-मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम--। हम प्राय: इसे </p><p><span style="white-space: pre;"> </span>122---122---122---122-- कर के दिखाते हैं । इस बह्र के बारे में या अन्य बह्र के बारे में आगे विस्तार से बात की गई है । मान लीजिए अगर किसी शे’र के एक मिसरे मे 3-ही अर्कान</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>यानी पूरे शे’र मे 6-अर्कान होते तो ] हम फ़िर मुसम्मन नहीं कहते बल्कि ’मुसद्दस’ कहते हैं ।</p><p><span style="white-space: pre;"> </span></p><p><span style="white-space: pre;"> </span>शे’र के मुक़ामात के लिए उदाहरण के तौर पर कोई एक शे’र ले लेते है । मान लीजिए 5-वाँ शे’र लेते हैं </p><p><span style="white-space: pre;"> </span>--A---- /---B---/ ---C---/ --D--</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>तू शाहीं /है परवा/ज़ है का/म तेरा</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>-------------------------------</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>--E----/---F--/--G------/--H-</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>तेरे सा/मने आ/ समाँ औ /र भी हैं<span style="white-space: pre;"> </span></p><p><br /></p><p> सद्र <span style="white-space: pre;"> </span>= A<span style="white-space: pre;"> </span>=-- तू शाहीं --[ 1 2 2 ]</p><p>अरूज़<span style="white-space: pre;"> </span>=D<span style="white-space: pre;"> </span>=--म तेरा - - [ 1 2 2 ]</p><p>इब्तिदा <span style="white-space: pre;"> </span>=E<span style="white-space: pre;"> </span>= --तेरे सा-- [ 1 2 2 ] </p><p>अरूज़<span style="white-space: pre;"> </span>=H<span style="white-space: pre;"> </span>= -र भी है [ 1 2 2 ]</p><p>हस्व<span style="white-space: pre;"> </span>= B--C--F--G <span style="white-space: pre;"> </span>= है परवा= ज है का--= मने आ--= समाँ और--= सभी 1 2 2 </p><p>नोट-1-<span style="white-space: pre;"> </span> आप के मन में एक सवाल उठ रहा होगा कि --तू--है---तेरे का -ते--देखने में तो - 2 -वज़न का लगता है मगर यहाँ -1- के वज़न पर क्यों लिया गया ?[ <a href="https://aroozobahr.blogspot.com/2020/10/75.html" target="_blank">देखिए किस्त -75 </a>]</p><p> 2-<span style="white-space: pre;"> </span> यह तो मुसम्मन शे’र था तो इसमें 4- हस्व आ गया। अगर यह शे’र ’मुसद्दस’ होता तो 2- ही हस्व आता है । और मुरब्ब: शे’र होता तो कोई ’हस्व का मुक़ाम नहीं होता । सोचिए क्यों ?</p><p><br /></p><p><span style="color: red;"><b>कसरा-ए-इज़ाफ़त </b></span> = आलम-ए-रंग -या - मुक़ामात-ए-आह आदि जैसे शब्द-संयोजन को ’कसरा-ए-इज़ाफ़त कहते हैं । -ए- यहाँ कसरा-ए-इज़ाफ़त है किसका अर्थ यहा है [ रंग की दुनिया ]</p><p><span style="color: red;"><b>वाव -ए- अत्फ़ </b></span> <span style="white-space: pre;"> </span> = रंग-ओ -बू या आह-ओ-फ़ुग़ाँ --आदि जैसे शब्द संयोजन को ’वाव-ए-अत्फ़’ कहते है । =वाव-यहाँ संयोजक है दो शब्दों का जिसका अर्थ होता है "और"</p><p><br /></p><p><br /></p><p>ग़ज़ल 02 <span style="white-space: pre;"> </span></p><p><span style="white-space: pre;"> </span><span style="color: #2b00fe;"><i>2122--------/--1212-----/-22</i></span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><i><span style="white-space: pre;"> </span>वक़्त-ए-पीरी/ शबाब की / बातें</i></span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><i><span style="white-space: pre;"> </span>ऐसी हैं जै /सी ख़्वाब की/ बातें<span style="white-space: pre;"> </span>1</i></span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><i><br /></i></span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><i><span style="white-space: pre;"> </span>उसके घर ले चला मुझे देखो</i></span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><i><span style="white-space: pre;"> </span>दिल-ए-ख़ाना ख़राब की बातें<span style="white-space: pre;"> </span>2</i></span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><i><br /></i></span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><i><span style="white-space: pre;"> </span>मुझको रुस्वा करेंगी ख़ूब ऎ दिल</i></span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><i><span style="white-space: pre;"> </span>ये तेरी इज़्तराब की बातें<span style="white-space: pre;"> </span>3</i></span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><i><br /></i></span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><i><span style="white-space: pre;"> </span>देख ऎ दिल न छेड़ किस्सा-ए-ज़ुल्फ़</i></span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><i><span style="white-space: pre;"> </span>कि ये हैं पेंच-ओ-ताब की बातें<span style="white-space: pre;"> </span>4</i></span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><i><br /></i></span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><i><span style="white-space: pre;"> </span>जिक्र क्या जोश-ए-इश्क़ में ऎ ’ ज़ौक़’</i></span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><i><span style="white-space: pre;"> </span>हम से हों सब्र-ओ-ताब की बातें<span style="white-space: pre;"> </span>5</i></span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><i><span style="white-space: pre;"> </span>-ज़ौक़-</i></span></p><p><br /></p><p><span style="white-space: pre;"> </span>नोट -वैसे मूल ग़ज़ल में 11-अश’आर हैं । हमने चर्चा के लिए यहाँ मात्र 5-ही अश;आर का इन्तख़ाब [ चुनाव है] किया है ।</p><p><br /></p><p>इस ग़ज़ल में --</p><p>शे’र की संख्या <span style="white-space: pre;"> </span>= 5 [ किसी ग़ज़ल में कितने शे’र हो सकते है या होने चाहिए .इस पर अरूज़ ख़ामोश है ]</p><p>मतला <span style="white-space: pre;"> </span>= पहला शे’र न-1 = जिसके दोनो मिसरों का ’हम क़ाफ़िया- --शबाब- और -ख़्वाब - है </p><p><span style="white-space: pre;"> </span>मतला का मिसरा ऊला = वक़्त-ए-पीरी------</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>मतला का मिसरा सानी = ऐसी हैं जैसे -----</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>[ वैसे हर शे’र का पहला मिसरा - मिसरा उला कहलाता है और दूसरा मिसरा मिसरा सानी कहलाता है ।</p><p>हुस्न-ए-मतला <span style="white-space: pre;"> </span>= इस ग़ज़ल में ’हुस्न-ए-मतला; नहीं है । अगर होता तो ठीक ’मतला’ के नीचे आता और उसके भी दोनों मिसरे " हम काफ़िया" होते।</p><p>मक़ता<span style="white-space: pre;"> </span> = आख़िरी शे’र -5 = यहाँ पर शायर ने अपना तख़्ल्लुस ; ज़ौक़ : डाला है । उनका असल नाम -शेख़ इब्राहिम था । ज़ौक़-इनका तख़्ल्लुस्स था । यह उस्ताद शायर थे । मक़्ता में तख़्ल्लुस डालना कोई अनिवार्य शर्त</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>नहीं है । ग़ज़ल में कोई न कोई शे’र तो आख़िरी होगा ही ।वही मक़्ता होगा।</p><p>क़ाफ़िया <span style="white-space: pre;"> </span>= काफ़िया का बहु वचन ’क़वाफ़ी’ है। यहाँ क़वाफ़ी हैं---शबाब--ख़्वाब---ख़राब---इज़्तराब---ताब---वग़ैरह </p><p><span style="white-space: pre;"> </span>हर शे’र के मिसरा सानी में "हम क़ाफ़िया" आना ज़रूरी है लाज़िमी है । क़ाफ़िया का अर्थ पूर्ण [ बा मा’नी होना ] ज़रूरी है ।</p><p>रदीफ़ <span style="white-space: pre;"> </span>= यहाँ रदीफ़ - की बातें -- । रदीफ़ एक शब्द लफ़्ज़ भी हो सकता है या एक जुमला भी हो सकता है ।रदीफ़ का मतला [ और हुस्न-ए-मतला भी ]</p><p><span style="white-space: pre;"> </span> के दोनो मिसरों में और हर शे’र के मिसरा सानी में आना ज़रूरी है ।</p><p>अर्कान <span style="white-space: pre;"> </span> <span style="white-space: pre;"> </span>= इस ग़ज़ल में जो मुरक्क़ब रुक्न [ यानी 2 किस्म के - सालिम रुक्न और उस पर ज़िहाफ़ लगा हुआ - इस्तेमाल हुआ है॥ इसी लिए इसे मुरक़्क़ब बह्र कहते है </p><p><span style="white-space: pre;"> </span>और ज़िहाफ़ लगा हुए अर्कान है तो मुरक़्क़ब मुज़ाहिफ़ बह्र कहेंगे । सालिम बह्र नहीं कहेंगे।-उसका नाम "फ़ऊलुन "[ 1 2 2 ] है और बिना किसी काट-छाँट के --पूरा का पूरा सालिम शकल में इस्तेमाल</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>हुआ है अत: इसे "सालिम बह्र " कहेंगे। मान लीजिए अगर किसी कारण वश [ ज़िहाफ़ के कारण ] जो अर्कान इस्तेमाल हुए हैं--वो हैं --फ़ाइलातुन---मुसतफ़इलुन--फ़ाइलातुन [ 2122--2212--2122-</p><p> </p><p>बह्र <span style="white-space: pre;"> </span>= यह मुरक़्क़ब बह्र है ।और चूंकि एक मिसरा में 3-अर्कान [यानी पूरे शेर में 6- अर्कान ] अत: इसे हम ’मुसद्दस" कहेंगे और चूंकि यह अर्कान अपने मुज़ाहिफ़ शकल में इस्तेमाल हुए है </p><p><span style="white-space: pre;"> </span>इस बह्र का ख़ास नाम है -- बह्र-ए-ख़फ़ीफ़ मुसद्दस मख़्बून महज़ूफ़ - है </p><p><span style="white-space: pre;"> </span></p><p>शे;र के मुक़ामात </p><p><span style="white-space: pre;"> </span>शे’र के मुक़ामात के लिए उदाहरण के तौर पर कोई एक शे’र ले लेते है । मान लीजिए पहला शे’र लेते हैं यहाँ</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>--A---- /---B-- -/ ---C--</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>वक़्त-ए-पीरी/ शबाब की / बातें</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>-------------------------------</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>--E---- /---F- -/--G---</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>ऐसी हैं जै /सी ख़्वाब की/ बातें</p><p><br /></p><p> सद्र <span style="white-space: pre;"> </span>= A<span style="white-space: pre;"> </span>=-- वक़्त-ए-पीरी [2 1 2 2 ]</p><p>अरूज़<span style="white-space: pre;"> </span>= C<span style="white-space: pre;"> </span>=-- बातें [ 2 2 ]</p><p>इब्तिदा <span style="white-space: pre;"> </span>=E<span style="white-space: pre;"> </span>= --ऐसी है जै-- -[ 2 1 2 2 ] </p><p>अरूज़<span style="white-space: pre;"> </span>= G<span style="white-space: pre;"> </span>= --बातें [ 2 2 ]</p><p>हस्व<span style="white-space: pre;"> </span>= B---F-= --शबाब की--- सी ख़्वाब की [ 1 2 1 2 ] </p><p><br /></p><p>नोट- <span style="white-space: pre;"> </span>यह शे’र ’मुसद्दस’ होता तो 2- ही हस्व आया । और मुरब्ब: शे’र होता तो कोई ’हस्व का मुक़ाम नहीं आता । सोचिए क्यों ?</p><p><br /></p><p>कसरा-ए-इज़ाफ़त = वक़्त-ए-पीरी / दिल-ए-ख़ाना / किस्सा-ए-ज़ुल्फ़/ जोश-ए-इश्क़ -आदि जैसे शब्द-संयोजन को ’कसरा-ए-इज़ाफ़त कहते हैं । -ए- यहाँ कसरा-ए-इज़ाफ़त है किसका अर्थ होता है -का-</p><p>वाव -ए- अत्फ़ <span style="white-space: pre;"> </span> = पेच-ओ-ताब/सब्र-ओ-ताब --आदि जैसे शब्द संयोजन को ’वाव-ए-अत्फ़’ कहते है । =वाव-यहाँ संयोजक है दो शब्दों का जिसका अर्थ होता है "और"</p><p><span style="color: red;"><b>तक़्तीअ’ </b></span><span style="white-space: pre;"> </span>= तक़्तीअ’ का शब्दकोशीय अर्थ तो होता है किसी चीज़ के टुकड़े टुकड़े करना । पर शायरी के सन्दर्भ में किसी शे’र [ या मिसरा] के टुकड़े टुकड़े करना । यह एक अमल है जिससे किसी शे’र या मिसरा का पता </p><p><span style="white-space: pre;"> </span>लगाते है कि मिसरा सही वज़न या बह्र में है या नहीं । यानी मिसरा बह्र से कहीं ख़ारिज़ तो नहीं है । इसके भी अपने उसूल हैं होते हैं । तक़्तीअ’ हमेशा ’तलफ़्फ़ुज़’ [ शे’र के अल्फ़ाज़ के उच्चारण ] के अनुसार ही </p><p><span style="white-space: pre;"> </span>होती है ---लिखे हुए अल्फ़ाज़ [ मक़्तूबी ] पर नहीं होता । तक़्तीअ’ में नून गुन्ना की गणना नहीं करते। मिसरा के टुकड़े -- मान्य बह्र और अर्कान के मुताबिक़ किया जाता है और देखते है कि अर्कान के ’मुतहर्रिक ’ की जगह</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>कोई मुतहर्रिक हर्फ़ और साकिन के मुक़ाम की जगह ’साकिन’ हर्फ़ आ रहा है कि नही । अगर अर्कान के अनुसार आ रहे हैं तो मिसरा बह्र में है ,वरना ख़ारिज़ है।तक़्तीअ’ पर विस्तार से किसी मुनासिब मुक़ाम परअलग से बात करेंगे।</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>जैसे -इक़बाल का एक शे’र है --</p><p><br /></p><p><span style="white-space: pre;"> </span><span style="color: #2b00fe;">न आते हमें इसमे तक़रार क्या थी</span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><span style="white-space: pre;"> </span>मगर वादा करते हुए आर क्या थी </span></p><p><br /></p><p><span style="white-space: pre;"> </span>हम जानते हैं कि यह शे’र मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम में है । कैसे? सतत अभ्यास से समझ में आ जायेगा। अत: इस मिसरा के टुकड़े भी वैसे ही करेंगे।</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>1 2 2 / 1 2 2 / 1 2 2 / 1 2 2</p><p><span style="white-space: pre;"> <span style="color: #2b00fe;"> </span></span><span style="color: #2b00fe;">न आते /हमें इस/ मे तक़ रा /र क्या थी</span></p><p><span style="white-space: pre;"> </span>1 2 2 / 1 2 2 / 1 2 2 / 1 2 2 </p><p><span style="white-space: pre;"> </span><span style="color: #2b00fe;">मगर वा/ दा करते / हुए आ /र क्या थी </span></p><p><span style="white-space: pre;"> </span>यह शे’र बिलकुल वज़न में है और बह्र में है और यह तक़्तीअ से ही पता चलेगा।</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>मैं यह तो दावा नहीं करता कि सभी बुनियादी इस्तलाहात [ परिभाषाओं ] पर बात कर ली ।अगर आइन्दा मज़ीद [अतिरिक्त ] बुनियादी परिभाषायें वक़्तन फ़क़्तन [ समय समय पर ] याद आते रहेंगे--या ज़रूरत महसूस होती रहेगी तो यहाँ पर लिखता चलूँगा।</p><p><i><span style="color: purple; font-size: x-small;">नोट- असातिज़ा [ गुरुवरों ] से दस्तबस्ता गुज़ारिश है कि अगर कहीं कुछ ग़लतबयानी हो गई हो गई हो तो बराये मेहरबानी निशान्दिही ज़रूर फ़र्माएं ताकि मैं आइन्दा ख़ुद को दुरुस्त कर सकूँ --सादर ]</span></i><br /><br /><span style="color: red;">-आनन्द.पाठक-</span><br /><span style="color: red;">Mb 8800927181ं</span><br /><span style="color: red;">akpathak3107 @ gmail.com</span></p><p><br /></p><p><br /></p><p><br /></p><p><span style="white-space: pre;"> </span></p><p><br /></p><p><br /></p><p><br /></p><p><span style="white-space: pre;"> </span> </p><p><span style="white-space: pre;"> </span></p><p><span style="white-space: pre;"> </span></p><p><span style="white-space: pre;"> </span></p><div><br /></div>आनन्द पाठकhttp://www.blogger.com/profile/00352393440646898202noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-3287188401583659492.post-11873446218812401332020-10-14T11:12:00.003+05:302023-03-02T01:21:16.328+05:30उर्दू बहर पर एक बातचीत : क़िस्त 75 : उर्दू शायरी में मात्रा गणना...<p><span style="color: red;"><b> सवाल : ग़ज़ल .शे’र या माहिया के मिसरों में मात्रा गिनने में भ्रम की स्थिति क्यों बनी रहती है ?</b></span></p><p><br></p><p>उत्तर : । बहुत से मित्रों ने यह सवाल किया है । उत्तर यहाँ लगा रहा हूँ जिससे इस ब्लाग के अन्य मित्र भी मुस्तफ़ीद(लाभान्वित) हो सकें ।</p><p> हिंदी मे मात्रा ’लघु [ 1 ] और दीर्घ [ 2 ] के हिसाब से गिनी जाती है । हिंदी में "मात्रा गिराने " का </p><p>कोई विचार नहीं होता ।हिंदी में जैसा लिखते हैं वैसा ही बोलते है ।अगर हम -<span style="color: red;">भी--थी--है</span></p><p><span style="color: red;">--की --सी--्सू--कू---</span>-जैसे वर्ण लिखेंगे तो हमेशा [2] ही गिना जायेगा क्योंकि सभी वर्ण अपनी पूरी आवाज़ देते हैं और खुल कर आवाज़ देते हैं ।</p><p>मगर उर्दू में शायरी ’तलफ़्फ़ुज़ " के आधार पर चलती है । जैसा लिखते हैं कभी कभी वैसा बोलते नहीं । </p><p>वहाँ पर वज़न /भार का ’कन्सेप्ट’ है --मुतहर्रिक हर्फ़ [1] और साकिन हर्फ़ का ’कन्सेप्ट’ है </p><p>उर्दू में -<span style="color: red;">भी--थी--है---की --सी---्सू--कू--को</span> जैसे सभी हर्फ़ एक साथ ही -2-[दीर्घ ] की भी हैसियत रखते है और मुतहर्रिक [1] की भी हैसियत रखते है । यह निर्भर करती है कि यह हर्फ़ मिसरा के रुक्न के किस मुक़ाम पर इस्तेमाल किया गया है । बह्र में उस मक़ाम पर वज़न की क्या माँग है । अगर रुक्न [1] का वज़न माँगता है यानी मुतहर्रिक हर्फ़ माँगता है तो इन हरूफ़ को [1] मानेंगे और अगर रुक्न [2] का वज़न माँगता है तो [2] गिनेंगे ।</p><p>इसीलिए शायरी करने से पहले ’अरूज़’ की जानकारी यानी रुक्न और बह्र की जानकारी हो तो बेहतर।</p><p>चलते चलते एक बात और--</p><p>उर्दू का हर लफ़्ज़--मुतहर्रिक से शुरु होता है और साकिन पर खत्म होता है । </p><p> इसी बात को और साफ़ करते हुए --कुछ अश’आर की तक़्तीअ कर के देखते है --</p><p><span style="color: #2b00fe;">*बह्र-ए-कामिल*</span> एक बड़ी ही मक़्बूल बह्र है जिसका बुनियादी सालिम रुक्न है -<span style="background-color: #fcff01;">-*मु* *त*फ़ा*इ*लुन --</span>[ 1 1 2 1 2 ]</p><p> जिसमें -*मु*- [मीम]--*त*--[ते] - और -*इ* [ ऐन] मुतहर्रिक है जिसे हमने -1- से दिखा्या हैं यहाँ ।</p><p>इसकी एक मशहूर आहंग है --<span style="background-color: #fcff01; color: red;">*बह्र-ए-कामिल मुसम्मन सालिम* </span></p><p>मु त फ़ा इ लुन --मु त फ़ा इ लुन --मु त फ़ा इ लुन --मु त फ़ा इ लुन यानी </p><p>1 1 2 1 2 ------1 1 2 1 2----1 1 2 1 2-----------1 1 2 1 2</p><p>इस बह्र में अमूमन हर नामचीन शायर ने ग़ज़ल कही है ।यहाँ हम बशीर बद्र साहब के 2-3 अश’आर और </p><p>अल्लामा इक़बाल के 1-शे’र इसी बह्र में कहे हुए ,देखते हैं कि ऊपर कही हुई बात साफ़ हो जाए ।</p><p>पूरी ग़ज़ल इन्टर्नेट पर मिल जाएगी।</p><p><span style="color: #2b00fe;">[1]<span style="white-space: pre;"> </span> कभी यूँ भी आ मेरी आँख में कि मेरी नज़र को ख़बर न हो</span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><span style="white-space: pre;"> </span>मुझे एक रात नवाज़ दे मगर इसके बाद सहर न हो </span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><span style="white-space: pre;"> </span>बशीर बद्र-</span></p><p><span style="color: #2b00fe;">[2]<span style="white-space: pre;"> </span>अभी इस तरफ़ न निगाह कर मैं ग़ज़ल की पलकें सँवार लूँ</span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><span style="white-space: pre;"> </span>मेरा लफ़्ज़ लफ़्ज़ हो आईना तुझे आईने में उतार लूँ </span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><span style="white-space: pre;"> </span>बशीर बद्र</span></p><p><span style="color: #2b00fe;">[3]<span style="white-space: pre;"> </span>यूँ ही बेसबब न फिरा करो कोई शाम घर भी रहा करो</span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><span style="white-space: pre;"> </span>वह ग़ज़ल की सच्ची किताब है उसे चुपके चुपके पढ़ा करो</span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><span style="white-space: pre;"> </span>बशीर बद्र </span></p><p><span style="color: #2b00fe;">[4] <span style="white-space: pre;"> </span>कभी ऎ हक़ीकत-ए-मुन्तज़र ,नज़र आ लिबास-ए-मजाज़ में </span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><span style="white-space: pre;"> </span>कि हज़ारों सज्दे तड़प रहे हैं मेरी जबीन-ए-नियाज़ में </span></p><p><span style="color: #2b00fe;"><span style="white-space: pre;"> </span>-इक़बाल-</span></p><p>यहाँ हम मात्र 2-शे’र की तक़्तीअ करेंगे जिससे बात साफ़ हो जाये । बाक़ी अश’आर की तक़्तीअ’ आप कर लें और मुतमुईन [ निश्चिन्त]</p><p>हो लें --अगर आप शायरी से ज़ौक़-ओ-शौक़ फ़रमाते हो तो ।</p><p><span style="white-space: pre;"> </span> 1 1 2 1 2 / 1 1 2 1 2 / 1 1 2 1 2 / 1 1 2 1 2</p><p><span style="white-space: pre;"> </span> क*भी* यूँ *भी* आ / *मे**री* आँख में /कि *मे* री न ज़र /*को* ख़ बर न हो</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>1 1 2 1 2 / 1 1 2 1 2 / 1 1 2 1 2 / 1 1 2 1 2</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>मु *झे* एक रा /त न वा ज़ दे / म ग *रिस* के बा /द स हर न हो </p><p>ध्यान दें </p><p>मिसरा उला में ---पहला -भी- [1] लिया जब कि दूसरा- भी- [2] लिया है ।क्यों ? क्योंकि उस मक़ाम पर जैसी बह्र की माँग थी वैसा लिया।</p><p>यही -भी-एक साथ [1] की भी हैसियत रखता है और [2] [ यानी सबब-ए-ख़फ़ीफ़] की भी हैसियत रखता है । अगर यह भेद आप नहीं जान पाएँगे</p><p>तो आप हिंदी मात्रा गणना के अनुसार हर जगह इसे ’दीर्घ वर्ण ’ मान कर -2- जोड़ते जाएंगे---जो ग़लत होगा और कह देंगे कि बशीर बद्र साहब की</p><p>यह ग़ज़ल बह्र से ख़ारिज़ है । मुझे उम्मीद है कि आप ऐसा कहेंगे नहीं ।</p><p>और हर्फ़ भी देख लेते है नीचे लिखे अक्षर देखने में तो -2- [दीर्घ] लगते है मगर यहाँ हम ले रहे हैं -1- मुतहर्रिक मान कर । क्योंकि मैने पहले ही कह दिया</p><p>है कि ऐसे अक्षर दोनो हैसियत रखते है--आप जैसा चाहें इस्तेमाल करें।</p><p>इसी को हम हिंदी में ’मात्रा’ गिराना समझते हैं।जब कि अरूज़ में मात्रा गिराने का कोई ’Concept ’ नहीं है । साकित करने का concept है।</p><p> ==वह ’तलफ़्फ़ुज़’ से ’कन्ट्रोल’ करेंगे --हल्का सा उच्चारण में दबा कर ।</p><p>मे = 1= क्योंकि मुतहर्रिक है </p><p>री = 1= -do-</p><p>को=1= -d0-चो</p><p>झे= 1= -do-</p><p>लगे हाथ दूसरे मिसरे में --*मगर इस* --पर बात कर लेते हैं।</p><p> इसे हमने -म ग *रिस*- [ 1 2 2--] पर लिया है । सही है । -रे- का वस्ल हो गया है।सामने वाले -अलिफ़- से </p><p> क्योंकि बह्र की माँग वहाँ यानी उस मुक़ाम पर वही थी --सो वस्ल करा दिया।</p><p>अब एक सवाल यह उठता है कि ’अलिफ़ - का वस्ल [ या ऐसा ही कोई और वस्ल ] *Mandatory* है या *Obligatory* है ?</p><p> इस पर कभी बाद में अलग से चर्चा करेंगे।</p><p>अब अल्लमा इक़बाल के शे’र पर आते हैं </p><p><span style="white-space: pre;"> </span> 1 1 2 1 2 / 1 1 2 1 2 / 1 1 2 1 2 / 1 1 2 1 2 </p><p> कभी ऎ हक़ी/कत-ए-मुन् त ज़र/ ,न ज़ र आ लिबा/स-ए-मजाज़ में </p><p><span style="white-space: pre;"> </span>1 1 2 1 2 / 1 1 2 1 2 / 1 1 2 1 2 / 1 1 2 1 2 </p><p><span style="white-space: pre;"> </span>कि हज़ारों सज / दे त ड़प रहे / हैं मे री जबी /न-ए-नियाज़ में </p><p>नोट -- हक़ीक़त-ए-मुन्तज़र</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>लिबास-ए-मजाज़</p><p><span style="white-space: pre;"> </span>जबीन-ए-नियाज़ </p><p>जैसे लफ़्ज़ को ’कसरा-ए-इज़ाफ़त" की तरक़ीब कहते है ।इस पर पहले भी बातचीत कर चुका हूँ।</p><p>वैसे तो हक़ीक़त का -*त*- </p><p>लिबास का-*स*- </p><p>जबीन का-*न* -</p><p>तो दर अस्ल --साकिन हर्फ़ है [ उर्दू का हर लफ़ज़ ’साकिन’ पर ख़त्म होता है । मगर ’कसरा-ए-इज़ाफ़त ’ [-ए-] के जेर ए असर साकिन हर्फ -त्--स्--न्-- मुतहर्रिक हो जाते है यानी -1- का वज़न</p><p>देने लगते हैं। ऊपर तक़्तीअ’ भी उसी हिसाब से की है । </p><p>एक बात और -- --नज़र आ लिबास-- न ज़ रा [ 1 1 2---] वही बात -र- के साथ अलिफ़ का वस्ल हो गया -सो -2- ले लिया ।</p><p>चलते चलते मेरे कुछ मित्र पूछते रहते है --कि हम 1-1 को 2 मान सकते है ?</p><p>यानी दो लघु वर्ण को एक दीर्घ ? हिंदी छन्द शास्त्र के हिसाब से मान लीजिए मगर अरूज़ के लिहाज़ से नहीं मान सकते [ कुछ विशेष अवस्था में छोड़ कर]</p><p>क्यों ?</p><p>अगर इसी केस में देख लें--कि अगर हम 1 1 को =2 मान लें तो क्या होगा ? 11212-----11212----11212----11212 का क्या होगा ?</p><p>बह्र फिर 2212---2212----2212----2212 यानी [ मुस तफ़ इलुन ---मुस तफ़ इलुन ---मुस तफ़ इलुन ---मुस तफ़ इलुन ] यानी *बह्र-ए-रजज़ मुसम्मन सालिम*</p><p>हो जायेगी । फिर ?</p><p><br></p><p><span style="background-color: #fcff01; color: #2b00fe;">जाना था जापान ,पहुँच गए चीन ,समझ गए ना ।</span></p><p><span style="color: red; font-size: x-small;"><i>नोट ; इस मंच पर मौजूद असातिज़ा [ गुरुजनों ] से दस्तबस्ता गुज़ारिश [करबद्ध प्रार्थना ] है अगर कुछ ग़्लर</i></span><br><span style="color: red; font-size: x-small;"><i>बयानी हो गई हो तो बराय मेहरबानी निशानदिहि [ रेखांकित ] कर दे कि जिससे मै आइन्दा [ आगे से] खुद</i></span><br><span style="color: red; font-size: x-small;"><i>को दुरुस्त कर सकूँ ।</i></span><br></p><p>सादर</p><p>-आनन्द.पाठक-</p><div><br></div>आनन्द पाठकhttp://www.blogger.com/profile/00352393440646898202noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-3287188401583659492.post-14832440880659829792020-07-14T17:37:00.005+05:302021-07-08T11:19:35.555+05:30उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 74 [ एक आहंग-दो नाम ]<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="color: red;"><b> उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 74 [ आहंग एक-नाम दो ]</b></span><br />
<br />
आज शकील बदायूँनी की ग़ज़ल केचन्द अश’आर मुलाहिज़ा फ़रमाएँ<br />
शकील बदायूँनी साहब का परिचय देने की कोई ज़रूरत नहीं है--आप सब लोग<br />
परिचित होंगे।<br />
अभी इन अश’आर का लुत्फ़ [आनन्द] उठाएँ ---इसके "बह्र" की बात बाद में करेंगे<br />
<br />
<span style="color: red;"><i>लतीफ़ पर्दों से थे नुमायाँ मकीं के जल्वे मकाँ से पहले</i></span><br />
<span style="color: red;"><i>मुहब्बत आइना हो चुकी थी वुजूद-ए-बज़्म-ए-जहाँ से पहले</i></span><br />
<span style="color: red;"><i><br /></i></span>
<span style="color: red;"><i>न वो मेरे दिल से बाख़बर थे ,न उनको एहसास-ए-आरज़ू था</i></span><br />
<span style="color: red;"><i>मगर निज़ाम-ए-वफ़ा था क़ायम कुशूद-ए-राज़-ए-निहाँ से पहले</i></span><br />
<br />
---<br />
---<br />
<span style="color: red;">अज़ल से शायद लिखे हुए थे ’शकील’ क़िस्मत में जौर-ए-पैहम </span><br />
<span style="color: red;">खुली जो आँखे इस अंजुमन में ,नज़र मिली आस्माँ से पहले</span><br />
<br />
एक दूसरी ग़ज़ल --के चन्द अश’आर--<br />
<br />
<span style="color: purple;"><i>न अब वो आँखों में बरहमी है ,न अब वो माथे पे बल रहा है</i></span><br />
<span style="color: purple;"><i>वो हम से ख़ुश हैं ,हम उन से ख़ुश हैं ज़माना करवट बदल रहा है</i></span><br />
<span style="color: purple;"><i><br /></i></span>
<span style="color: purple;"><i>खुशी न ग़म की ,न ग़म खुशी का अजीब आलम है ज़िन्दगी का</i></span><br />
<span style="color: purple;"><i>चिराग़-ए-अफ़सुर्दा-ए-मुहब्बत न बुझ रहा है न जल रहा है</i></span><br />
<span style="color: purple;"><i><br /></i></span>
<span style="color: purple;"><i>ये काली काली घटा ये सावन फ़रेब-ए-ज़ाहिद इलाही तौबा</i></span><br />
<span style="color: purple;"><i>वुज़ू में मसरूफ़ है बज़ाहिर ,हक़ीक़तन हाथ मल रहा है </i></span><br />
<br />
एक और ग़ज़ल --के चन्द अश’आर<br />
<br />
ब<span style="color: blue;"><i>स इक निगाहे करम है काफी अगर उन्हे पेश-ओ-पस नहीं है</i></span><br />
<span style="color: blue;"><i>ज़ह-ए-तमन्ना कि मेरी फ़ितरत असीर-ए-हिर्स-ए-हवस नहीं है</i></span><br />
<span style="color: blue;"><i><br /></i></span>
<span style="color: blue;"><i>कहाँ के नाले ,कहाँ की आहें जमी हैं उनकी तरफ़ निगाहें</i></span><br />
<span style="color: blue;"><i>कुछ इस तरह मह्व-ए-याद हूँ मैं कि फ़ुरसत-ए-यक नफ़स नहीं है</i></span><br />
------------------------<br />
ऐसे ही चन्द अश’आर अल्लामा इक़बाल साहब की एक ग़ज़ल के ---<br />
<br />
<i><span style="color: purple;">ज़माना आया है बेहिज़ाबी का आम दीदार-ए-यार होगा</span></i><br />
<i><span style="color: purple;">सुकूत था परदावार जिसका वो राज़ अब आशकार होगा</span></i><br />
<i><span style="color: purple;"><br /></span></i>
<i><span style="color: purple;">खुदा के आशिक़ तो है हज़ारों बनों में फिरते है मारे मारे</span></i><br />
<i><span style="color: purple;">मै उसका बन्दा बनूँगा जिसको ख़ुदा के बन्दों से प्यार होगा</span></i><br />
<i><span style="color: purple;"><br /></span></i>
<i><span style="color: purple;">न पूछ इक़बाल का ठिकाना अभी वही क़ैफ़ियत है उसकी</span></i><br />
<i><span style="color: purple;">कहीं सर-ए-रहगुज़ार बैठा सितम-कशे इन्तिज़ार होगा</span></i><br />
<br />
आप इन अश’आर को पढ़िए नहीं ।गुनगुनाइए --धीरे गुनगुनाइए --गाइए तब इस आहंग का<br />
आनन्द आयेगा । ये सभी ग़ज़लें गूगल पर मिल जायेगी ।<br />
अगर ’पढ़ना" ही है तो इनको पढ़िए नहीं --समझिए--भाव समझिए -- तासीर [ प्रभाव ] समझिए --शे’रियत समझिए<br />
तग़ज़्ज़ुल समझिए--मयार देखिए--बुलन्दी समझिए--फिर देखिए कि हम लोग कहाँ खड़े हैं ।<br />
<br />
कितना दिलकश आहंग है । इस बह्र में और भी शोअ’रा [ शायरों ] ने<br />
अपनी अपनी ग़ज़ले कहीं है --मुनासिब मुक़ाम [ उचित स्थान] पर उनकी भी चर्चा करूँगा।<br />
। आहंग [लय ] से पता चल गया होगा ।ये तमाम ग़ज़लें एक ही बहर में हैं ।<br />
और वो आहंग है --<br />
A<span style="white-space: pre;"> </span><span style="background-color: yellow;"><span style="color: red;">121--22 / 121--22 // 121--22 / 121--22 </span></span><br />
<span style="background-color: yellow;"><span style="color: red;"> <span style="white-space: pre;"> </span>बह्र-ए-मुक़्तज़िब मुसम्मन मख़्बून मरफ़ूअ’ , मख़्बून मरफ़ूअ’ मुसक्किन मुज़ाइफ़</span></span><br />
<span style="white-space: pre;"> </span>बड़ा लम्बा नाम है -मख्बून --मक्फ़ूफ़ -सब ज़िहाफ़ का नाम है ।<br />
<span style="white-space: pre;"> </span><br />
B<span style="white-space: pre;"> </span><span style="background-color: yellow; color: red;">121-22 /121--22 / 121--22 / 121-22 </span><br />
<span style="background-color: yellow; color: red;"><span style="white-space: pre;"> </span>इसी आहंग का दूसरा नाम भी है </span><br />
<span style="background-color: yellow; color: red;"><span style="white-space: pre;"> </span>बह्र-ए-मुतक़ारिब मक़्बूज़ असलम मुसम्मन मुज़ाहिफ़ </span><br />
<span style="white-space: pre;"> </span> <span style="white-space: pre;"> </span><br />
यानी बह्र एक --नाम दो ? दोनो ही मुज़ाइफ़--।दोनो ही 16-रुक्नी॥ दोनो ही दो-दो- रुक्न का इज़्तिमा [ मिला हुआ ] है<br />
शकल भी बिलकुल एक जैसी ।<br />
<br />
बस ,यहीं पर controversy है ।<br />
कुछ अरूज़ की किताबों में --A- की सही मानते हैं और इसे बह्र-ए-मुक़्तज़िब के अन्दर रखते है<br />
कुछ अरूज़ की किताबों में --B -को सही मानते है । बह्र-ए-मुतक़ारिब के अन्दर रखते है<br />
दोनों की अपनी अपनी दलाइल [ दलीलें ] हैं । अपने अपने ’जस्टीफ़िकेशन ’ हैं ।<br />
<br />
-A-सही माना भी जाए कि -B- सही माना जाए।<br />
<br />
आप इस चक्कर में क्यों पड़ें ?----बस ग़ज़ल गुनगुनाए और रसास्वादन करें<br />
<br />
चलिए पहले - B -पर चर्चा कर लेते है ।<br />
<br />
B<span style="white-space: pre;"> </span>121-22 /121--22 / 121--22 / 121-22<br />
<span style="white-space: pre;"> </span>इसी आहंग का नाम है<br />
<span style="white-space: pre;"> </span>बह्र-ए-मुतक़ारिब मक़्बूज़ असलम मुसम्मन मुज़ाहिफ़<br />
<br />
मुतक़ारिब का बुनियादी रुक्न है --"फ़ऊलुन--[ 1 2 2 ]<br />
<br />
फ़ऊलुन [ 1 2 2 ] + क़ब्ज़ = मक़्बूज़ =फ़ऊलु =1 2 1<br />
फ़ऊलुन [ 1 2 2 ] + सलम = असलम =फ़अ’ लुन = 2 2<br />
[ कब्ज़ और सलम --ये सब ज़िहाफ़ है । और इनके अमल के के निज़ाम [ व्यवहार की नियम ] है । यह खुद में<br />
एक अलग विषय है --इसमे विस्तार में जाने से बेहतर है कि हम बस इसे यहाँ मान लें ।<br />
<br />
अर्थात [ 121--22 ] एक आहंग बरामद हुआ । अब इसी की तकरार [ repetition ] करें<br />
<br />
मिसरा में 4-बार या शे’र में 8-बार तो उक्त आहंग मिलेगा<br />
चूँकि शे’र 16- अर्कान हो जायेंगे अत: इसे 16-रुक्नी बह्र भी कहते है ।<br />
<br />
अब इक़बाल के अश’आर की तक्तीअ’ इसी बह्र से करते हैं---<br />
<br />
1 2 1---2 2 / 1 2 1--2 2 / 1 2 1 - 2 2 / 1 2 1-2 2<br />
ज़मान: -आया / है बे हि-ज़ाबी /का आम -दीदा /र यार -होगा<br />
<br />
1 2 1 - 2 2 / 1 2 1- 2 2 / 1 2 1 --2 2 / 1 2 1-2 2<br />
सुकूत -था पर /द: वार -जिसका / वो राज़ -अबआ /शकार -होगा<br />
<br />
{<i><span style="color: blue;"> ध्यान दीजिये --अब-आशकार - में =अलिफ़ की वस्ल नहीं हुई है ?</span></i><br />
<i><span style="color: blue;">क्यों नहीं हुई ? ज़रूरत ही नहीं पड़ी । बह्र या रुक्न ने मांगा ही नहीं ।</span></i><br />
<i><span style="color: blue;">माँगता तो ज़रूर करते ।</span></i><br />
<br />
बाक़ी 2-अश’आर की तक़्तीअ’ आप कर के देख लें ।कही शे’र<br />
बह्र से ख़ारिज़ तो नहीं हो रही है ? अभ्यास का अभ्यास हो जायेगा -<br />
आत्म विश्वास का आत्म विश्वास बढ़ जायेगा ।<br />
<br />
अब -A- वाले आहंग पर आते हैं --<br />
A<span style="white-space: pre;"> </span><span style="background-color: yellow; color: red;">121--22 / 121--22 // 121--22 / 121--22 </span><br />
<span style="background-color: yellow; color: red;"> <span style="white-space: pre;"> </span>बह्र-ए-मुक़्तज़िब मुसम्मन मख़्बून मरफ़ूअ’ , मख़्बून मरफ़ूअ’ मुसक्किन मुज़ाइफ़</span><br />
मुक़तज़िब का बुनियादी अर्कान है --- मफ़ऊलातु--मुस तफ़ इलुन ---मफ़ऊलातु---मुस तफ़ इलुन<br />
यानी 2221---2212------2221-----2212<br />
<br />
मफ़ऊलातु [ 2221 ] + ख़ब्न + रफ़अ’ = मुज़ाहिफ़ मख़्बून मरफ़ूअ’ 1 2 1 = फ़ऊलु [ 1 2 1 ] बरामद होगा<br />
मुस तफ़ इलुन [ 2 2 1 2 } + ख़ब्न + रफ़अ’+ तस्कीन = मुज़ाहिफ़ मख़्बून मरफ़ूअ’ मुसक्किन = 2 2 = फ़अ’ लुन बरामद होगा<br />
<br />
[ ख़ब्न और रफ़अ’ --ये सब ज़िहाफ़ है । और इनके अमल के के निज़ाम [ व्यवहार की नियम ] है । यह खुद में<br />
एक अलग विषय है --इसमे विस्तार में जाने से बेहतर है कि बस आप इसे यहाँ मान लें ।<br />
<br />
अब इस औज़ान से शकील के किसी शे’र का तक़्तीअ’ करते है और देखते हैं --<br />
1 2 1 - 2 2 / 1 2 1 - 2 2 / 1 2 1 - 2 2 / 1 2 1 - 2 2<br />
न अब वो -आँखों /में बर ह -मी है ,/न अब वो -माथे /पे बल र-हा है<br />
<br />
1 2 1 - 2 2 / 1 2 1 - 2 2 / 1 2 1 - 2 2 / 1 2 1 - 2 2<br />
वो हम से -ख़ुश हैं ,/ ह मुन से -ख़ुश हैं / ज़मान: -कर वट /ब दल र -हा है[<br />
<br />
[ध्यान दीजिए-- हम-उन से - में -मीम- के साथ अलिफ़ का वस्ल हो गया और<br />
ह मुन से [ 1 2 1 ] रख दिया ।<br />
क्यों भाई ? इसलिए कि कि ज़रूरत पड़ गई । बह्र या रुक्न मांग रहा है यहाँ ।<br />
<br />
बाक़ी 2-अश’आर की तक़्तीअ’ आप कर के देख लें ।कही शे’र<br />
बह्र से ख़ारिज़ तो नहीं हो रही है ? अभ्यास का अभ्यास हो जायेगा<br />
आत्म विश्वास का आत्म विश्वास बढ़ेगा ।<br />
<br />
अब सवाल यह है कि --जब दोनो आहंग एक हैं --तो नाम क्यों मुखतलिफ़ है ।<br />
सही नाम क्या होगा ?<br />
सही नाम मुझे भी नहीं मालूम } दोनो किस्म के अरूज़ियों की अपनी अपनी दलीले हैं<br />
-A--वालों का कहना है [ जिसमे मैं भी हूँ --जब कि मैं अरूज़ी नहीं हूँ -एक अनुयायी हूँ ]<br />
कि -B - वाले सही नही हैं । कारण कि ज़िहाफ़ ’सलम’ [ मुज़ाहिफ़ "असलम ’-एक खास<br />
ज़िहाफ़ है जो शे’र के सदर/इब्तिदा के लिए मख़्सूस [ ख़ास] है --वो हस्व में लाया ही नही जा सकता<br />
तो zihaaf ka निज़ाम कैसे सही होगा ?<br />
<br />
खैर --आप तो ग़ज़ल के आहंग का मज़ा लीजिए--- गुनगुनाइए--गाइए --- अरूज़ की बात अरूज़ वाले जाने ।<br />
<br />
[<span style="color: red; font-size: x-small;"><i>नोट ; इस मंच पर मौजूद असातिज़ा [ गुरुजनों ] से दस्तबस्ता गुज़ारिश [करबद्ध प्रार्थना ] है अगर कुछ ग़्लर</i></span><br />
<span style="color: red; font-size: x-small;"><i>बयानी हो गई हो तो बराय मेहरबानी निशानदिहि [ रेखांकित ] कर दे कि जिससे मै आइन्दा [ आगे से] खुद</i></span><br />
<span style="color: red; font-size: x-small;"><i>को दुरुस्त कर सकूँ ।</i></span><br />
<br />
सादर<br />
-आनन्द.पाठक-<br />
<div>
<br /></div>
</div>
आनन्द पाठकhttp://www.blogger.com/profile/00352393440646898202noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-3287188401583659492.post-40642753222345360162020-06-17T11:13:00.002+05:302020-06-17T11:14:34.694+05:30उर्दू बह्र पर एक बातचीत : किस्त 73 [ एक सामान्य बातचीत 02 ]<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="color: red;"><b> उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त--- [ सामान्य बातचीत ]</b></span><br />
<br />
<span style="color: blue;">[<i> नोट - वैसे तो यह बातचीत उर्दू बह्र के मुतल्लिक़ तो नहीं है --शे’र-ओ-सुखन पर एक सामान्य बातचीत ही है </i></span><br />
<i><span style="color: blue;">मगर अक़्सात के सिलसिले को क़ायम रखते हुए इसका क़िस्त नं0 दिया है कि मुस्तक़बिल में आप को इस क़िस्त</span></i><br />
<i><span style="color: blue;">को ढूँढने में सहूलियत हो ]</span></i><br />
<br />
उर्दू शायरी में या शे’र में आप ने -<b>-<span style="color: purple;">पे --</span></b>या -<span style="color: purple;"><b>पर</b></span>--<span style="color: purple;"><b> के </b></span>-या <span style="color: purple;"><b>कर</b></span> का प्रयोग होते हुए देखा होगा ।<br />
आज इसी पर बात करते हैं<br />
मेरे एक मित्र ने अपने चन्द अश’आर भेंजे । कुछ टिप्पणी भी की । ये अश’आर <span style="background-color: yellow;">बह्र-ए-ख़फ़ीफ़</span> में थे ।<br />
-------------------<br />
<br />
2122-- 1212-- 22/112<br />
<br />
<i><span style="color: blue;">हँस कर भी मिला करे कोई</span></i><br />
<i><span style="color: blue;">मेरे ग़म की दवा करे कोई।</span></i><br />
<i><span style="color: blue;"><br /></span></i>
<i><span style="color: blue;">छोङ के वो चला गया मुझको ,</span></i><br />
<i><span style="color: blue;">लौटने की दुआ करे कोई।</span></i><br />
<br />
जिस पर मैने टिप्पणी की थी<br />
<br />
--<span style="background-color: yellow;">हँस "कर" भी--- [ -कर की जगह -के- कर लें ]</span><br />
<span style="background-color: yellow;">---छोड़ ’के’ वो चला -- [के- की जगह -कर- कर लें ]</span><br />
<br />
मेरे एक मित्र ने पूछा ’क्यों ?<br />
यह बातचीत उसी सन्दर्भ में हो रही है ।<br />
-----------------<br />
3- <span style="white-space: pre;"> </span>इसी मंच पर [ शायद ]बह्र-ए-ख़फ़ीफ़ के बारे में एक बातचीत की थी और ग़ालिब के एक ग़ज़ल<br />
<span style="white-space: pre;"> </span>’दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है -- जो इसी बह्र में है ,पर भी चर्चा की थी । हालांकि इस बह्र के मुतल्लिक़<br />
<span style="white-space: pre;"> </span>और भी कुछ बातें थी जिस पर चर्चा नहीं कर सका था । इंशा अल्लाह ,कभी मुनासिब मुक़ाम पर फिर चर्चा कर लेंगे<br />
<br />
अब इन अश’आर की तक़्तीअ’ पर आते है--<br />
<br />
<i><span style="color: purple;"> 2 2 2 / 1 2 1 2 / 2 2 </span></i><br />
<i><span style="color: purple;">हँस कर भी /मिला करे/ कोई = </span></i><br />
<i><span style="color: purple;">2 1 2 2 / 1 2 1 2 / 2 2 </span></i><br />
<i><span style="color: purple;">मेरे ग़म की /दवा करे /कोई।</span></i><br />
<i><span style="color: purple;"><br /></span></i>
<i><span style="color: purple;"> 2 1 2 2 / 1 2 1 2 / 2 2</span></i><br />
<i><span style="color: purple;">छोङ के वो/ चला गया /मुझको ,</span></i><br />
<i><span style="color: purple;">2 1 2 2 / 1 2 1 2 / 2 2</span></i><br />
<i><span style="color: purple;">लौटने की /दुआ करे /कोई।</span></i><br />
<br />
पहले शे’र के सदर के मुक़ाम पर <span style="color: red;">फ़ाइलातुन [ 2122] या फ़इ्लातुन [ 1 1 2 2 ]</span> नहीं आ रहा है जब कि आना चाहिए था ।अत:<br />
शे’र बह्र से ख़ारिज़ है ।<br />
<br />
<br />
<span style="background-color: yellow;">-पर- और -कर- </span>यह दोनॊ लफ़्ज़ खुल कर अपनी आवाज़ देते है यानी तलफ़्फ़ुज़ एलानिया होता है और -2- के वज़न पर लेते है ।<br />
<br />
यहाँ -के [ यहां -के- संबंध कारक नहीं है -जैसे राम के पिता --आप के घर ]<br />
बल्कि यह -कर - का वैकल्पिक प्रयोग है । यहाँ -पे-कहना बेहतर कि -के- कहना बेहतर का सवाल नहीं<br />
साधारण बातचीत और नस्र में प्राय: -कर- और -पर- ही बोलते हैं । दोनो के अर्थ भाव बिलकुल एक है ।<br />
मगर पर शायरी में वज़न के लिहाज़ से यह दोनो ’मुख़तलिफ़’ हैं<br />
<br />
। -के - अपना वज़न [-1-[ मुतहर्रिक ] और -2-[ सबब ] बह्र की माँग पर दोनों ही धारण कर सकता है<br />
लेकिन - कर- /-पर- कभी -1- का वज़न धारण नहीं कर सकता । अत: जहाँ -2- के वज़न की ज़रूरत है वहाँ पर आप के पास<br />
दोनों विकल्प मौज़ूद है मगर - कर/-पर- -- का प्रयोग ही वरेण्य है ।<br />
जहाँ -1- की ज़रूरत है वहाँ -के-/-पे- का ही प्रयोग उचित है । बाक़ी तो शायर की मरजी है ।<br />
<br />
हँस कर भी ---/ में एक सबब [2] कम है अत: चलिए फिलहाल इसे -तो- से भर देते हैं । यह फ़ाइलातुन [2 1 2 2 ] तो नहीं हुआ ।<br />
/हँस कर भी तो / कर देते है । -तो - से वज़न [ 2 2 2 2 ] वज़न हो गया --जो ग़लत हो गया ।<br />
फिर? -<br />
कर [2]- को -के [1 ] कर देते हैं । विकल्प मौजूद है ।आप के पास<br />
/हँस के भी तो /--- से 2 1 2 2 =फ़ाइलातुन = अब सही हो गया } लेकिन -तो- को यहाँ मैने भर्ती के तौर पर डाला था । जी बिल्कुल दुरुस्त । ऐसे लफ़्ज़ को<br />
<br />
’भरती का लफ़्ज़ " ही कहते है । भरती के शे’र और भरती के लफ़्ज़ -पर किसी और मुक़ाम पर बात करेंगे ।<br />
तो फिर ?<br />
कुछ नहीं --<br />
<br />
इसे यूँ कर देते है<br />
<span style="background-color: yellow;">/मुस्करा कर / = मुस-क-रा -कर /= 2 1 2 2 </span>== फ़ाइलातुन= यह भी वज़न सही है । विकल्प आप के पास है --मरजी आप की।<br />
<br />
इसी प्रकार<br />
<br />
-/छोड़ के वो / = 2 1 2 2 = कोई कबाहत नहीं =दुरुस्त है ।<br />
मगर आप के पास<br />
-के [2 ]- बजाय -कर [2] का दोनों विकल्प मौज़ूद है । कम से कम --कर - खुल कर साफ़ साफ़ आवाज़ तो देगा । और विकल्प भी है आप के पास । अपनी अपनी पसन्द है । -इस मुकाम पर -कर-<br />
ही वरेण्य है -अच्छा लगता । बाक़ी शायर की मरजी ।<br />
यानी<br />
/<span style="background-color: yellow;"> छोड़ कर वो</span> / 2 1 2 2 = फ़ाइलातुन =<br />
<br />
<br />
<br />
यह सब मेरी ’राय’ है कोई "बाध्यता " नहीं और नही अरूज़ में ऐसा कूछ लिखा ही है ।<br />
सादर<br />
<span style="color: red;"><i> [ असातिज़ा से दस्तबस्ता गुज़ारिश है कि अगर कोई ग़लत बयानी हो गई हो तो बराये मेहरबानी निशान दिही फ़र्मा देंगे ताकि आइन्दा खुद को दुरुस्त कर सकूँ ।</i></span><br />
<br />
-आनन्द.पाठक-<br />
<div>
<br /></div>
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आनन्द पाठकhttp://www.blogger.com/profile/00352393440646898202noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-3287188401583659492.post-84109817686275433852020-06-10T10:09:00.004+05:302020-07-20T17:22:04.053+05:30उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 72 [ अपनी एक ग़ज़ल की बह्र और तक़्तीअ’ ]<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="color: purple;"><b>उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 72 [ अपनी एक ग़ज़ल की बह्र और तक़्तीअ’ ]</b></span><br />
---------------------------- <br />
<span style="color: red;"> <i><span style="font-size: xx-small;">कुछ दिन पहले किसी मंच पर मैने अपनी एक ग़ज़ल पोस्ट की थी </span></i></span><br />
<i><span style="color: red; font-size: xx-small;"><br /></span></i>
<i><span style="color: red; font-size: xx-small;">ग़ज़ल : एक समन्दर ,मेरे अन्दर...</span></i><br />
<i><span style="color: red; font-size: xx-small;"><br /></span></i>
<i><span style="color: red; font-size: xx-small;">एक समन्दर , मेरे अन्दर </span></i><br />
<i><span style="color: red; font-size: xx-small;">शोर-ए-तलातुम बाहर भीतर <span style="white-space: pre;"> </span>1</span></i><br />
<i><span style="color: red; font-size: xx-small;"><br /></span></i>
<i><span style="color: red; font-size: xx-small;">एक तेरा ग़म पहले से ही </span></i><br />
<i><span style="color: red; font-size: xx-small;">और ज़माने का ग़म उस पर <span style="white-space: pre;"> </span>2</span></i><br />
<i><span style="color: red; font-size: xx-small;"><br /></span></i>
<i><span style="color: red; font-size: xx-small;">तेरे होने का भी तसव्वुर </span></i><br />
<i><span style="color: red; font-size: xx-small;">तेरे होने से है बरतर <span style="white-space: pre;"> </span>3</span></i><br />
<i><span style="color: red; font-size: xx-small;"><br /></span></i>
<i><span style="color: red; font-size: xx-small;">चाहे जितना दूर रहूँ मैं </span></i><br />
<i><span style="color: red; font-size: xx-small;">यादें आती रहतीं अकसर <span style="white-space: pre;"> </span>4</span></i><br />
<i><span style="color: red; font-size: xx-small;"><br /></span></i>
<i><span style="color: red; font-size: xx-small;">एक अगन सुलगी रहती है </span></i><br />
<i><span style="color: red; font-size: xx-small;">वस्ल-ए-सनम की, दिल के अन्दर 5</span></i><br />
<i><span style="color: red; font-size: xx-small;"><br /></span></i>
<i><span style="color: red; font-size: xx-small;">प्यास अधूरी हर इन्सां की </span></i><br />
<i><span style="color: red; font-size: xx-small;">प्यासा रहता है जीवन भर <span style="white-space: pre;"> </span>6</span></i><br />
<i><span style="color: red; font-size: xx-small;"><br /></span></i>
<i><span style="color: red; font-size: xx-small;">मुझको ही अब जाना होगा </span></i><br />
<i><span style="color: red; font-size: xx-small;">वो तो रहा आने से ज़मीं पर <span style="white-space: pre;"> </span>7</span></i><br />
<i><span style="color: red; font-size: xx-small;"><br /></span></i>
<i><span style="color: red; font-size: xx-small;">सोन चिरैया उड़ जायेगी </span></i><br />
<i><span style="color: red; font-size: xx-small;">रह जायेगी खाक बदन पर <span style="white-space: pre;"> </span>8</span></i><br />
<i><span style="color: red; font-size: xx-small;"><br /></span></i>
<i><span style="color: red; font-size: xx-small;">सबके अपने अपने ग़म हैं </span></i><br />
<i><span style="color: red; font-size: xx-small;">सब से मिलना’आनन’ हँस कर<span style="white-space: pre;"> </span>9</span></i><br />
<i><span style="color: red; font-size: xx-small;">----------------</span></i><br />
<i><span style="color: red; font-size: xx-small;"><br /></span></i>
<i><span style="color: red; font-size: xx-small;">जिस पर कुछ सदस्यों ने उत्साह वर्धन किया था ।</span></i><br />
<i><span style="color: red; font-size: xx-small;">और कुछ मित्रों ने इसकी बह्र जाननी चाही ।</span></i><br />
<i><span style="color: red; font-size: xx-small;"> उन सभी सदस्यों का बहुत बहुत धन्यवाद।</span></i><br />
<i><span style="color: red; font-size: xx-small;">यह आलेख उसी सन्दर्भ में लिखा गया है </span></i><br />
<i><span style="color: red; font-size: xx-small;">-------------------------------</span></i><br />
<i><span style="color: red; font-size: xx-small;">वैसे इस ग़ज़ल की </span></i><br />
<i><span style="color: red; font-size: xx-small;">मूल बह्र है --[ बह्र-ए-मुतक़ारिब असरम मक़्बूज़ मक़्बूज़ सालिम अल आख़िर ]</span></i><br />
<i><span style="color: red; font-size: xx-small;">अर्कान हैं ----फ़अ’ लु--- फ़ऊलु--फ़ऊलु---फ़ऊलुन </span></i><br />
<i><span style="color: red; font-size: xx-small;">अलामत है <span style="white-space: pre;"> </span>21-- 121-- 121- -122 </span></i><br />
<i><span style="color: red; font-size: xx-small;">जिस पर आगे चर्चा करेंगे अभी</span></i><br />
<i><span style="color: red; font-size: xx-small;"><br /></span></i>
<i><span style="color: red; font-size: xx-small;"><b>यह आलेख उसी सन्दर्भ में लिखा गया है </b></span></i><br />
<i><span style="font-size: xx-small;">---------------------------------------</span></i><br />
<br />
इस ग़ज़ल की बह्र और तक़्तीअ’ पर आएँ ,उसके पहले कुछ अरूज़ पर कुछ<br />
बुनियादी बातें कर लेते है ।<br />
<span style="color: blue;">1-<span style="white-space: pre;"> </span> बह्र-ए-मुतक़ारिब कहने से हम लोगों के ज़ेहन में -मुतक़ारिब की 2-4 ख़ास बहरें ही उभर आती है जिसमे अमूमन </span><br />
<span style="color: blue;"><span style="white-space: pre;"> </span>हम आप शायरी करते है । जैसे - मुसम्मन सालिम ,मुसद्दस सालिम या फिर इसकी कुछ महज़ूफ़ या मक्सूर शकल की ग़ज़लें</span><br />
<span style="color: blue;"><span style="white-space: pre;"> </span>या ज़्यादा से ज़्यादा मुरब्ब: की कुछ शकलें</span><br />
<span style="color: blue;">2-<span style="white-space: pre;"> </span> इन के अलावा भी और भी बहुत सी बहूर है मुतक़ारिब के जिसमें बहु्त कम शायरी की गई है या की जाती है । ऊपर लिखी </span><br />
<span style="color: blue;"><span style="white-space: pre;"> </span>बह्र भी इसी में से एक बह्र है।</span><br />
<span style="color: blue;">3- <span style="white-space: pre;"> </span>अगर कोई बह्र अरूज़ के उसूल के ऐन मुताबिक़ हो और अरूज़ के किसी कानून, उसूल या क़ायदा की कोई खिलाफ़वर्जी </span><br />
<span style="color: blue;"><span style="white-space: pre;"> </span>न करती हो -तो वह बह्र इस बिना पर रद्द या ख़ारिज़ नहीं की जा सकती कि इसका उल्लेख अरूज़ की कई किताबों में नहीं किया गया है ।या शायरों नें</span><br />
<span style="color: blue;"><span style="white-space: pre;"> </span>इस बह्र में तबाज़्माई नहीं की है ।</span><br />
<span style="color: blue;">4-<span style="white-space: pre;"> </span>वैसे तो बहर-ए-वफ़ीर में भी बहुत कम या लगभग ’न’ के बराबर शायरी की कई है तो क्या अरूज़ की किताबों से बह्र-ए-वाफ़िर को रद्द या ख़ारिज़ </span><br />
<span style="color: blue;"><span style="white-space: pre;"> </span>कर देना चाहिए ?</span><br />
<span style="color: blue;">5- यह अरूज़ और बह्र की नहीं ,यह हमारी सीमाएँ हैं हमारी कोताही है कि हम ऐसे बह्र में शायरी नहीं करते ।बहूर तो बह्र-ए-बेकराँ है ।</span><br />
<span style="color: blue;">6-<span style="white-space: pre;"> </span>कुछ मित्रों ने इसे बह्र-ए-मीर से भी जोड़ने की कोशिश की । मज़्कूरा बह्र " बह्र-ए-मीर" भी नहीं है । जो सदस्य बह्र-ए-मीर के बारे में मज़ीद मालूमात चाहते </span><br />
<span style="color: blue;"><span style="white-space: pre;"> </span>हैं वो मेरे ब्लाग पर " उर्दू बह्र पर एक बातचीत :क़िस्त 59 [ बह्र-ए-मीर ] देख सकते हैं । वहाँ तफ़्सील से लिखा गया है ।</span><br />
<span style="color: blue;">7-<span style="white-space: pre;"> </span>मैने इस ग़ज़ल में कहीं नही कहा कि इसकी बह्र" ---’ यह है । ध्यान से देखें तो मैने ’’मूल" बह्र है -----" लिखा है जिसका अर्थ होता है कि इस "मूल’ बह्र से और भी </span><br />
<span style="color: blue;"><span style="white-space: pre;"> </span>मुतबादिल औज़ान बरामद हो सकते है जो मिसरा में एक दूसरे के बदले लाए जा सकते हैं । अरूज़ में और शायरी में इस की इजाज़त है ।</span><br />
<span style="color: blue;"><span style="white-space: pre;"> </span>इन ’मुतबादिल औज़ान ’ और बह्र की चर्चा और ग़ज़ल की तक़्तीअ आगे करेंगे ।</span><br />
<span style="color: blue;">8- <span style="white-space: pre;"> </span>यह यह एक " ग़ैर मुरद्दफ़" ग़ज़ल [ यानी वह ग़ज़ल जिसमें रदीफ़ नहीं होता ] है </span><br />
<br />
अब ग़ज़ल की बह्र पर आते हैं<br />
<br />
1- मैने मूल बह्र में ही इशारा कर दिया था कि इस बह्र का आख़िरी रुक्न सालिम [फ़ऊलुन 1 2 2 ] है । अत: यह मुतक़ारिब की ही कोई बह्र होगी।<br />
<span style="color: red;">2- आप बह्र-ए-मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम से ज़रूर परिचित होंगे --</span><br />
<span style="color: red;"><span style="white-space: pre;"> </span>फ़ऊलुन---फ़ऊलुन --फ़ऊलुन--फ़ऊलुन</span><br />
<span style="color: red;"> यानी 1 2 2---1 2 2----1 2 2 2---1 2 2 </span><br />
<span style="color: red;"><span style="white-space: pre;"> </span>--A---------B---------C_--------D</span><br />
अब इन्हीं अर्कान [तफ़ाईल] पर मुनासिब ज़िहाफ़ लगा कर देखते हैं क्या होता है ।<br />
<br />
अगर A=फ़ऊलुन [ 1 2 2 ] पर ’सरम’ का ज़िहाफ़ लगाएँ तो जो मुज़ाहिफ़ रुक्न हासिल होगी उसका नाम ’असरम’ होगा और यह सदर और इब्तिदा<br />
के मुक़ाम पर लाया जा सकता है<br />
<br />
<span style="color: blue;">फ़ऊलुन [ 1 2 2 ]+ सरम = असरम ’ फ़ अ’ लु ’ [ 2 1 ] बरामद होगा ।</span> -ऐन -साकिन -लु- मुतहर्रिक [1] है यहाँ<br />
<br />
अगर B= फ़ऊलुन [ 1 2 2 ] पर ’कब्ज़’ का ज़िहाफ़ लगाया जाय तो मुज़ाहिफ़ रुक्न हासिल होगा उसका नाम होगा ’मक़्बूज़’<br />
<span style="color: blue;"><br /></span>
और यह आम ज़िहाफ़ है और ’हस्व’ के मुक़ाम पर लाया जा सकता है ।<br />
<br />
<span style="color: blue;">फ़ऊलुन [1 2 2 ] + कब्ज़ = मक़्बूज़ "फ़ ऊ लु " [ 1 2 1 ]बरामद होगा / -लाम - [1] मुतहर्रिक है </span><br />
<br />
फ़ऊलुन [ 1 2 2 ] तो ख़ैर फ़ऊलुन ही है । सालिम रुक्न है ।<br />
तो अब मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम [ 122---122---122---122 ] की मुज़ाहिफ़ शकल<br />
यूँ हो जायेगी<br />
<br />
<span style="color: red;">फ़ अ’ लु ’ ----फ़ ऊ लु -----फ़ ऊ लु ----फ़ऊलुन </span><br />
<span style="color: red;">21-----------1 2 1 --------1 2 1 -------1 2 2</span><br />
<span style="color: red;">A B C D</span><br />
<br />
इसी बह्र को मैने "मूल बह्र’ कहा है<br />
अब इस ’मूल बह्र ’ से हम आगे बढ़ते है --तख़्नीक- के अमल से<br />
आप जानते हैं कि ’तख़्नीक’ का अमल सिर्फ़ ’मुज़ाहिफ़ रुक्न ’ पर ही लगता है । सालिम रुक्न पर कभी नहीं करता ।<br />
तो ऊपर जो ’मुज़ाहिफ़ ’ रुक्न हासिल हुआ है उस पर अमल हो सकता है [ मात्र आखिरी रुक्न को छोड़ कर जो एक सालिम रुक्न है ]<br />
<br />
<i><span style="color: blue;">यहाँ ’तख़नीक़’ के अमल की थोड़ी -सी चर्चा कर लेते है।</span></i><br />
<i><span style="color: blue;">अगर किसी दो-पास पास वाले मुज़ाहिफ़ रुक्न [ adjacent rukn ] में ’तीन’ मुतहर्रिक हर्फ़ एक साथ ’ आ जायें तो "बीच वाला ’ हर्फ़ साकिन हो जायेगा</span></i><br />
<br />
हमारे केस में ’तीन मुतहर्रिक हर्फ़ " -दो-पास पास वाले मुज़ाहिफ़ रुक्न [ adjacent rukn ] में आ गए हैं तो तख़नीक़ का अमल होगा ।<br />
-फ़े- लाम -और -ऐन-<br />
<br />
अगर यह अमल आप A--B---C---D पर ONE-by-ONE लगाएँगे तो आप को कई मुतबादिल औज़ान बरामद होंगे। आप ख़ुद कर के देख लें ।<br />
मश्क़ की मश्क़ हो जायेगी और आत्मविश्वास भी बढ़ जायेगा ।<br />
<span style="color: purple;">कुछ मुतबादिल औज़ान नीचे लिख दे रहा हूँ ---</span><br />
<span style="color: purple;"><b>E<span style="white-space: pre;"> </span>21---122---22--22 </b></span><br />
<span style="color: purple;"><b>F <span style="white-space: pre;"> </span>22---22----21-122</b></span><br />
<span style="color: purple;"><b>G<span style="white-space: pre;"> </span>21---122----22--22</b></span><br />
<span style="color: purple;"><b>H<span style="white-space: pre;"> </span>21--122---21---122</b></span><br />
<span style="color: purple;"><b>J<span style="white-space: pre;"> </span>22---22--22---22-</b></span><br />
<br />
इस अमल से एक वज़न यह भी बरामद होगा --जो मैने मतला के दोनो मिसरा में इस्तेमाल किया है ।और यह वज़न अरूज़ के ऎन क़वानीन के मुताबिक़ है<br />
और अरूज़ के किसी क़ाईद की ख़िलाफ़वर्ज़ी भी नहीं किया मैने ।<br />
<br />
अच्छा । आप इस अरूज़ी तवालत से बचना चाह्ते हैं तो A--B--C--D वाले रुक्न में एक आसान रास्ता भी है ।<br />
आप 1+1 =2 कर दीजिए तो भी काम चल जायेगा । बहुत से मित्र प्राय: यह पूछते रह्तें हैं कि क्या हम 1+1= 2 मान सकते है ।<br />
हाँ बस इस विशेष मुक़ाम पर मान सकते हैं । और किसी जगह नहीं । । यह रास्ता बहुत दूर तक नहीं जाता।बस यहीं तक जाता है ।<br />
क्यों?<br />
क्योंकि जब आप 1+1 को दो मानना शुरु कर देंगे तो<br />
कामिल की बह्र का बुनियादी रुक्न है ’मु त फ़ाइलुन 1 1 2 1 2 ] तो 2 2 1 2 हो जायेगा यानी ’मुस तफ़ इलुन [2 2 1 2 ] हो जायेगा जो बह्र-ए-रजज़ का बुनियादी रुक्न है<br />
यह तो फिर ग़लत हो जायेगा।<br />
वैसे ही<br />
वाफिर की बह्र का बुनियादी रुक्न है ’मुफ़ा इ ल तुन [ 1 2 1 1 2 ] तो 12 2 2 हो जायेगा यानी ’मफ़ाईलुन [ 1 2 2 2 ]’ जो बह्र-ए-हज़ज ’ का बुनियादी रुक्न है ।<br />
यह तो फिर ग़लत हो जायेगा।<br />
<br />
इसीलिए कहता हूँ कि 1+1 = 2 हर मुक़ाम पर नहीं होता ।<br />
<br />
अब अपनी ग़ज़ल की तक़्तीअ’ कर के देखते है कि यह बह्र में है या बह्र से ख़ारिज़ है "<br />
21-- -/-122-- / 2 2 / 2 2 <span style="white-space: pre;"> </span>= E<br />
एक / स मन दर / मेरे /अन दर<br />
21-----/1 2 2 / 2 2 / 2 2 <span style="white-space: pre;"> </span>=<span style="white-space: pre;"> </span>=E<br />
शोर-ए-तलातुम बाहर / भीतर <span style="white-space: pre;"> </span>1 = शोर-ए-तलातुम में कसरा-ए-इज़ाफ़त से शोर का -र- मुतहर्रिक हो जायेगा। और -र- खींच कर [इस्बाअ’] नहीं पढ़ना है<br />
<br />
21---/ 1 2 2 / 2 2 / 2 2 <span style="white-space: pre;"> </span>=E<br />
एक/ तिरा ग़म / पहले / से ही <span style="white-space: pre;"> </span><br />
2 1 / 1 2 2 / 2 2 / 2 2<span style="white-space: pre;"> </span>=E<br />
और /ज़माने /का ग़म /उस पर <span style="white-space: pre;"> </span>2<span style="white-space: pre;"> </span><br />
<br />
22 / 22 / 2 1 / 1 2 2 <span style="white-space: pre;"> </span>=F<br />
तेरे / होने /का भी /तसव्वुर<br />
2 2 / 2 2 /<span style="white-space: pre;"> </span> 2 2 / 2 2 <span style="white-space: pre;"> </span>=J<span style="white-space: pre;"> </span><br />
तेरे /होने / से है / बरतर <span style="white-space: pre;"> </span>3<br />
<br />
2 2 / 2 2 / 21 / 1 2 2<span style="white-space: pre;"> </span>=F<br />
चाहे /जितना /दूर /रहूँ मैं<br />
22 / 22 / 2 2 / 2 2 <span style="white-space: pre;"> </span>=J<br />
यादें /आती /रहतीं /अकसर <span style="white-space: pre;"> </span>4<br />
<br />
2 1 / 1 2 2 / 2 2 / 2 2 <span style="white-space: pre;"> </span>=E<br />
एक /अगन सुल/गी रह/ती है<br />
2 1 / 1 2 2 / 2 2 / 2 2 <span style="white-space: pre;"> </span>=E<br />
वस्ल-ए-सनम की, दिल के / अन्दर 5<br />
<br />
21 / 1 2 2 / 2 2 / 2 2 <span style="white-space: pre;"> </span>= E<br />
प्यास /अधूरी /हर इन्/साँ की <br />
2 2 / 2 2 / 2 2/ 2 2<span style="white-space: pre;"> </span>=J<br />
प्यासा /रहता /है जी /वन भर <span style="white-space: pre;"> </span>6<br />
<br />
2 2 / 2 2 / 2 2 / 2 2 <span style="white-space: pre;"> </span>=J<br />
मुझको /ही अब /जाना /होगा <br />
2 1 / 1 2 2 / 2 1 / 1 2 2<span style="white-space: pre;"> </span>=H<br />
वो तो / रहा आ / ने से ज़मीं पर 7<br />
<br />
2 1 / 122 / 2 2 / 2 2<span style="white-space: pre;"> </span>=G<br />
सोन /चिरैया /उड़ जा/ येगी <br />
2 2 / 2 2 / 2 1 / 1 2 2<span style="white-space: pre;"> </span>=F<br />
रह जा/येगी /खाक /बदन पर <span style="white-space: pre;"> </span>8<br />
<br />
2 2 / 2 2/ 2 2 / 2 2 <span style="white-space: pre;"> </span>=J<br />
सब के /अप ने /अप ने /ग़म हैं<br />
2 2 / 2 2 / 2 2 / 2 2 <span style="white-space: pre;"> </span>=J<br />
सब से/ मिलना’/आनन’/ हँस कर 9<br />
<br />
उमीद करता हूँ कि मैं अपनी बात कुछ हद तक साफ़ कर सका हूँ ।<br />
<br />
<span style="color: red;">नोट - इस मंच के तमाम असातिज़ा से दस्तबस्ता गुज़ारिश है अगर कहीं कोई ग़लत बयानी हो गई हो तो बराय मेहरबानी </span><br />
<span style="color: red;">निशानदिही फ़र्मा दें जिस से यह हक़ीर आइन्दा खुद को दुरुस्त कर सके ।</span><br />
<br />
सादर<br />
-आनन्द.पाठक -<br />
<div>
<br /></div>
</div>
आनन्द पाठकhttp://www.blogger.com/profile/00352393440646898202noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3287188401583659492.post-59344370182961042152020-06-04T09:17:00.002+05:302020-06-06T12:04:57.128+05:30उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 71 [ ग़ालिब की एक ग़ज़ल और उसकी बह्र ]<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="color: red;"><b>उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त -71- [ग़ालिब की एक ग़ज़ल और उसकी बह्र]</b></span><br />
<br />
<span style="color: blue;"><i><u>मिर्ज़ा ग़ालिब की एक ग़ज़ल है --</u></i></span><br />
<span style="color: blue;"><br /></span>
<span style="color: blue;">दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है </span><br />
<span style="color: blue;">आख़िर इस दर्द की दवा क्या है </span><br />
<span style="color: blue;"><br /></span>
<span style="color: blue;">हम है मुश्ताक़ और वो बेज़ार</span><br />
<span style="color: blue;">या इलाही ! ये माजरा क्या है </span><br />
<span style="color: blue;"><br /></span>
<span style="color: blue;">मैं भी मुँह में ज़ुबान रखता हूँ</span><br />
<span style="color: blue;">काश ! पूछो कि "मुद्दआ क्या है "</span><br />
<span style="color: blue;"><br /></span>
<span style="color: blue;">-----</span><br />
<span style="color: blue;">-----</span><br />
<span style="color: blue;">मैने माना कि कुछ नहीं ”ग़ालिब’</span><br />
<span style="color: blue;">मुफ़्त हाथ आए तो बुरा क्या है </span><br />
----------------------------<br />
<br />
यह ग़ज़ल आप ने ज़रूर सुनी होगी । कई बार सुनी होगी ।कई गायकों ने कई<br />
मुख़्तलिफ़ अन्दाज़ में गाया है । बड़ी दिलकश ग़ज़ल है ।इतनी दिलकश<br />
और मधुर कि हम इसको सुनने में ही तल्लीन रहते हैं।<br />
मगर<br />
हमने कभी इसकी ’बह्र’ पर ध्यान नहीं दिया कि इसकी बह्र क्या है ? ग़ज़ल ही इतनी मानूस<br />
और मक़्बूल है कि बह्र की कौन सोचे ? वैसे हमारे जैसे श्रोता ,लोगों को ग़ज़ल के दिलकशी<br />
अन्दाज़ से लुत्फ़ अन्दोज़ होते हैं।इसकी तअ’स्सुर में मुब्तिला हो जाते है ।<br />
<br />
मगर नहीं ।<br />
आप जैसे प्रबुद्ध पाठकों को फ़र्क पड़ता है जो आप जैसे अदब-आशना हैं<br />
जो ग़ज़ल से ज़ौक़-ओ-शौक़ फ़र्माते है जो उर्दू शायरी के अरूज़-ओ-बह्र से शौक़ फ़र्माते हैं ।<br />
<br />
जी ,यह ग़ज़ल --बह्र-ए-ख़फ़ीफ़ - की एक मुज़ाहिफ़ शकल है । जिस पर आगे चर्चा करेंगे।<br />
पहले "बहर-ए-ख़फ़ीफ़" की चर्चा कर लेते हैं । ग़ज़ल की बह्र की चर्चा बाद में करेंगे।<br />
<br />
<span style="color: red;">बह्र-ए-ख़फ़ीफ़ --उर्दू शायरी की एक मुरक़्क़ब [ मिश्रित ] बह्र है जिसके अर्कान है </span><br />
<span style="color: red;"><br /></span>
<span style="color: red;">फ़ाइलातुन--- मुस तफ़अ’ लुन--फ़ाइलातुन - जिसे हम आप 1-2 की अलामत में </span><br />
<span style="color: red;">2 1 2 2 ------2 2 1 2-- -2 1 2 2 </span><br />
मुरक़्कब बह्र -वह बह्र होती है जिसमें ’दो या दो से अधिक ’ अर्कान का इस्तेमाल होता है<br />
यहाँ 3-रुक्न का इस्तेमाल किया गया है ।<br />
<br />
[नोट - यह 1-2 क़िस्म की अलामत अर्कान की बहुत सही नुमाइन्दगी नहीं करते । यह ready-reckoner जैसा कूछ<br />
है । इस निज़ाम से आप समन्दर के किनारे चन्द ’सीपियाँ ’ तो फ़राहम [ एकत्र ] तो कर लेंगे मगर गहराई से ’गुहर’ नही ला पाएंगे<br />
अगर आप को अरूज़ और अर्कान अगर सही ढंग से और गहराई से समझना है तो फिर फ़ाइलुन--फ़ाइलातुन जैसे अलामत पर आज नही तो कल<br />
आना ही होगा । कारण कि अरूज़ या अर्कान ’आप के लघु-दीर्घ--गुरु -वर्ण पर ’ नहीं<br />
बल्कि -हर्फ़ के हरकात और साकिनात [हर्फ़-ए मुतहर्रिक और हर्फ़-ए-साकिन ] -सबब--वतद -फ़ासिला जैसे अलामात पर चलता है ।<br />
लघु-दीर्घ--गुरु -वर्ण का concept हिन्दी काव्य और संस्कृत के छन्द शास्त्र के लिए ही उचित है । ख़ैर ।<br />
<br />
अगर आप ध्यान से देखें तो दूसरा रुक्न ’मुस तफ़अ’-लुन लिखा है । यानी -ऎन-मुतहर्रिक है । यानी -ऎन- पर ज़बर है ।<br />
इसका क्या मतलब ? मतलब है ।<br />
मुसतफ़इलुन - [ 2 2 1 2 ] -रुक्न 2-प्रकार से लिखा जा सकता है<br />
<br />
<b>[<span style="color: purple;">क] एक मुतस्सिल शकल में</span></b> [ <span style="font-family: "urdu typesetting"; font-size: 16pt;">مستفعلن ] </span> जिसमे तमाम हर्फ़ एक दूसरे के ’सिलसिले ’ से [ मिला कर ] लिखे जा सकते है ।जिसमें मुस -तफ़-इलुन में ’-इलुन’-<span style="font-size: large;"> <span style="color: red;">علن</span> </span>वतद-ए-मज़्मुआ होता है<br />
यानी इलुन [ मुतहर्रिक +मुतहर्रिक + साकिन ] हरूफ़।<br />
तो क्या ? कुछ नही । बस जब आप ज़िहाफ़ का अमल करेंगे इस शकल पर तो वो ज़िहाफ़ लगायेंगे जो ’वतद -ए- मज़्मुआ ’ पर लगता है॥ बस यही बताना था ।<br />
<br />
<span style="color: purple;"><b>[ख] दूसरी मुन्फ़सिल शक्ल मे</b></span> [ <span style="font-family: "urdu typesetting"; font-size: 16pt;"> </span><span lang="ER" style="font-family: "urdu typesetting"; font-size: 16pt;"> مس تفع لن ] </span> \जिसमें कुछ हर्फ़ ’फ़ासिला ’ देकर [ फ़र्क़ कर के ] लिखा जा सकता है । इसमें मुस - तफ़अ’ -लुन में "तफ़ अ’ <span style="font-family: "urdu typesetting"; font-size: 21.3333px;"> </span><span style="color: red; font-size: large;"><span style="font-family: "urdu typesetting";">تفع </span>-</span>वतद -ए-मफ़रूक़ है<br />
यानी -एइन- मुतहर्रिक होने के कारण । यानी - तफ़अ’ [ मुतहर्रिक+साकिन+मुतहर्रिक ]<br />
<br />
जबकि दोनो की तलफ़्फ़ुज़ और दोनों का वज़न एक ही होता है -बस इमला [लिखने ] का फ़र्क है ।<br />
<br />
तो क्या ? कुछ नही । बस जब आप ज़िहाफ़ का अमल करेंगे इस शकल पर तो वो ज़िहाफ़ लगायेंगे जो ’वतद -ए- मफ़रुक़ ’ पर लगता है ।बस यही बताना था ।<br />
अर्थात दोनों शकलों पर लगने वाले ज़िहाफ़ अलग अलग होते हैं ।<br />
<br />
बह्र-ए-ख़फ़ीफ़ एक मुरक़्क़ब [मिश्रित ] बह्र है । क्योंकि इसमें 3- रुक्न [ फ़ाइलातुन--- मुस तफ़ इलुन--फ़ाइलातुन ] का<br />
इस्तेमाल होता है<br />
मुरक़्कब बह्र---वो बह्र जो ’दो या दो से अधिक ’ सालिम रुक्न से मिल कर बनता है ।<br />
उर्दू शायरी में यह बह्र ’मुसद्दस शकल ’ [ यानी एक मिसरा में 3-रुक्न ] में ही इस्तेमाल हुई है ।और वह भी " मुज़ाहिफ़ शकल’ में ।<br />
यानी हर किसी न किसी रुक्न पर कोई न कोई ज़िहाफ़ लगा हुआ है ।<br />
<br />
वैसे तो शायरों ने इसके मूल अर्कान [ फ़ाइलातुन--- मुस तफ़ इलुन--फ़ाइलातुन ] में शायरी तो नही जब कि की जा सकती थी<br />
लेकिन रवायतन ’मुसद्दस’ में ही शायरी की । गो कि कमाल अहमद सिद्दिक़ी साहब ने अपनी किताब -"आहंग और अरूज़ " में इसकी ’मुसम्मन शकल ’<br />
भी तज़वीज की है --मगर बात कुछ आगे न बढ़ सकी । ख़ैर ।<br />
<br />
ज़िहाफ़ लगे हुए रुक्न को -मुज़ाहिफ़ रुक्न’ कहते है । जैसे<br />
<br />
अगर सालिम रुक्न <span style="background-color: yellow;">फ़ाइलातुन </span><span style="color: purple;">[ 2 1 2 2 </span>] पर ’ख़ब्न’ का ज़िहाफ़ लगा हो तो बरामद रुक्न को मुज़ाहिफ़ रुक्न ’मख़्बून ’ फ़ इ ला तुन ’ [<span style="color: purple;"> 1 1 2 2 </span>] कहेंगे<br />
।यह एक ’आम ज़िहाफ़’ है जो शे’र के किसी मुक़ाम पर आ सकता है ।<br />
<br />
अगर सालिम रुक्न पर<span style="color: purple;"> ’<b>ख़ब्न और हज़्फ़ </b></span>" का ज़िहाफ़ एक साथ लगाया जाए तो मज़ाहिफ़ रुक्न ’मख़्बून महज़ूफ़ ’ ’फ़े अ’लुन [ 1 1 2 ] [<span style="font-family: "Urdu Typesetting"; font-size: 16pt;">فعلن ] </span> बरामद होगा।<br />
<br />
अगर सालिम रुक्न<span style="background-color: yellow;"> मुस तफ़अ’ लुन</span> [ 2 212 ] पर <span style="color: purple;"><b>’ख़ब्न’ </b></span>का ज़िहाफ़ लगाया जाए तो ’मफ़ा इ’लुन [ 12 1 2 ] बरामद होगा<br />
<br />
इस प्रकार बह्र-ए-ख़फ़ीफ़ मूल अर्कान पर अगर ये ज़िहाफ़ लगाए जाए तो निम्न दो औज़ान बरामद हो सकते हैं<br />
<span style="color: blue;">[1] फ़ाइलातुन----मफ़ाइलुन-- फ़े अ’लुन </span><br />
<span style="color: blue;"> 2 1 22 ----1 2 1 2 ---1 1 2 </span><br />
<span style="color: blue;"><br /></span>
<span style="color: blue;">[2] फ़इलातुन ----मफ़ाइलुन---फ़े अ’लुन </span><br />
<span style="color: blue;"><span style="white-space: pre;"> </span>1122 ------1 2 1 2 ----1 1 2 </span><br />
<br />
<span style="background-color: yellow;">यानी सदर/ इब्तिदा के मुक़ाम पर -फ़ाइलातुन [ 2 1 2 2 ] की जगह 1 1 2 2 [ फ़इलातुन ] लाया जा सकता है </span>।<br />
<br />
1 1 2 [ फ़े अ’लुन] पर अगर तस्कीन-ए-औसत के अमल से [ फ़अ’ लुन ] 2 2 लाया जा सकता है<br />
उसी प्रकार 1 1 2 [ फ़े अ’लुन ] की जगह 1 1 2 1 [ फ़’इलान ] भी लाया जा सकता है<br />
और उसी प्रकार 22 [ फ़अ’ लुन ] की जगह फ़अ’ लान [ 2 2 1 ] भी लाया जा सकता है<br />
<br />
कहने का मतलब यह है कि अरूज़ और ज़र्ब के मुक़ाम पर 112/ 1121/ 2 2/ 2 21 / में से कोई एक लाया जा सकता है । इजाज़त है ।<br />
<br />
<span style="color: red;">इस एक बहर के 8- मुज़ाहिफ़ शकल 8-variants बरामद हो सकते हैं </span>। यानी शायर के पास 8-आप्शन दस्तयाब है अपनी बात<br />
कहने के लिए।<br />
यही कारण है कि "बहर-ख़फ़ीफ़ मुसद्दस मख़्बून महज़ूफ़ " बहुत ही मानूस और मक़्बूल [ लोकप्रिय ] बह्र है<br />
और अमूमन हर शायर ने इस बहर में अपनी शायरी की है ।<br />
------------------<br />
अब ग़ालिब की दर्ज-ए-बाला [ ऊपर लिखित ] ग़ज़ल पर आते है<br />
<br />
<span style="color: purple;">"दिल--ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है " की बहर का नाम है </span><br />
<span style="color: purple;"><br /></span>
<span style="color: purple;">बह्र-ए-ख़फ़ीफ़ मुसद्दस मख़्बून मुज़ाहिफ़ यानी</span><br />
<span style="color: purple;">फ़ाइलातुन---मफ़ाइलुन---फ़ेअ’ लुन</span><br />
<span style="color: purple;">2122----1212-----22-</span><br />
<span style="color: purple;"><br /></span>
और इस पर ऊपर लिखे हुए ’विकल्प’ का अमल भी हो सकता है ।<br />
<br />
किसी ग़ज़ल या शे’र का बह्र जाँचने का सबसे सही तरीक़ा ’तक़्तीअ’ करना होता है<br />
<br />
ग़ालिब के इस ग़ज़ल के मतला की तक़्तीअ’ मैं कर देता हूँ बाक़ी अश’आर की तक़्तीअ’ आप कर के मुतमुईन हो लें कि क्या सही<br />
है और क्या ग़लत ?<br />
<br />
<span style="color: blue;">1 1 2 2 / 1 2 1 2 / 2 2 </span><br />
<span style="color: blue;">दिल-ए-नादाँ/ तुझे हुआ/ क्या है </span><br />
<br />
[ नोट -दिल-ए-नादाँ -में कसरा-ए-इज़ाफ़त के कारण -दिल का लाम ’मुतहर्रिक’ सा आवाज़ देगा । जिसकी चर्चा<br />
मैं ’कसरा-ए-इज़ाफ़त वाले मज़्मून में पहले ही कर चुका हूँ । अत: ’लाम’ का मुक़ाम बह्र के ऐन मुतहर्रिक मुक़ाम पर है जो सही भी है ।<br />
मतलब दिले-नादाँ में ’लाम - खींच कर नहीं पढ़ना है }ध्यान रहे ।<br />
<br />
<span style="color: blue;"> 2 1 2 2 / 1 2 1 2 / 2 2 </span><br />
<span style="color: blue;">आ ख़ि रिस दर / द की दवा /क्या है </span><br />
<br />
[नोट- जुमला ’ आखिर इस ’ में अलिफ़ का वस्ल -र-के साथ हो गया है अत: आप को आ खि रिस [ 2 1 2 --] की आवाज़ सुनाई देगी<br />
तक़्तीअ’ भी इसी हिसाब से की जायेगी ।<br />
<br />
देखा आप ने ? मतला के मिसरा उला में 1122 और सानी में 2122 लाया गया है और जो अरूज़ के ऐन मुताबिक़ भी है ।<br />
<br />
आप और अश’आर की तक़्तीअ’ खुद करें तो इस मज़्मून की सारी बातें साफ़ हो जायेंगी और आप का आत्म-विश्वास भी बढ़ेगा ।<br />
<br />
<span style="color: red; font-size: x-small;"><i><b style="background-color: yellow;">[ बह्र-ए-ख़फ़ीफ़ के बारे में मज़ीद जानकारी के लिये इसी ब्लाग पर कॄपया क़िस्त -57 देखें ]</b></i></span><br />
<br />
असातिज़ा [ गुरुजनों ] से दस्तबस्ता [हाथ जोड़ कर ] गुज़ारिश है कि अगर कहीं कुछ ग़लत बयानी हो गई हो तो बराय मेहरबानी<br />
निशानदिही फ़र्माये जिस से मैं ख़ुद को दुरुस्त कर सकूँ<br />
सादर<br />
-आनन्द.पाठक-<br />
<br />
<br /></div>
आनन्द पाठकhttp://www.blogger.com/profile/00352393440646898202noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3287188401583659492.post-67409371868217474522020-06-02T16:53:00.001+05:302020-06-02T17:01:20.962+05:30उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 60 [ रुबाई की बह्रें ]<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="white-space: pre;"><span style="color: red;">क़िस्त 60 : </span></span><span style="color: red;">रुबाई की बह्रें</span><br />
<br />
<br />
[नोट : कुछ मित्रों का आग्रह था कि कभी ’रुबाई की बह्रों पर भी बातचीत की जाए। यह आलेख उसी सन्दर्भ में ]<br />
<br />
रुबाई उर्दू शायरी की एक विधा है। यह विधा अरबी शायरी में नहीं पाई जाती है । इस का इज़ाद अहल-ए-इरान ने किया और फिर वहाँ से उर्दू शायरी में आई<br />
<br />
आप जानते होंगे ,फ़ारसी के शायर उमर ख़य्याम की रुबाईयात काफी मशहूर है और उनके विश्व के कई भाषाओं में अनुवाद भी हो चुके हैं जिसमे अग्रेजी के कवि ’फिटजेराल्ड ’ का इंग्लिश अनुवाद बहुत अच्छा माना जाता है<br />
<br />
।उन रुबाईयात के हिन्दी में भी कई अनुवाद हो चुके है जिसमें श्री हरिवंश राय ’बच्चन’ जी का हिन्दी अनुवाद बहुत अच्छा माना जाता है । बच्चन जी अनुवाद करते करते ख़य्याम की रुबाइयात से इतना प्रभावित हुए कि वो खुद ही बाद में मधुशाला मधुबाला मधु कलश आदि की रचना की ।<br />
रुबाई की बह्रें [औज़ान] की चर्चा करने से पूर्व ,रुबाई के बारे में कुछ बात कर लेते हैं<br />
अरबी में 4-की संख्या को ’अर्बा:’ कहते हैं इसी से ’मुरब्ब: [ 4-अर्कान वाले शे’र] और 4-लाइन वाली रचना को ’रुबाई’ बना है।<br />
रुबाई चार लाइन की एक रचना होती है जिसमें पहली--दूसरी--और चौथी पंक्ति तुकान्त [हम क़ाफ़िया] होती है ।तीसरी पंक्ति हम क़ाफ़िया या तुकान्त होना ज़रूरी नहीं । और हो तो मनाही भी नहीं । न होना ही बेहतर माना जाता है ।रुबाई की पहली दो पंक्ति को ’मतला’ नहीं कहते बल्कि ’मुस्सरा’ कहते है । रुबाई का सारा सार [निचोड़[’चौथी पंक्ति" में होता है या आप यूँ कह लें चौथी पंक्ति में जो जान डाली गई है -पहले की तीन लाइनें उसमें मदद करती हैं। क्लासिकल उर्दू शायरी में यह विधा काफ़ी लोक प्रिय रही मगर ग़ज़ल जैसी मक़्बूलियत हासिल न कर सकी। अमूमन हर पुराने हर शायर ने यथा ग़ालिब,मीर, ज़ौक़-दाग़-फ़िराक़ आदि कई शायरों ने कुछ न कुछ रुबाइयाँ कहीं है । परन्तु आजकल फ़ेसबुक व्हाट्स अप पर या यहाँ तक कि मुशायरों में भी रुबाइयाँ न के बराबर ही लिखी पढ़ी जाती हैं। उसकी जगह ’चार लाइन’ के मुक्तक पढ़े जाते है ,जो रुबाई नहीं होते। ’मुक्तक’ नाम आदरणीय गोपाल दास’नीरज’ जी का दिया हुआ है ।<br />
<br />
<span style="color: red;">एक मुक्तक देख लें</span><br />
<span style="color: red;"><br /></span><span style="color: red;">[1] <span style="white-space: pre;"> </span>बात को मन के मन से तोलूँगा</span><br />
<span style="color: red;"><span style="white-space: pre;"> </span>इस से पहले ज़ुबाँ न खोलूँगा</span><br />
<span style="color: red;"><span style="white-space: pre;"> </span>चाहे दुनिया सुने सुने न सुने</span><br />
<span style="color: red;"><span style="white-space: pre;"> </span>मैं जहाँ हूँ वहीं से बोलूँगा</span><br />
<span style="color: red;"><br /></span><span style="color: red;"><span style="white-space: pre;"> --</span>बलवीर सिंह ’रंग’-</span><br />
<span style="color: red;">यह रुबाई नहीं है</span><br />
<span style="color: red;"><br /></span><span style="color: red;">एक रुबाई लिख रहा हूँ</span><br />
<span style="color: red;"><br /></span><span style="color: red;">[2]<span style="white-space: pre;"> </span>दुनिया के अलम ’ज़ौक़’ उठा जाएँगे</span><br />
<span style="color: red;"><span style="white-space: pre;"> </span>हम क्या कहें क्या आए थे क्या जाएँगे</span><br />
<span style="color: red;"><span style="white-space: pre;"> </span>जब आए थे रोते हुए आप आए थे</span><br />
<span style="color: red;"><span style="white-space: pre;"> </span>जब जाएँगे औरों को रुला जाएँगे</span><br />
<span style="color: red;"><br /></span><span style="color: red;"><span style="white-space: pre;"> </span>-ज़ौक-</span><br />
<span style="color: red;"><br /></span><span style="color: red;">अब एक मतला और एक शे’र देख लें</span><br />
<span style="color: red;"><br /></span><span style="color: red;">[3]<span style="white-space: pre;"> </span>आज इतनी मिली है ख़ुशी आप से</span><br />
<span style="color: red;"><span style="white-space: pre;"> </span>दिल मिला तो मिली ज़िन्दगी आप से</span><br />
<span style="color: red;"><span style="white-space: pre;"> </span>तीरगी राह-ए-उल्फ़त पे तारी न हो</span><br />
<span style="color: red;"><span style="white-space: pre;"> </span>छन के आती रहे रोशनी आप से</span><br />
<span style="color: red;"><span style="white-space: pre;"> </span>-आनन-</span><br />
आप ध्यान से देखें -सभी कलाम में चार पंक्तियाँ है ,सभी में पहली--दूसरी--और चौथी पंक्ति तुकान्त [हम काफ़िया है] और अमूमन सभी की ’चौथी’ पंक्ति में जान है मगर सभी ’रुबाई’ नहीं है --सिवा [2] के ज़ौक़ की रुबाई<br />
इसी लिए कहते है हर चार लाईन की रचना ’रुबाई’ नहीं होती।मगर हर रुबाई ’चार लाईन’ की ही होती है । इसी रुबाई शब्द से ’मुरब्ब: ’ --[चार अर्कान वाले शेर] बना है ।<br />
कारण कि रुबाई की अपनी ख़ास बह्र होती है अपने ख़ास औज़ान होते हैं<br />
यूँ तो ’रुबाई’ उत्पति के बारे में कुछ किंवदन्तियाँ भी है। यहाँ उल्लेख करने की कोई ज़रूरत नहीं । बस आप यहीं समझ लें कि रुबाई के बह्र की उत्पति ’बह्र-ए-हज़ज’ से हुआ है<br />
<br />
बह्र-ए-हज़ज का बुनियादी सालिम रुक्न ’मुफ़ाईलुन ’[1222] होता है और यूँ तो इस सालिम रुक्न पर कई ज़िहाफ़ लग सकते हैं मगर ’रुबाई’ के सन्दर्भ में कुछ ख़ास ज़िहाफ़ ही लगते हैं ।जो नीचे लिख रहा हूं<br />
<br />
<span style="color: blue;">मुफ़ाईलुन [1222} + ख़र्ब <span style="white-space: pre;"> </span>=अख़रब ’मफ़ऊलु- [221] यानी लाम पर हरकत है[ ख़र्ब एक मुरक्कब ज़िहाफ़ है जो दो ज़िहाफ़ से मिल कर बना है =[ख़रम +कफ़]=और सालिम रुक्न पर दोनो ज़िहाफ़ का अमल एक साथ होगा । यानी मुरक़्कब ज़िहाफ़ का अमल "एक के बाद एक’--नहीं होगा।मतलब One by One नहीं होगा।</span><br />
<span style="color: blue;"><br /></span><span style="color: blue;">** मुफ़ाईलुन [1222] +ख़रम <span style="white-space: pre;"> </span>=अख़रम ’मफ़ऊलुन’-[222]**</span><br />
<span style="color: blue;">मुफ़ाईलुन [1222] +कफ़<span style="white-space: pre;"> </span>=मक्फ़ूफ़ ’ ’मफ़ाईलु- [1221] यानी लाम पर हरकत है</span><br />
<span style="color: blue;"><br /></span><span style="color: blue;">मुफ़ाईलुन [1222] +हतम<span style="white-space: pre;"> </span>=अहतम ’फ़ऊलु ’[121] यानी लाम पर हरकत है [ हतम एक मुरक्कब ज़िहाफ़ है = बतर+क़ब्ज़+तसबीग़= तीनो ज़िहाफ़ का अमल एक साथ होगा<span style="white-space: pre;"> </span></span><br />
<span style="color: blue;">[** अख़रम के बारे में आगे चर्चा करेंगे]</span><br />
<span style="color: blue;"><br /></span> रुबाई की बह्र समझना बहुत आसान है-अगर आप ’तख़्नीक़’ का अमल समझ लिए हों तो<br />
उम्मीद है कि आप लोग "तस्कीन-ए-औसत" और "तख़नीक़" का अमल जानते होंगे। जो पाठक प्रथम बार इस पॄष्ठ पर आए है उनके लिए एक बार दुहरा देता हूँ<br />
तख़नीक़ का अमल = अगर किसी बह्र के दो adjacent &amp; consecutive [समीपवर्ती मुज़ाहिफ़ रुक्न] में ’" तीन मुतहर्रिक हर्फ़ [हर्फ़ मय हरकत] एक साथ आ गए हो तो उस पर तख़्नीक का अमल हो सकता है और बीच वाला हर्फ़ ’साकिन’ माना जायेगा। और इससे एक नया वज़न बरामद होगा और यह नया वज़न बाहम मुतबादिल [ आपस में एक दूसरे से बदले जाने योग्य] भी होगा<br />
<br />
वैसे तो रुबाई की मूल बह्र तो दो - ही होती है या यूँ कह लें कि दो- ग्रुप होते है ।मगर इसी ’तख़्नीक’ के अमल से 24 -औज़ान [ वज़्न का ब0व0] बरामद होते है।और वो दो मूल बह्र यूँ हैं<br />
<br />
<i><span style="color: red;">[A] <span style="white-space: pre;"> </span>मफ़ऊलु---मफ़ाईलु---मफ़ाईलु----फ़ अ’ल/ फ़ऊल</span></i><br />
<i><span style="color: red;"><span style="white-space: pre;"> </span>221---------1221----1221--------12 / 121</span></i><br />
<br />
<i><span style="color: red;">[B] <span style="white-space: pre;"> </span>मफ़ऊलु----मफ़ाइलुन---मफ़ाईलु-----फ़ अ’ल/फ़ऊलु</span></i><br />
<i><span style="color: red;"><span style="white-space: pre;"> </span>221----------1212-----1221-------12 / 121</span></i><br />
<i><span style="color: red;">ख़याल रहे -लु- मतलब -लाम मुतहर्रिक [यानी -लाम- मय हरकत]</span></i><br />
------------------- ----------------------------------- --------------------<br />
अब मूल बह्र [A] पर ’तख़्नीक़’ का अमल करते हैं फिर देखते हैं कि कितने ’मुतबादिल’ औज़ान बरामद होते हैं<br />
<br />
<span style="white-space: pre;"> </span> -a--------- --b-- -- -c- ---- d-<br />
[A] <span style="white-space: pre;"> </span>मफ़ऊलु---मफ़ाईलु----मफ़ाईलु----फ़ अ’ल<br />
<span style="white-space: pre;"> </span>221---------1221----1221--------12<br />
<br />
<span style="white-space: pre;"> </span><br />
[1] <span style="white-space: pre;"> </span>मफ़ऊलु---मफ़ाईलु----मफ़ाईलु----फ़ अ’ल<span style="white-space: pre;"> </span><br />
<span style="white-space: pre;"> </span>221---1221----1221---12 <span style="white-space: pre;"> </span>-no operation-<br />
<br />
[2] <span style="white-space: pre;"> </span>221----1221---1222-----2<span style="white-space: pre;"> </span>operation on c &amp; d<span style="white-space: pre;"> </span><br />
<br />
[3]<span style="white-space: pre;"> </span>221----1222----221----12<span style="white-space: pre;"> </span>operation on b &amp; C<br />
<br />
[4]<span style="white-space: pre;"> </span>222---221---1221----12<span style="white-space: pre;"> </span>operation on a &amp; b<br />
<br />
[5] <span style="white-space: pre;"> </span>221---1222---222---2<span style="white-space: pre;"> </span>operation on b --c---d<br />
<br />
[6]<span style="white-space: pre;"> </span>222---221---1222---2<span style="white-space: pre;"> </span>operation on [a--b]-[-c--d]<br />
<br />
[7]<span style="white-space: pre;"> </span>222---222---221---12<span style="white-space: pre;"> </span>operation on a-b--c<br />
<br />
[8]<span style="white-space: pre;"> </span>222---222---222---2<span style="white-space: pre;"> </span>operation a--b---c---d<br />
<br />
यह तो 8-वज़न सिर्फ़ अरूज़ और ज़र्ब में ’फ़ अ’ल [12] से ही बरामद हुए<br />
ऐसे ही 8- वज़न अरूज़ और ज़र्ब में में जब ’फ़ऊल [121] लिखेंगे तो बरामद होंगे<br />
और यूँ भी अरूज़ /ज़र्ब के मुक़ाम पर ’फ़ अ’ल [12] की जगह ’फ़ऊल [121] लाया जा सकता है<br />
और वैसे भी अगर किसी शे’र के आख़िर में कोई सबब-ए-ख़फ़ीफ़ आता हो तो एक साकिन [1] बढ़ा देने से शे’र के वज़न में कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। आहंग मज़रूह नहीं होता।<br />
और वो मज़ीद 8-वज़न आप लिख सकते हैं । चलिए आप के लिए मैं लिख देता हूँ same-to-same बस आख़िर में [1] साकिन जोड़ दूँगा ’फ़ऊल [121] दर्शाने के लिए<br />
<br />
[1] <span style="white-space: pre;"> </span>मफ़ऊलु---मफ़ाईलु----मफ़ाईलु----फ़ऊल<span style="white-space: pre;"> </span><br />
<span style="white-space: pre;"> </span>221---1221----1221-- -121 <span style="white-space: pre;"> </span>-no operation-<br />
<br />
[2] <span style="white-space: pre;"> </span>221----1221---1222-----21 [फ़ा अ’]<span style="white-space: pre;"> </span>operation on c &amp; d<span style="white-space: pre;"> </span><br />
<br />
[3]<span style="white-space: pre;"> </span>221----1222----221----121<span style="white-space: pre;"> </span>operation on b &amp; C<br />
<br />
[4]<span style="white-space: pre;"> </span>222---221---1221----121<span style="white-space: pre;"> </span>operation on a &amp; b<br />
<br />
[5] <span style="white-space: pre;"> </span>221---1222---222---21<span style="white-space: pre;"> </span>operation on b --c---d<br />
<br />
[6]<span style="white-space: pre;"> </span>222---221---1222---21<span style="white-space: pre;"> </span>operation on [a--b]-[-c--d]<br />
<br />
[7]<span style="white-space: pre;"> </span>222---222---221---121<span style="white-space: pre;"> </span>operation on a-b--c<br />
<br />
[8]<span style="white-space: pre;"> </span>222---222---222---21<span style="white-space: pre;"> </span>operation a--b---c---d<br />
<br />
इस प्रकार<br />
रुबाई की पहले बुनियादी वज़न से --16- औज़ान बरामद हुए [ नोट करें]<br />
--------------_ ----------------------- --------------------<br />
अब मूल बह्र [B] पर ’तख़्नीक़’ का अमल करते हैं फिर देखते हैं कि कितने ’मुतबादिल’ औज़ान बरामद होते हैं<br />
<span style="white-space: pre;"> </span> a------------b-----------c------------d---<br />
[B] <span style="white-space: pre;"> </span>मफ़ऊलु----मफ़ाइलुन---मफ़ाईलु-----फ़ अ’ल<br />
<span style="white-space: pre;"> </span>221---------1212----1221--------12<br />
<br />
[1]<span style="white-space: pre;"> </span>221----1212 -----1221----12 <span style="white-space: pre;"> </span> -no operation-<br />
<br />
[2]<span style="white-space: pre;"> </span>222-----212-------1221---12<span style="white-space: pre;"> </span>operation on -a- &amp;-b-<br />
<br />
[3]<span style="white-space: pre;"> </span>221-----1212 ----1222----2<span style="white-space: pre;"> </span>operation on c &amp; d<br />
<br />
[4]<span style="white-space: pre;"> </span>222------212-----1222-----2<span style="white-space: pre;"> </span>operation on [a &amp; b]- [c &amp;d]<br />
<br />
जैसा कि ऊपर कह चुके हैं कि अगर शे;र के आख़िर में एक साकिन [1] और बढ़ा भी दें तो शे’र के वज़न में कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा ।आहंग मज़रूह नहीं होता । और वैसे भी अरूज़ /ज़र्ब के मुक़ाम पर ’फ़ अ’ल [12] की जगह ’फ़ऊल [121] लाया जा सकता है<br />
<br />
इस प्रकार 4 -वज़न और बरामद होते हैं जो यूँ होंगे<br />
[B] <span style="white-space: pre;"> </span>मफ़ऊलु----मफ़ाइलुन---मफ़ाईलु-----फ़ऊल<br />
<span style="white-space: pre;"> </span>221---------1212----1221--------121<br />
<br />
<br />
[1]<span style="white-space: pre;"> </span>221----1212 -----1221----121 <span style="white-space: pre;"> </span> -no operation-<br />
<br />
[2]<span style="white-space: pre;"> </span>222-----212-------1221---121<span style="white-space: pre;"> </span>operation on -a- &amp;-b-<br />
<br />
[3]<span style="white-space: pre;"> </span>221-----1212 ----1222----21<span style="white-space: pre;"> </span>operation on c &amp; d<br />
<br />
[4]<span style="white-space: pre;"> </span>222------212-----1222-----21<span style="white-space: pre;"> </span>operation on [a &amp; b]- [c &amp;d]<br />
<br />
इस प्रकार रुबाई की दूसरी बुनियादी बह्र से कुल 8-औज़ान बरामद हुए<br />
<br />
अब आप दोनो बुनियादी रुक्न के तमाम औज़ान जो बुनियादी है और जो ’मुख़्नीक़ ’ [ जो तख़नीक़ के अमल से बरामद हुए हैं] है कुल मिला दें तो<br />
<br />
16+8 = 24 औज़ान होंगे और यही अरूज़ की किताबों में लिखा है --रुबाई के 24-औज़ान होते हैं। इन अर्कान को रटने की ज़रूरत नहीं है बस समझने की ज़रूरत है।<br />
<br />
1<span style="white-space: pre;"> </span> आप की सुविधा के लिए ये सभी 24-अर्कान एक साथ एक जगह एक क्रम से लिख रहा हूँ जिससे किसी रुबाई की तक्तीअ’ या वज़न पहचानने में सुविधा हो। नीचे का क्रम सुविधाजनक ढंग से लिखा हुआ है, पर हैं वही 24-औज़ान जिसका ऊपर <span style="white-space: pre;"> </span>चर्चा कर चुका हूँ । इन में से 12-औज़ान तो वही हैं जो अरूज़/ज़र्ब में ’फ़ अ’ल’ [12] या ’फ़े’ [2] वाले हैं । बाक़ी 12-औज़ान वो हैं जिसमें मात्र अरूज़/ज़र्ब के मुक़ाम पर -1-साकिन बढ़ा दिया गया है<br />
2<span style="white-space: pre;"> </span>इन 12-औज़ान में से 6-औज़ान तो अख़रब मफ़ऊलु [221] से शुरु होते है। बाक़ी 6-औज़ान मफ़ऊलुन [222] से शुरु होते है<br />
3<span style="white-space: pre;"> </span>मफ़ऊलु [221] से शुरु होने वाले 6 औज़ान में से 3-औज़ान तो ’फ़ अ’ल [12] पर खतम होते है और बाक़ी 3-औज़ान ’फ़े’ [2] पर<br />
4<span style="white-space: pre;"> </span>यही हाल ’मफ़ऊलुन [222] से शुरु होने वाले औज़ान के साथ भी लागू होता है<br />
5<span style="white-space: pre;"> </span>इसका मतलब यह हुआ कि रुबाई का मिसरा या तो मफ़ऊलु [221] से शुरु होगी या फिर ’मफ़ऊलुन’ [222] से<br />
<span style="white-space: pre;"> </span>और खतम होगा ’फ़े/फ़ाअ’[ 2 /21] पे या फिर ’फ़ अ’ल’ /. फ़ऊल [ 12 /121] पे<br />
<br />
6<span style="white-space: pre;"> </span>आप की सुविधा , सफ़ाई और स्प्ष्टता के लिहाज़ से इन अर्कान के नाम अलामत के ऊपर नहीं लिखा।आप चाहें तो मश्क़ कर अलग से लिख सकते हैं जैसे<br />
<span style="white-space: pre;"> </span>221<span style="white-space: pre;"> </span>=मफ़ऊलु<br />
<span style="white-space: pre;"> </span>1212<span style="white-space: pre;"> </span>=मफ़ाइलुन<br />
<span style="white-space: pre;"> </span>1221<span style="white-space: pre;"> </span>=मफ़ाईलु<br />
<span style="white-space: pre;"> </span>1222<span style="white-space: pre;"> </span>=मफ़ाईलुन<br />
<span style="white-space: pre;"> </span>**222<span style="white-space: pre;"> </span>=मफ़ऊलुन**<br />
<span style="white-space: pre;"> </span>12<span style="white-space: pre;"> </span>= फ़ अ’ल [-लाम-साकिन ]<br />
<span style="white-space: pre;"> </span>121<span style="white-space: pre;"> </span>=फ़ऊल [-लाम- साकिन]<br />
<span style="white-space: pre;"> </span>2<span style="white-space: pre;"> </span>=फ़े<br />
<span style="white-space: pre;"> </span>21<span style="white-space: pre;"> </span>=फ़ाअ’ [-ऐन- मुतहर्रिक]<br />
** लेख के आरम्भ में कहा था कि ’मफ़ऊलुन’ [222] के बारे में बात में बात करेंगे। कहना यही थी कि यह ’मफ़ऊलुन’ [222] रुबाई में मुख़्नीक़ [ तख़्नीक के अमल ] से हासिल होता है। न कि ’अख़रम’ ज़िहाफ़ से । अरूज़ की कई किताबों में इसे ’अख़रम’ ज़िहाफ़ से हासिल दिखाया /बताया गया है ।<br />
<br />
<span style="color: blue;"><i><b>R-1<span style="white-space: pre;"> </span>221-- -1221----1221-- -12</b></i></span><br />
<span style="color: blue;"><i><b><br /></b></i></span><span style="color: blue;"><i><b>R-2<span style="white-space: pre;"> </span>221----1222----221----12<span style="white-space: pre;"> </span></b></i></span><br />
<span style="color: blue;"><i><b><br /></b></i></span><span style="color: blue;"><i><b>R-3<span style="white-space: pre;"> </span>221----1212 --1221---12 </b></i></span><br />
<span style="color: blue;"><i><b> <span style="white-space: pre;"> </span></b></i></span><br />
<span style="color: blue;"><i><b>R-4<span style="white-space: pre;"> </span>221----1221--- 1222-----2</b></i></span><br />
<span style="color: blue; white-space: pre;"><i><b> </b></i></span><br />
<span style="color: blue;"><i><b>R-5<span style="white-space: pre;"> </span>221--- 1222-- -222-- -2</b></i></span><br />
<span style="color: blue;"><i><b><br /></b></i></span><span style="color: blue;"><i><b>R-6<span style="white-space: pre;"> </span>221----1212 ---1222----2</b></i></span><br />
<span style="color: blue;"><i><b>------ -------- --------------- ----</b></i></span><br />
<span style="color: blue;"><i><b>R-7<span style="white-space: pre;"> </span>222--- 221-- -1221----12<span style="white-space: pre;"> </span></b></i></span><br />
<span style="color: blue;"><i><b><br /></b></i></span><span style="color: blue;"><i><b>R-8<span style="white-space: pre;"> </span>222-- -222-- -221- --12</b></i></span><br />
<span style="color: blue;"><i><b><br /></b></i></span><span style="color: blue;"><i><b>R-9<span style="white-space: pre;"> </span>222-----212- --1221---12</b></i></span><br />
<span style="color: blue;"><i><b><br /></b></i></span><span style="color: blue;"><i><b>R-10<span style="white-space: pre;"> </span>222- --221-- -1222-- -2<span style="white-space: pre;"> </span></b></i></span><br />
<span style="color: blue; white-space: pre;"><i><b> </b></i></span><br />
<span style="color: blue;"><i><b>R-11<span style="white-space: pre;"> </span>222-- -222- --222-- -2<span style="white-space: pre;"> </span></b></i></span><br />
<span style="color: blue; white-space: pre;"><i><b> </b></i></span><br />
<span style="color: blue;"><i><b>R-12<span style="white-space: pre;"> </span>222-----212- --1222-----2</b></i></span><br />
---------------- ------------------ ----------<span style="white-space: pre;"> </span><br />
<span style="white-space: pre;"> </span><br />
अगले 12-अर्कान लगभग समान ही होंगे -बस आखिर वाली रुक्न [अरूज़/ज़र्ब] मे -1-साकिन बढ़ाते जाइए।आप चाहें तो उसे पहचानने के लिए R'1---R'2---R'3--- --- R'12 Index कर सकते है जिससे पता चलता रहे कि ये वो औज़ान है जिसके अरूज़/ज़र्ब में -1-साकिन मज़ीद जुड़ा हुआ है ।<br />
यह तमाम 24-औज़ान आपस में ’मुतबादिल’ [यानी एक की बदल/जगह दूसरा] लाया जा सकता है<br />
्कारण इन तमाम 12 औज़ान की मात्रा जोड़िए ---सभी का योग एक जैसा है [20] बराबर<br />
यानी रुबाई के चारों पंक्तियों में 4-अलग अलग वज़न [ इन्ही 24 में से कोई चार] हो सकते हैं । या चारों पंक्तियों में एक ही वज़न हो सकता है<br />
उसी प्रकार बाक़ी 12 [जो अरूज़/ज़र्ब मेम -एक-साकिन बढ़ाने से हासिल होंगे] में कुल मात्रा भार 21 होगा<br />
----- --------------------- ----------------------------- ----------<br />
चलिए एक दो रुबाइयों की तक़्तीअ कर के देख लेते है -<br />
[<span style="color: purple;">क] ज़ौक़ की रुबाई देख लेते हैं</span><br />
<span style="color: purple;"><br /></span><span style="color: purple;"><span style="white-space: pre;"> </span>दुनिया के अलम ’ज़ौक़’ उठा जाएँगे</span><br />
<span style="color: purple;"><span style="white-space: pre;"> </span>हम क्या कहें क्या आए थे क्या जाएँगे</span><br />
<span style="color: purple;"><span style="white-space: pre;"> </span>जब आए थे रोते हुए आप आए थे</span><br />
<span style="color: purple;"><span style="white-space: pre;"> </span>जब जाएँगे औरों को रुला जाएँगे</span><br />
<span style="color: purple;"><span style="white-space: pre;"> </span>-ज़ौक-</span><br />
<span style="color: purple;">इसकी तक़्तीअ कर के देख लेते हैं</span><br />
<span style="color: purple;"><span style="white-space: pre;"> </span>2 2 1 / 1 2 2 1 / 1 2 2 2 / 2<span style="white-space: pre;"> </span>R-4</span><br />
<span style="color: purple;"><span style="white-space: pre;"> </span>दुनिया के /अलम ’ज़ौक़’ / उठा जाएँ /गे</span><br />
<span style="color: purple;"><span style="white-space: pre;"> </span>2 2 1 / 1 2 2 1 / 1 2 2 2 / 2<span style="white-space: pre;"> </span>R-4</span><br />
<span style="color: purple;"><span style="white-space: pre;"> </span>हम क्या क/हें क्या आए/ थे क्या जाएँ /गे</span><br />
<span style="color: purple;"><span style="white-space: pre;"> </span>2 2 1 / 1 2 2 1/1 2 2 2 /2<span style="white-space: pre;"> </span>R-4 [ -आप आए- में अलिफ़ का वस्ल है और आपाए [222]</span><br />
<span style="color: purple;"><span style="white-space: pre;"> </span>जब आए /थे रोते हु /ए आप आए /थे<span style="white-space: pre;"> </span></span><br />
<span style="color: purple;"><span style="white-space: pre;"> </span>2 2 1/ 1 2 2 1 / 1 2 2 2 /1<span style="white-space: pre;"> </span>R-4</span><br />
<span style="color: purple;"><span style="white-space: pre;"> </span>जब जाएँ /गे औरों को /रुला जाएँ /गे</span><br />
<span style="color: purple;"><span style="white-space: pre;"> </span>-ज़ौक-</span><br />
<span style="color: purple;"><br /></span><span style="color: purple;">[ख] मीर अनीस लखनवी की एक बहुत ही मशहूर रुबाई है</span><br />
<span style="color: purple;"><br /></span><span style="color: purple;">दुनिया भी अजब सराय-ए-फ़ानी देखी</span><br />
<span style="color: purple;">हर चीज़ यहाँ की आनी जानी देखी</span><br />
<span style="color: purple;">जो आ के न जाए वो बुढ़ापा देखा</span><br />
<span style="color: purple;">जो जा के न आए वो जवानी देखी</span><br />
<span style="color: purple;"><span style="white-space: pre;"> </span>-मीर अनीस लखनवी</span><br />
<span style="color: purple;"><br /></span><span style="color: purple;">तक़्तीअ’ कर के देख लेते हैं</span><br />
<span style="color: purple;"> 221 / 1212 / 1 2 2 2 / 2<span style="white-space: pre;"> </span>=221-1212---1222--2 = R-6</span><br />
<span style="color: purple;">दुनिया भी /अजब सरा /य-ए-फ़ानी दे/खी</span><br />
<span style="color: purple;">2 2 1 / 1 2 1 2 / 1 2 2 2 / 2<span style="white-space: pre;"> </span>= 221-1212---1222--2 = R-6</span><br />
<span style="color: purple;">हर चीज़ / यहाँ की आ /नी जानी दे /खी<span style="white-space: pre;"> </span></span><br />
<span style="color: purple;"> 2 2 1 / 1 2 1 2 / 1 2 2 2 /2<span style="white-space: pre;"> </span>=221-1212---1222--2 = R-6</span><br />
<span style="color: purple;">जो आ के/ न जाए वो /बुढ़ापा दे /खा</span><br />
<span style="color: purple;">2 2 1/ 1 2 1 2 / 1 2 2 2 / 2<span style="white-space: pre;"> </span>= 221-1212---1222--2 = R-6</span><br />
<span style="color: purple;">जो जा के/ न आए वो /जवानी दे /खी</span><br />
<span style="color: purple;">[नोट -इस रुबाई में एक ही वज़न चारों पंक्तियों में इस्तेमाल हुई है ]</span><br />
<br />
हैरत कि बात यह कि औज़ान में इतनी ’फ़ेक्सिबिल्टी ’[ Flexibility] के बावजूद भी रुबाइयाँ दौर-ए-हाज़िर में कम ही कही जा रही है और उनकी जगह मुक्तक या ’एक मतला-एक शे’र’ ने ले लिया है किसी मुशायरे को सरगर्म करने के लिए।<br />
शायद एक कारण ये रहा हो कि रुबाई की गायकी [मौसिक़ी] ग़ज़ल के मुकाबले कमज़ोर हो या फिर शायर के सामने इतनी राहें [24] खुल जाती है कि वो भ्रमित हो जाता हो कि कौन सा वज़न इस्तेमाल करें। यह सब मेरा ख़याल है<br />
बेहतर तो होगा कि यदि आप रुबाई कहना चाह्ते हैं तो सभी चार मिसरे एक या दो वज़न में ही कहें --कोई दिक्कत नहीं<br />
<br />
अस्तु<br />
<br />
<br />
<i><span style="color: red;">{</span></i><i><span style="color: purple; font-size: x-small;">नोट- असातिज़ा [ गुरुवरों ] से दस्तबस्ता गुज़ारिश है कि अगर कहीं कुछ ग़लतबयानी हो गई हो गई हो तो बराये मेहरबानी निशान्दिही ज़रूर फ़र्माएं ताकि मैं आइन्दा ख़ुद को दुरुस्त कर सकूँ --सादर ]</span></i><br />
<br />
<span style="color: red;">-आनन्द.पाठक-</span><br />
<span style="color: red;">Mb 8800927181ं</span><br />
<span style="color: red;">akpathak3107 @ gmail.com</span><br />
<div>
</div>
<br />
<div style="font-family: "times new roman"; margin: 0px;">
<span style="color: red;">-आनन्द.पाठक--</span></div>
</div>
आनन्द पाठकhttp://www.blogger.com/profile/00352393440646898202noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-3287188401583659492.post-2939508834761768122020-06-01T18:12:00.001+05:302020-06-02T17:00:51.719+05:30उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 69 [ बह्र-ए-हज़ज मुसम्मन मुज़ाहिफ़ ]<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="color: purple;"><b>उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 69 [ बह्र-ए-हज़ज मुसम्मन मुज़ाहिफ़ </b></span>]<br />
<br />
किसी की ग़ज़ल का एक मतला है<br />
<br />
<span style="color: blue;">नहीं उतरेगा अब कोई फ़रिश्ता आसमाँ से </span><br />
<span style="color: blue;">उसे डर लग रहा होगा अहल-ए-जहाँ से </span><br />
<br />
इस मतले की बह्र और अर्कान इस हक़ीर के मुताबिक़ दर्ज--ए-ज़ेल<br />
यूँ ठहरता है ।<br />
<br />
<span style="color: red;">मुफ़ाईलुन---मुफ़ाईलुन--मुफ़ाईलुन--- फ़े’लुन</span><br />
<span style="color: red;">1 2 2 2--- 1 2 2 2 ---1 2 2 2 ---1 2 2 </span><br />
<span style="color: red;">बहर-ए-हज़ज मुसम्मन सालिम महज़ूफ़ </span><br />
<br />
[<span style="color: blue; font-size: x-small;"><i>नोट-किसी मंच पर किसी मित्र को इस बह्र तकि जवीज पर ऐतराज़ था</i></span><br />
<span style="color: blue; font-size: x-small;"><i>उनका कहना था कि यह बह्र दुरुस्त नहीं है ऐसी कोई बह्र नहीं होती।</i></span><br />
<span style="color: blue; font-size: x-small;"><i><br /></i></span><span style="color: blue; font-size: x-small;"><i>क्यों नही होती -? इस बात का तो उन्होने कोई सन्तोष जनक जवाब नहीं दिया।</i></span><br />
<span style="color: blue; font-size: x-small;"><i>मैं अपना जवाब आप लोगों के बीच दे रहा हूँ । आप बताएँ मेरी वज़ाहत </i></span><br />
<span style="color: blue; font-size: x-small;"><i>कहाँ तक सही है और कहाँ तक ग़लत ?</i></span><br />
<br />
यह आलेख उसी सन्दर्भ में लिखा गया है ।]<br />
<br />
अगर मुफ़ाईलुन [1 2 2 2 ] पर ’हज़्फ़’ का ज़िहाफ़ लगाया जाए तो फ़े’लुन [1 2 2 ] या ’फ़ऊलुन’ बरामद होगा।<br />
<br />
<span style="color: purple;"><b>हज़्फ़ का ज़िहाफ़</b></span> : अगर रुक्न के आख़िर में ’सबब-ए-ख़फ़ीफ़ ’ हो [जैसे यहाँ -लुन-है ] तो उसको गिरा देना<br />
’हज़्फ़’ का काम है और मुज़ाहिफ़ रुक्न [1 2 2] जो बरामद होती है -को ’महज़ूफ़ ’ कहते हैं । और यह ज़िहाफ़ किसी शे’र के ’अरूज़/ज़र्ब<br />
कि लिए मख़्सूस है [ यानी ख़ास है ।<br />
<br />
यह ज़िहाफ़ ’ मुफ़ाईलुन’ [1 2 2 2 ] पर नहीं लगेगा ऐसी कहीं कोई मनाही तो नहीं ?<br />
<br />
मुमकिन है कि मेरे मित्र को यह बह्र किसी अरूज़ की किताब में न दिखी हो<br />
या किसी मुस्तनद शायर का कोई कलाम इस बहर में उनके ज़ेर-ए-नज़र न गुज़रा हो।<br />
<br />
1-अरूज़ , बह्र का सिर्फ़ क़ायदा -क़ानून-निज़ाम बताता है । किताबों में अरूज़ के प्रत्येक बह्र के<br />
[ मुरब्ब: .मुसद्दस, मुसम्मन या मुज़ाहिफ़ }लिए उदाहरण देना या तफ़्सीलात पेश करना<br />
मुमकिन नहीं है और न कोई मुसन्निफ़ [लेखक ] ऐसा करता है । अत: प्रत्येक बह्र किताबों में आ ही जाय<br />
ज़रूरी नहीं।अत: जो बह्र किताबों में न मिले या न दिखे - वह बह्र नही हो सकती -कहना मुनासिब नहीं।<br />
<br />
2- मेरा मानना है जबतक कोई बह्र अरूज़ के ऐन निज़ाम , के मुताबिक़ हो और क़वाईद और क़वानीन की कोई<br />
खिलाफ़वर्जी न करता हों तो उसे बह्र मानने में किसी को एतराज़ नहीं होना चाहिए ।या जबतक अरूज़ कोई मनाही न करता हो<br />
या कोई क़ैद न लगाता हो ,तो ऐसे बह्र में तबाज़्माई की जा सकती है ।<br />
<br />
3- यह बात सही है कि शायरों ने ज़्यादातर कलाम "बहर-ए-हज़ज मुसम्मन सालिम " या बह्र-ए-हज़ज मुसद्दस महज़ूफ़ में कहें हैं<br />
मेरा कहना है कि अगर बह्र-ए-हज़ज मुसद्दस महज़ूफ़ जब मानूस और राइज है और शे’र या ग़ज़ल कहे जा सकते है तो फिर इसके ’मुसम्मन महज़ूफ़’<br />
शकल में शे’र क्यॊं नहीं कहे जा सकते हैं ।<br />
4- अगर शायरों ने इस बह्र [ हज़ज मुसम्मन महज़ूफ़ ] में कम शायरी की तो इसका मतलब यह तो नहीं कि यह बह्र वज़ूद नहीं क़रार<br />
<br />
पा सकती । शायरों ने मुद्दत से "<span style="color: red;">बह्र-ए-वाफ़िर</span>" में भी कलाम पेश नहीं किए तो क्या ’<span style="color: red;">बहर-ए-वाफ़िर </span>’ वज़ूद में नहीं होना चाहिए ?<br />
<br />
<i><span style="color: red;">{</span></i><i><span style="color: purple; font-size: x-small;">नोट- असातिज़ा [ गुरुवरों ] से दस्तबस्ता गुज़ारिश है कि अगर कहीं कुछ ग़लतबयानी हो गई हो गई हो तो बराये मेहरबानी निशान्दिही ज़रूर फ़र्माएं ताकि मैं आइन्दा ख़ुद को दुरुस्त कर सकूँ --सादर ]</span></i><br />
<br />
<span style="color: red;">-आनन्द.पाठक-</span><br />
<span style="color: red;">Mb 8800927181ं</span><br />
<span style="color: red;">akpathak3107 @ gmail.com</span></div>
आनन्द पाठकhttp://www.blogger.com/profile/00352393440646898202noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3287188401583659492.post-91651909165555500462020-06-01T18:11:00.001+05:302020-06-17T11:14:13.827+05:30उर्दू बह्र पर एक बातचीत ; क़िस्त 68 [ एक सामान्य बातचीत 01 ]<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
{<span style="color: red;">नोट--मेरे एक मित्र ने अरूज़ के मुतल्लिक़ एक सवाल किया था ,यह आलेख उसी सन्दर्भ [संशोधित और परिवर्धित रूप ] में लिखा गया है जिससे अन्य मित्रगण भी मुस्तफ़ीद [लाभान्वित ] हो सकें </span><br />
<br />
<span style="color: blue;">्सवाल ---</span><br />
<span style="color: blue;">आदरणीय आदाब। </span><br />
<span style="color: blue;">होली की अग्रिम बधाईयॉ। </span><br />
<span style="color: blue;">कृपया मार्ग दर्शन करें। </span><br />
<span style="color: blue;">अधिकार, पुरुषोत्तम, गिरि, दुहिता, लघु जैसे शव्दों में आगे के दो लघुओं को १+१= २ मात्रा करके मुफरद बहरों के २ के स्थान पर लिखा जा सकता है क्या? कृपया कारण भी बताएँ।</span><br />
<br />
जवाब --<br />
आ0 ख़ान साहब<br />
होली की बधाई के लिए आप का बहुत बहुत धन्यवाद।<br />
<br />
आप के सवाल के दो पहलू है<br />
<br />
<span style="color: purple;">एक --हिन्दी छन्द-शास्त्र का</span><br />
<span style="color: purple;">दूसरा -- [उर्दू में ] अरूज़ का</span><br />
<br />
समस्या यहीं है<br />
जब हम दोनो पहलू को एक साथ मिला कर देखते हैं ,वहीं से ख़ल्त मल्त शुरु हो जाता है। मेरा मानना है --हिन्दी की काव्य विधायें हिन्दी छन्द शास्त्र से देखी और परखी जाएँ और उर्दू के अस्नाफ़-ए-सुखन<br />
उर्दू अरूज़ के नुक्त-ए-नज़र ्से देखें जाएँ । छन्द शास्त्र का व्याकरण अलग है और ग़ज़ल का व्याकरण अलग है । हमारे कुछ हिन्दी के साथियों ने दोनों विधाऒं के एक मंच पर लाने का प्रयास कर रहें है । कुँअर बेचैन साह्ब ने ’ग़ज़ल का व्याकरण ’ किताब में इस दिशा में एक प्रयास किया गया है। उन्होने उर्दू बह्र के कुछ हिन्दी नाम भी सुझाएँ हैं ।कुछ लोगों ने रुक्न का हिंदी नाम ’मापनी’ भी दिया है।परन्तु यह बहुत मान्यता प्राप्त नहीं कर सकी है।<br />
<br />
हिन्दी छन्द शास्त्र में---मात्रा की गणना करते है /लघु/ह्रस्व -दीर्घ की मात्रा से करते है ।हिन्दी में जैसा बोलते हैं वैसा ही लिखते है और वैसा ही गणना करते है।<br />
परन्तु अरूज़ में हर्फ़/लफ़्ज़ का वज़न तलफ़्फ़ुज़ के आधार पर [नातिक़ हर्फ़, ग़ैर नातिक़ हर्फ़ यानी मलफ़ूज़ी और ग़ैर मल्फ़ूज़ी हर्फ़ ,हरकत. साकिन हर्फ़ ,मक्तूबी ,ग़ैर मक़्तूबी हर्फ़, ] के आधार पर करते हैं। रुक्न की माँग पर वज़न निकालते है .ज़रूरत पड़ती है तो हर्फ़ के वज़न गिराते भी हैं<br />
]<br />
उर्दू में ऐसे बहुत से हर्फ़ ऐसे हैं जो लिखते तो है [जिन्हे मक़्तूबी यानी किताबत किया हुआ ,लिखा हुआ कहते हैं ]मगर तलफ़्फ़ुज़ में नहीं आता ।जैसे ’ख़्वाब’ में ’वाव’ तलफ़्फ़ुज़ में नहीं आता तो तक़्तीअ में उसका वज़न नहीं लेते।<br />
<br />
उर्दू में 1+1 को 2 नहीं मानते । अगर ऐसा होता भी है तो वो "तस्कीन-ए-औसत" की अमल से ऐसा होता है जिसे हम हिन्दी वाले समझते हैं कि उर्दू में 1+1=2 होता है<br />
<br />
उदाहरण<br />
<b>उर्दू में एक रुक्न है ’ फ़ाइलुन ’ -बह्र-ए-मुतदारिक का बुनियादी रुक्न है</b> । इस सालिम रुक्न पर अगर "ख़ब्न’ का ज़िहाफ़ लगा दें तो मुज़ाहिफ़ शकल " फ़ अ’ लुन "[ 1 1 2 ] हासिल होगा । इस "फ़अ’लुन " [1 1 2 ] जिसमे [ फ़े--ऐन--लाम तीन मुतहर्रिक एक साथ आ गए हैं और तस्कीन-ए-औसत की अमल से बीच वाला मुतहर्रिक [यानी - ऐन- को] ’साकिन’ कर देते हैं तो यही 1 1 2 अब फ़ अ’ लुन [ यानी -ऐन- अब साकिन हो गया इस अमल से ] 2 2 हो जायेगा । बस यहीं से हम समझ लेते है ं कि उर्दू में ’दो लघु [1 +1 ]मिल कर 2 हो जाता है ।अरे 1+1 यहाँ 2 हुआ तो ज़रूर ,मगर तस्कीन के अमल से हुआ जो हिन्दी के छन्द-शास्त्र से बिलकुल मुख्तलिफ़ [अलग] है। यह विषय दोनो ही भाषाओं में ख़ुद एक तवील मौज़ू है ।<br />
अब एक उदाहरण और देखते हैं<br />
आप जानते हैं कि उर्दू अर्कान में दो रुक्न ऐसे है जिसमे -1 1- आता है<br />
<span style="color: blue;">मु त फ़ाइलुन [ 1 1 2 1 2 ] --बह्र-ए-कामिल का बुनियादी रुक्न है</span><br />
और<br />
<span style="color: blue;">मुफ़ा इ ल तुन [ 1 2 1 1 2 ]--बह्र-ए-वाफ़िर का बुनियादी रुक्न है</span><br />
अगर आप के सवाल के मुताबिक़ "दो लघुओं को १+१= २ मात्रा करके मुफरद बहरों के २ के स्थान पर " लिखें तो क्या होगा ?<br />
मु त फ़ा इलुन [ 1 1 2 1 2] -- 2 2 1 2 [ मुस तफ़ इलुन ] हो जायेगा जो बह्र-ए- रजज़ का बुनियादी रुक्न है -----जो सही नहीं होगा ।इससे तो बह्र में मुबहम [ भ्रम] पैदा हो जायेगा जो उचित नहीं है । इसी प्रकार<br />
मुफ़ा इ ल तुन [ 12 1 1 2 ] --1 2 2 2 [ मफ़ा ईलुन ] हो जायेगा जो बह्र-ए-हज़ज का बुनियादी रुक्न है ---जो सही नहीं होगा । इस से तो भ्रम की स्थिति पैदा हो जाएगी जो उचित नहीं है<br />
<br />
अब आप कहेंगे इन दोनों अर्कान पर ’तसकीन-ए-औसत’ का अमल कर के 1 +1 को 2 कर देते है । नहीं वो भी नही कर सकते हैं। कारण कि तस्कीन-ए-औसत का अमल हमेशा ’मुज़ाहिफ़ रुक्न [ वह रुक्न जिस पर ज़िहाफ़ लगा हुआ हो। पर होता है । सालिम रुक्न पर कभी नहीं होता ।<br />
<br />
हाँ यदि आप काम चलाऊ जवाब चाहते है तो मेरे ख़याल से<br />
<br />
हिन्दी में <span style="white-space: pre;"> </span>जैसा लिखते है<br />
वैसा बोलते हैं तो <span style="white-space: pre;"> </span>उर्दू में जैसा बोलेंगे<br />
अधिकार = 1 1 2 1<span style="white-space: pre;"> </span>2 2 1<br />
पुरुषोत्तम = 1 1 2 2 1<span style="white-space: pre;"> </span> 2 2 2 1<br />
गिरि =1 1 <span style="white-space: pre;"> </span>2<br />
<br />
अब आप तय करें कि शे’र-ओ-सुखन के लिए कौन सा विधि अपनायेंगे----हिन्दी का छन्द-शास्त्र या उर्दू का अरूज़ ?<br />
मेरी राय तो यह है<br />
1- उर्दू के शे’र-ओ-सुखन - उर्दू के अरूज़ की नुक्त-ए-नज़र से देखी जाए<br />
2- हिन्दी के छन्द "हिंदी के छ्न्द शास्त्र’ के दॄष्टिकोण से देखा जाए<br />
3- अरूज़ के अर्कान को 1 1 2 2 1 जैसे अलामात से नहीं बल्कि उनके नाम से जैसे फ़े’लुन--फ़ाइलुन---मफ़ाईलुन----आदि के नामों से पढ़ा और समझा जाए तो बेहतर<br />
<br />
<i><span style="color: red;">{</span></i><i><span style="color: purple; font-size: x-small;">नोट- असातिज़ा [ गुरुवरों ] से दस्तबस्ता गुज़ारिश है कि अगर कहीं कुछ ग़लतबयानी हो गई हो गई हो तो बराये मेहरबानी निशान्दिही ज़रूर फ़र्माएं ताकि मैं आइन्दा ख़ुद को दुरुस्त कर सकूँ --सादर ]</span></i><br />
<br />
<span style="color: red;">-आनन्द.पाठक-</span><br />
<span style="color: red;">Mb 8800927181ं</span><br />
<span style="color: red;">akpathak3107 @ gmail.com</span></div>
आनन्द पाठकhttp://www.blogger.com/profile/00352393440646898202noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3287188401583659492.post-85500053509807239412020-06-01T18:09:00.002+05:302021-08-19T10:41:07.052+05:30उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 67 [ शायरी का एक ऐब -शुतुरगर्बा ]<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<b>उर्दू शायरी का एक ऐब : शुतुरगर्बा</b><br />
<br />
<i><span style="color: red; font-size: x-small;">डा0 शम्शुर्रहमान फ़ारुक़ी ने अपनी क़िताब " अरूज़ आहंग और बयान’ में लिखा है -</span></i><br />
<i><span style="color: red; font-size: x-small;"><br /></span></i><i><span style="color: red; font-size: x-small;">शे’र में ’ग़लती’ और”ऐब’ दो अलग अलग चीज़ हैं। ग़लती महज़ ग़लती है ।न हो तो अच्छा ।</span></i><br />
<i><span style="color: red; font-size: x-small;">मगर इसकी मौजूदगी में भी शे’र अच्छा हो सकता है ।जब कि ’ऐब’ एक ख़राबी है और शे’र की मुस्तकिल [स्थायी]</span></i><br />
<i><span style="color: red; font-size: x-small;">ख़राबी का बाइस [कारण] हो सकता है ।</span></i><br />
<br />
शायरी [ शे’र ] में कई प्रकार के ऐब का ज़िक्र आता है जिसमें एक ऐब " शुतुर्गर्बा का ऐब" भी शामिल है ।<br />
शुतुर्गर्बा का लग़वी [शब्द कोशीय ] अर्थ "ऊँट-बिल्ली" है यानी शायरी के सन्दर्भ में यह ’बेमेल" प्रयोग के अर्थ में किया जाता है<br />
[शुतुर= ऊँट और गर्बा= बिल्ली । इसी ’शुतुर’ से शुतुरमुर्ग भी बना है । मुर्ग= पक्षी । वह पक्षी जो पक्षियों ऊँट जैसा लगता हो या दिखता हो--]<br />
ख़ैर<br />
<br />
अगर आप हिन्दी के व्याकरण से थोड़ा-बह्त परिचित हैं तो आप जानते होंगे--<br />
<br />
<b>उत्तम पुरुष सर्वनाम-मैं-</b><br />
<span style="white-space: pre;"> </span> <span> </span><span> </span><span> </span> एकवचन<span style="white-space: pre;"> </span> बहुवचन<span style="white-space: pre;"> </span><br />
मूल रूप <span> </span><span> </span><span style="white-space: pre;"> </span>मैं <span style="white-space: pre;"> </span> हम<span style="white-space: pre;"> </span><br />
तिर्यक रूप<span> </span><span> </span><span style="white-space: pre;"> </span>मुझ<span style="white-space: pre;"> </span> हम<span style="white-space: pre;"> </span><br />
कर्म-सम्प्रदान<span style="white-space: pre;"> </span>मुझे<span style="white-space: pre;"> </span> हमें<span style="white-space: pre;"> </span><br />
संबंध<span style="white-space: pre;"> </span> मेरा,मेरे,मेरी<span style="white-space: pre;"> </span> हमारा.हमारे.हमारी<span style="white-space: pre;"> </span><br />
<b><br /></b><b><span style="white-space: pre;"> </span>मध्यम पुरुष सर्वनाम-’तू’</b><br />
<span style="white-space: pre;"> <span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span></span>एकवचन<span style="white-space: pre;"> <span> </span><span> </span><span> </span></span>बहुवचन<span style="white-space: pre;"> </span><br />
मूल रूप<span style="white-space: pre;"> <span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span></span>तू<span style="white-space: pre;"> <span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span></span>तुम<span style="white-space: pre;"> </span><br />
तिर्यक रूप<span style="white-space: pre;"> <span> </span><span> </span><span> </span><span> </span></span>तुझ<span style="white-space: pre;"> <span> </span><span> </span><span> </span><span> </span></span>तुम<span style="white-space: pre;"> </span><br />
कर्म-सम्प्रदान<span style="white-space: pre;"> <span> </span><span> </span><span> </span></span>तुझे<span style="white-space: pre;"> <span> </span><span> </span><span> </span><span> </span></span>तुम्हें<span style="white-space: pre;"> </span><br />
संबंध<span style="white-space: pre;"> <span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span></span>तेरा-तेरे--तेरी<span style="white-space: pre;"> <span> </span></span>तुम्हारे-तुम्हारे-तुम्हारी<span style="white-space: pre;"> </span><br />
<br />
<br />
<b>अन्य पुरुष सर्वनाम-’वह’-</b><br />
<span style="white-space: pre;"> </span> <span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span>एकवचन<span style="white-space: pre;"> <span> </span><span> </span><span> </span></span>बहुवचन<span style="white-space: pre;"> </span><br />
मूल रूप<span style="white-space: pre;"> </span> <span> </span><span> </span><span> </span>वह<span style="white-space: pre;"> <span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span></span>वे<span style="white-space: pre;"> </span><br />
तिर्यक रूप<span style="white-space: pre;"> </span> <span> </span><span> </span><span> </span><span> </span>उस<span style="white-space: pre;"> <span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span></span>उन<span style="white-space: pre;"> </span><br />
कर्म-सम्प्रदान<span style="white-space: pre;"> </span> <span> </span><span> </span><span> </span>उसे<span style="white-space: pre;"> <span> </span><span> </span><span> </span><span> </span></span>उन्हें<span style="white-space: pre;"> </span><br />
संबंध<span style="white-space: pre;"> <span> </span><span> </span><span> </span></span>उसका-उसकी-उसके<span style="white-space: pre;"> <span> </span><span> </span></span>उनका-उनके-उनकी<span style="white-space: pre;"> </span><br />
<br />
<b>अन्य पुरुष सर्वनाम-यह-</b><br />
<span style="white-space: pre;"> </span> <span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span>एकवचन<span> </span><span> </span><span> </span><span style="white-space: pre;"> </span>बहुवचन<span style="white-space: pre;"> </span><br />
मूल रूप<span style="white-space: pre;"> </span> <span> </span><span> </span> यह<span style="white-space: pre;"> <span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span></span>ये<span style="white-space: pre;"> </span><br />
तिर्यक रूप<span style="white-space: pre;"> </span> <span> </span><span> </span><span> </span>इस<span style="white-space: pre;"> <span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span></span>इन<span style="white-space: pre;"> </span><br />
कर्म-सम्प्रदान<span style="white-space: pre;"> </span> <span> </span><span> </span>इसे<span style="white-space: pre;"> <span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span></span>इन्हें<span style="white-space: pre;"> </span><br />
संबंध<span style="white-space: pre;"> <span> </span><span> </span><span> </span></span>इसका-इसकी-इसके/<span style="white-space: pre;"> </span>इनका-इनकी-इनके<span style="white-space: pre;"> </span><br />
<br />
कभी कभी शायरी में बह्र और वज़न की माँग पर हम लोग -यह- और -वह- की जगह -ये- और -वो- वे- का भी प्रयोग ’एकवचन’<br />
के रूप में करते है -जो भाव के सन्दर्भ के अनुसार सही होता है<br />
शे’र में एक वचन-बहुवचन का पास [ख़याल] ्रखना चाहिए । व्याकरण सम्मत होना चाहिए।यानी शे’र में सर्वनाम की एवं तत्संबंधित क्रियाओं में "एक रूपता" बनी रहनी चाहिए<br /><div dir="ltr" trbidi="on">शे’र में एक वचन-बहुवचन का पास [ख़याल] ्रखना चाहिए । व्याकरण सम्मत होना चाहिए।यानी शे’र में सर्वनाम की एवं तत्संबंधित क्रियाओं में "एक रूपता" बनी रहनी चाहिए</div><div dir="ltr" trbidi="on"><br /></div><div dir="ltr" trbidi="on">ख़ैर यह कोई बहुत बड़ा ऐब नहीं है ,लेकिन हर शायर को यथा संभव बचना चाहिए। आखिर ग़ज़ल तहज़ीब और तमीज की ज़ुबान जो है ।यह ऐब अनायास ही आ जाता है भावनाओं के प्रवाह में । मगर नज़र-ए-सानी पर यह पकड़ में आ जाता है</div><div dir="ltr" trbidi="on">आयेगा क्यों नहींं। बेमेल शादी शुदा जोड़ी [कद-कामत के लिहाज़ से] जल्द ही नज़र में आ जाता है चाहे आपसी राब्ता मिसरा का या उनका जितना भी प्र्गाढ़ हो। हा हा हा हा ।</div><div dir="ltr" trbidi="on">कभी कभी यह दोष मकामी ज़ुबान के प्रचलन से भी हो जाता है । जैसे पूर्वांचल [ लखनऊ के आस पास नज़ाकत और नफ़ासत की जुबान में ] आप आइए --आप जाइए--आप बैठिए बोलते है</div><div dir="ltr" trbidi="on">जब कि दिल्ली के आसपास --आप आओ---आप जाओ -आप बैठॊ --बोलते है । जो शायरी में झलक जाता है । नेक-नीयती के साथ ही बोली जाती है ।</div><div dir="ltr" trbidi="on"><br /></div>
ख़ैर<br />
दौर-ए-हाज़िर [वर्तमान समय ] में नए शायरों के कलाम में यह दोष [ऐब] आम पाया जाता है । अजीमुश्शान शायर [ प्रतिष्ठित शायर] के शे’र भी ऐसे<br />
ऐब से अछूते नहीं रहे हैं। हालाँ कि ऐसे उदाहरण इन लोगों के कलाम में बहुत कम इक्का-दुक्का ही मिलते है ।</div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">आटे में नमक के बराबर।</div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
’ग़ालि’ब’ का एक मशहूर शे’र है। आप सबने सुना होगा।<br />
<br />
<i><span style="color: red;"><span style="background-color: #fcff01;">मैने </span>माना कि तग़ाफ़ुल न करोगे लेकिन</span></i><br />
<i><span style="color: red;">ख़ाक हो जायेंगे <span style="background-color: #fcff01;">हम </span>तुमको ख़बर होने तक</span></i><br />
-ग़ालिब-<br />
<br />
इस शे’र में बह्र और वज़न के लिहाज़ से कोई ख़राबी नहीं है मगर ’शुतुरगर्बा’ का ऐब है। कैसे ?<br />
पहले मिसरा में "मैनें और दूसरे मिसरा में ’हम’ --जो अज़ रूए-क़वायद [ व्याकरण के हिसाब से ] दुरुस्त नहीं है<br />
अगर शे’र में ’मैने’ की जगह ’हमने" कह दिया जाय तो फिर यह शे’र ठीक हो जाएगा । हो सकता है कि ग़ालिब के किसी मुस्तनद दीवान<br />
[प्रामाणिक दीवान ] में शायद यही सही रूप लिखा हो ।”</div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
’मोमिन’ की एक मशहूर ग़ज़ल है --जिसे आप सभी ने सुना होगा । ---तुम्हें याद हो कि न याद हो ---। नहीं नहीं मैं आप की बात नहीं कर रहा हूँ । यह तो उस ग़ज़ल की ’रदीफ़’ है । इस ग़ज़ल को कई गायकों ने अपने बड़े ही दिलकश अन्दाज़ में गाया है<br />
यदि आप ने इस ग़ज़ल के मक़्ता पर कभी ध्यान दिया हो तो मक़्ता यूँ है<br />
<br />
<span style="color: red;"><i>जिसे आप कहते थे आशना,जिसे आप कहते थे बावफ़ा</i></span><br />
<span style="color: red;"><i>मैं वही हूँ मोमिन-ए-मुब्तिला ,तुम्हें याद हो कि न याद हो </i></span><br />
-मोमिन-<br />
<br />
यह शे’र बह्र-ए-कामिल की एक खूबसूरत मिसाल है । इस शे’र में भी बह्र और वज़न के हिसाब से कोई नुक़्स नहीं है<br />
पहले मिसरा में ’आप’ और दूसरे मिसरा में ’तुम्हें’ --यह शुतुरगर्बा का ऐब है<br />
मगर यह कलाम इतना कर्ण-प्रिय , दिलकश और मक़्बूल है कि हम लोगों का ध्यान इस तरफ़ नहीं जाता ।<br />
मगर ऐब है तो है --और चला आ रहा है ।<br />
<span style="background-color: yellow;">[<i><span style="font-size: x-small;">नोट - अगर मिसरा सानी मे थोड़ी सी तरमीम कर दी जाये तो मेरे ख़याल से मिसरा सही हो जायेगा</span></i></span><br />
<i><span style="background-color: yellow; font-size: x-small;"> जिसे <b><span style="color: red;">तुम ही </span></b>कहते थे आशना ,जिसे <b><span style="color: red;">तुम ही </span></b>कहते थे बावफ़ा </span></i><br />
<i><span style="background-color: yellow; font-size: x-small;">’आप ’ [ 2 1] की जगह ’तुम भी [ 2 1 ] यानी ’<b>ही</b>’ मुतहर्रिक ---मेरे ख़याल से वज़न और बह्र अब भी बरक़रार है ] शे’र की तासीर में क्या फ़र्क पड़ा -नहीं मालूम ]</span></i><br />
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एक बात और<br />
सिर्फ़ असंगत सर्वनाम के प्रयोग या वचन के प्रयोग से ही यह ’ऐब’ होता हो नहीं । कभी कभी इससे सम्बद्ध ’क्रियाओं’ के असंगत प्रयोग से भी यह दोष उत्पन्न होता है<br />
ग़ालिब का ही एक शे’र लेते हैं<br />
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<i><span style="color: red;">वादा आने का वफ़ा कीजिए ,यह क्या अन्दाज़ है </span></i><br />
<i><span style="color: red;">तुम्हें क्या सौपनी है अपने घर की दरबानी मुझे ?</span></i><br />
-ग़ालिब-<br />
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मिसरा उला मे "कीजिए" से ’आप’ का बोध हो रहा है जब कि मिसरा सानी में ’तुम्हें’ -कह दिया<br />
है न असंगत प्रयोग ? जी हां ,यहाँ शुतुर गर्बा का ऐब है ।<br />
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एक मीर तक़ी मीर का शे’र देखते हैं<br />
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<i><span style="color: red;">ग़लत था <span style="background-color: #fcff01;">आप से </span> ग़ाफ़िल गुज़रना</span></i><br />
<i><span style="color: red;">न समझे हम कि इस क़ालिब में <span style="background-color: #fcff01;">तू </span>था </span></i><br />
-मीर तक़ी मीर-<br />
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वही ऐब । पहले मिसरे में ’आप’ और दूसरे मिसरे में ’तू’ " ग़लत है ।ऐब है॥शुतुरगर्बा ऐब।</div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
<span style="background-color: #fcff01;">हो सकता है मीर ने -आप- का प्रयोग ’अपने आप ’ के सन्दर्भ में किया हो -तो फिर यह मिसरा सही है ।<br /></span><br /><div dir="ltr" trbidi="on">चलते चलते एक शे’र ’आतिश’ का भी देख लेते हैं</div><div dir="ltr" trbidi="on"><br /></div><div dir="ltr" trbidi="on">फ़स्ल-ए-बहार आई ’<b>पीओ"</b> सूफ़ियो शराब</div><div dir="ltr" trbidi="on">बस हो चुकी नमाज़ मुसल्ला <b>उठाइए </b></div><div dir="ltr" trbidi="on">-आतिश-</div><div dir="ltr" trbidi="on"><br /></div><div dir="ltr" trbidi="on">[ मुसल्ला--वह दरी या चटाई जिसपर बैठ कर मुसलमान नमाज़ पढ़ते ...हमारे यहाँ उसे ’आसनी’ कहते हैं।</div><div dir="ltr" trbidi="on">बज़ाहिर ,यह लहज़ा ठीक नहीं है।</div><div dir="ltr" trbidi="on"><br /></div><br />
<span style="color: blue;">अगर आप क़दीम [पुराने ] शो’अरा के कलाम इस नुक़्त-ए-नज़र से देखेंगे तो ऐसे ऐब आप को भी नज़र आयेंगे।</span><br />
<span style="color: blue;"><br /></span><span style="color: blue;">किसी का ’ऐब’ देखना कोई अच्छी बात तो नहीं ।मगर हाँ -- ऐसे दोष को देख कर आप अपने शे’र-ओ-सुखन में इस दोष से बच सकते हैं</span><br />
<span style="color: blue;">और ख़ास कर अपने नौजवान साथियों से ,शायरों से निवेदन है कि अपने कलाम में ऐसे ’ऐब’ से बचें।</span><br />
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<i><span style="color: red;">{</span></i><i><span style="color: purple; font-size: x-small;">नोट- असातिज़ा [ गुरुवरों ] से दस्तबस्ता गुज़ारिश है कि अगर कहीं कुछ ग़लतबयानी हो गई हो गई हो तो बराये मेहरबानी निशान्दिही ज़रूर फ़र्माएं ताकि मैं आइन्दा ख़ुद को दुरुस्त कर सकूँ --सादर ]</span></i><br />
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<span style="color: red;">-आनन्द.पाठक-</span><br />
<span style="color: red;">Mb 8800927181</span><br />
<span style="color: red;">akpathak3107 @ gmail.com</span><br />
<br /></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><span style="background-color: #01ffff;">Reviewed and Revised 19-aug-2021</span></div>
आनन्द पाठकhttp://www.blogger.com/profile/00352393440646898202noreply@blogger.com2